Sutlej-Yamuna Link Canal Dispute: पंजाब और हरियाणा के बीच चले आ रहे लगभग 57 साल पुराने सतलुज यमुना लिंक (SYL) विवाद को सुलझाने के लिए 28 दिसंबर को शाम 4 बजे चंडीगढ़ के ताज होटल एक बैठक होने जा रही है. केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की अगुवाई में होने वाली इस बैठक में पंजाब और हरियाणा के मुख्यमंत्री और दोनों सूबों के वरिष्ठ अधिकारी शामिल होंगे. यह बैठक इसलिए अहम है क्योंकि दोनों राज्य जल संकट का सामना कर रहे हैं, जिससे निकट भविष्य में खेती-किसानी का काम बड़े स्तर पर प्रभावित हो सकता है. यही नहीं बैठक का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि इसके बाद जनवरी 2024 के दूसरे हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट में इस विवाद को लेकर अहम सुनवाई होने वाली है. बहरहाल, बड़ा सवाल यह है कि क्या इस मामले का समाधान हो पाएगा या फिर जल के जंजाल में दोनों राज्य ऐसे ही उलझे रहेंगे.
इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में पिछली सुनवाई अक्टूबर में हुई थी. जिसमें अदालत ने पंजाब सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि 'आप हमें सख्त एक्शन लेने के लिए मजबूर न करें. हम नहीं चाहते हैं कि हम इस मुद्दे पर कोई सख्त आदेश पारित करें, इस मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए.' अदालत ने उस सुनवाई में केंद्र सरकार को दोनों राज्यों के बीच वर्षों से चल रहे इस विवाद का समाधान निकालने की पहल करने को कहा था. यह भी कहा था कि केंद्र पंजाब में नहर बनाने के लिए सर्वे शुरू करवाए और पंजाब सरकार सर्वे प्रक्रिया में सहयोग करे. ऐसे में अब बृहस्पतिवार 28 दिसंबर को चंडीगढ़ में जलशक्ति मंत्री जो बैठक करने जा रहे हैं वह दोनों सूबों में इस नहर के पानी के बंटवारे को लेकर काफी महत्वपूर्ण है.
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पंजाब और हरियाणा के बीच सतलज यमुना लिंक विवाद की शुरुआत 1 नवंबर, 1966 को राज्य पुनर्गठन के बाद से ही शुरू हो गई थी. जब पंजाब से अलग होकर हरियाणा वजूद में आया तो दोनों सूबों के बीच कई मामलों को लेकर बंटवारे हुए. लेकिन, इस जल बंटवारा नहीं हो सका. यह विवाद चलता रहा. सत्ता में जब इंदिरा गांधी आईं तो उनकी दखल के बाद यह तय हुआ कि दोनों सूबों के बीच नहर खोदी जाएगी ताकि दोनों के लोगों को पानी मिल सके. उन्होंने आठ अप्रैल, 1982 को पंजाब के पटियाला जिला स्थित कपूरी गांव में सतलुज-यमुना लिंक नहर की आधारशिला रखी. इस काम को 1991 तक पूरा हो जाना था. लेकिन विवाद के चलते काम पूरा नहीं हो पाया. हालांकि विशेषज्ञ बताते हैं कि रिपेरियन वाटर राइट यानी तटवर्ती जल अधिकारों के अनुसार जल निकाय से सटे भूमि के मालिक को पानी का उपयोग करने का अधिकार है.
बहरहाल, इसकी पृष्ठभूमि को समझने के बाद अब हम आते हैं वर्तमान घटनाक्रम पर. बृहस्पतिवार को पंजाब और हरियाणा की साझी राजधानी चंडीगढ़ में जो बैठक हो रही है उसे सियासी रंग देने की कोशिश की जाएगी. क्योंकि केंद्र और हरियाणा में बीजेपी की सरकार है, जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी की. पंचायत करने आ रहे हैं केंद्रीय जलशक्ति मंत्री जो भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं. ऐसे में समाधान निकलने की उम्मीद कम है. क्योंकि पंजाब का रुख वैसा नहीं होगा जैसा कि हरियाणा का होगा. हरियाणा सरकार ने कहा है कि सतलुज-यमुना लिंक नहर हरियाणा का हक है.
इससे पहले दोनों राज्यों के बीच 14 अक्टूबर, 2022 को द्विपक्षीय बैठक हुई थी. इसके बाद केंद्रीय जल शक्ति मंत्री ने 4 जनवरी 2023 को दूसरे दौर की चर्चा की. जिसमें दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री मौजूद थे. बैठक में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने हरियाणा को पानी देने से मना कर दिया था. तब हरियाणा के सीएम मनोहरलाल ने आरोप लगाया कि पंजाब सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं मान रहा है. हरियाणा सरकार का दावा है कि एसवाईएल नहर के मुद्दे पर हुईं सभी बैठकें पंजाब सरकार के नकारात्मक रवैये के कारण बेनतीजा रही थीं.
हरियाणा सरकार ने कहा है कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने कुछ समय पहले पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को पत्र लिखा था. जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि वे एसवाईएल नहर के निर्माण के रास्ते में आने वाली किसी भी बाधा या मुद्दे को हल करने के लिए उनसे मिलने को तैयार हैं. हरियाणा का प्रत्येक नागरिक 1996 के मूल वाद संख्या-6 के डिक्री के अनुसार पंजाब के हिस्से में एसवाईएल नहर के निर्माण के शीघ्र पूरा होने की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा है. हरियाणा सरकार ने उम्मीद जताई है कि पंजाब सरकार निश्चित रूप से इस मामले को हल करने में अपना सहयोग देगी.
सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों के बावजूद पंजाब ने एसवाईएल का निर्माण कार्य पूरा नहीं किया है. हरियाणा सरकार का दावा है कि फैसलों को लागू करने की बजाए पंजाब ने वर्ष 2004 में समझौते निरस्तीकरण अधिनियम बनाकर इनके क्रियान्वयन में रोड़ा अटकाने का प्रयास किया. एसवाईएल नहर की कुल लंबाई 214 किलोमीटर है. पंजाब में 122 किलोमीटर का हिस्सा है, जबकि हरियाणा के पास 92 किलोमीटर का एरिया है.
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2002 में हरियाणा के पक्ष में फैसला सुनाया था. पंजाब को साल भर के भीतर ही नहर बनाने के आदेश दिए थे. वर्ष 2004 में पंजाब की याचिका के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसले को कायम रखा और उसकी याचिका खारिज कर दी. इसके बाद पंजाब ने कानून पास करके हरियाणा के साथ एसवाईएल नगर परियोजना के समझौते को रद कर दिया था.
पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 के प्रावधान के अंतर्गत भारत सरकार के आदेश दिनांक 24.3.1976 के अनुसार हरियाणा को रावी-ब्यास के फालतू पानी में से 3.5 एमएएफ (Million acre-foot) जल का आबंटन किया गया था. एसवाईएल कैनाल का निर्माण कार्य पूरा न होने की वजह से हरियाणा केवल 1.62 एमएएफ पानी का इस्तेमाल कर रहा है.
हरियाणा सरकार का आरोप है कि पंजाब अपने क्षेत्र में एसवाईएल कैनाल का निर्माण कार्य पूरा न करके हरियाणा के हिस्से के लगभग 1.9 एमएएफ जल का गैर-कानूनी ढंग से उपयोग कर रहा है. पंजाब के इस रवैये के कारण हरियाणा अपने हिस्से का 1.88 एमएएफ पानी नहीं ले पा रहा है.
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इस पानी के न मिलने से दक्षिणी-हरियाणा में भूजल स्तर काफी नीचे जा रहा है. एसवाईएल के न बनने से हरियाणा के किसान महंगे डीजल का प्रयोग करके और बिजली से नलकूप चलाकर सिंचाई करते हैं, जिससे उन्हें हर वर्ष 150 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ता है. पंजाब क्षेत्र में एसवाईएल के न बनने से हरियाणा को उसके हिस्से का पानी नहीं मिल रहा. जिसकी वजह से 10 लाख एकड़ क्षेत्र को सिंचित करने के लिए सृजित सिंचाई क्षमता बेकार पड़ी है.
हरियाणा सरकार ने यह भी दावा किया है कि एसवाईएल का पानी न मिलने की वजह से उसके राज्य में हर वर्ष 42 लाख टन खाद्यान्नों की भी हानि उठानी पड़ती है. यदि इस मामले में 1981 के समझौते के अनुसार 1983 में एसवाईएल बन जाती, तो हरियाणा 130 लाख टन अतिरिक्त खाद्यान्नों व दूसरे अनाजों का उत्पादन करता. अगर 15 हजार रुपये प्रति टन की दर से इस कृषि पैदावार का आकलन करें तो यह 19,500 करोड़ रुपये बनता है.
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