अमेरिका जो दुनिया में इथेनॉल का सबसे बड़ा उत्पादक है, वह लगातार भारत पर यह दबाव बना रहा है कि वह अपने दरवाजे अमेरिकी इथेनॉल और मक्का के लिए खोल दे. लेकिन भारत, अपने रणनीतिक हितों, ऊर्जा सुरक्षा और करोड़ों किसानों की आजीविका को दांव पर लगाने को तैयार नहीं है. यह सिर्फ एक व्यापारिक असहमति नहीं है, बल्कि भारत के 'आत्मनिर्भर' भविष्य और अमेरिका के व्यापारिक विस्तार की महत्वाकांक्षाओं के बीच एक वैचारिक टकराव है. भारत का इनकार किसी जिद पर नहीं, बल्कि अपनी सफल घरेलू इथेनॉल नीति के ठोस परिणामों और भविष्य के स्पष्ट नजरिया पर आधारित है. अगर भारत अमेरिकी दबाव के आगे झुकता है, तो यह न केवल उसकी ऊर्जा सुरक्षा को कमजोर करेगा, बल्कि उन लाखों किसानों की आमदनी पर भी गहरी चोट करेगा, जिन्होंने सरकार की नीतियों पर भरोसा करके अपनी खेती का भविष्य दांव पर लगाया है.
भारत का इथेनॉल सम्मिश्रण कार्यक्रम (EBP) अब केवल एक प्रायोगिक योजना नहीं, बल्कि देश की आर्थिक और कृषि नीति का एक केंद्रीय स्तंभ बन चुका है. पिछले एक दशक में इस कार्यक्रम ने सफलता हासिल की है, इस कार्यक्रम के माध्यम से भारत ने लगभग एक दशकमें ₹1.1 ट्रिलियन यानी 1.1 लाख करोड़ रुपये) की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा की बचत की है, जो अन्यथा कच्चे तेल के आयात पर खर्च हो जाती. इससे भी अहम बात यह है कि इस कार्यक्रम ने देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकी है.
तेल विपणन कंपनियों ने सीधे तौर पर किसानों और डिस्टिलरियों को ₹87,558 करोड़ का भुगतान किया है. यह पैसा सीधे उन किसानों की जेब में गया है, जो पहले अपनी अतिरिक्त उपज को लेकर चिंतित रहते थे. इस सफलता ने निवेशकों का भरोसा भी जीता है, जिसके नतीजन देश में इथेनॉल उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए लगभग ₹40,000 करोड़ का नया निवेश आकर्षित हुआ है. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि यह कार्यक्रम अब सिर्फ पेट्रोल में मिलावट तक सीमित नहीं है, बल्कि यह ग्रामीण भारत में रोजगार पैदा करने और किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का एक शक्तिशाली माध्यम बन गया है.
भारत ने 2025 तक पेट्रोल में 20 फीसदी इथेनॉल मिश्रण (E20) का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लगभग 1016 करोड़ लीटर इथेनॉल की जरूरत होगी. यह एक विशाल मात्रा है, जिसे केवल गन्ने के भरोसे पूरा नहीं किया जा सकता. यहीं पर मक्का (Maize) एक रणनीतिक फसल के रूप में उभरकर सामने आया है. सरकार ने दूरदर्शिता दिखाते हुए इथेनॉल उत्पादन के लिए केवल गन्ने पर निर्भरता कम की है और सक्रिय रूप से मक्का को एक प्रमुख फीडस्टॉक (कच्चा माल) के रूप में बढ़ावा दे रही है. मक्का एक कम लागत वाली फसल है, जिसे उगाने में गन्ने और धान की तुलना में बहुत कम पानी की जरूकत होती है.
यह इसे न केवल किसानों के लिए किफायती बनाता है, बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी अधिक टिकाऊ बनाता है. इथेनॉल कार्यक्रम ने मक्का किसानों के लिए एक बेहद लाभकारी बनाया है. सरकारी नीति ने इथेनॉल की मांग पैदा की, जिससे डिस्टिलरियों द्वारा मक्का की खरीद बढ़ी. इस बढ़ी हुई मांग ने बाजार में मक्का की कीमतों को ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंचा दिया. विशेष रूप से बिहार जैसे राज्यों में, जहां इथेनॉल संयंत्रों में भारी निवेश हुआ है, मक्का की कीमतें कुछ साल पहले के ₹1,600-₹1,700 प्रति क्विंटल से बढ़कर ₹2,300-₹2,400 प्रति क्विंटल तक पहुंच गई हैं. इस बढ़ी हुई कीमत ने किसानों को पारंपरिक फसलों (धान-गेहूं) से हटकर मक्का की खेती करने के लिए एक मजबूत प्रोत्साहन दिया है. इससे न केवल उनकी आय में सीधी वृद्धि हुई है, बल्कि यह भारतीय कृषि में विविधता भी ला रहा है.
अगर भारत सरकार अमेरिकी दबाव के आगे झुककर सस्ते इथेनॉल या जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM) मक्का के आयात की अनुमति देती है, तो यह भारत की पूरी इथेनॉल रणनीति को सीधे तौर पर कमजोर कर देगा. इसका असर दोतरफा और विनाशकारी हो सकता है. अमेरिकी इथेनॉल, जो भारी सब्सिडी पर आधारित है, भारतीय बाजार में आते ही घरेलू मक्का की कीमतों को गिरा देगा. जिन किसानों ने सरकार की नीति पर भरोसा करके और बेहतर आय की उम्मीद में मक्का की खेती में निवेश किया है, वे खुद को ठगा हुआ महसूस करेंगे. इससे न केवल किसानों में भारी नाराजगी पैदा होगी, बल्कि सरकार की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठेंगे.
यह भारत के ऊर्जा सुरक्षा लक्ष्यों को भी खतरे में डाल देगा और घरेलू इथेनॉल उद्योग में हुए ₹40,000 करोड़ के भारी निवेश को व्यर्थ कर देगा. अमेरिका में उत्पादित अधिकांश मक्का जीएम होता है. भारत में जीएम फसलों को लेकर एक सख्त नियामक ढांचा और जन-स्वास्थ्य से जुड़ी गहरी चिंताएं हैं. अमेरिकी जीएम मक्का के आयात की अनुमति देने से न केवल यह भारतीय खाद्य शृंखला में प्रवेश कर सकता है, बल्कि यह हमारे देसी बीजों और कृषि जैव-विविधता के लिए भी एक गंभीर खतरा पैदा कर सकता है. यह एक ऐसा जोखिम है जिसे भारत उठाने को तैयार नहीं है.
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