
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मौसम का मिज़ाज बदल रहा है. इसकी वजह से होने वाले जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के साइड इफेक्ट से कृषि क्षेत्र भी अछूता नहीं है. क्योंकि बढ़ते तापमान से कहीं बाढ़, कहीं सूखा और कहीं हीट वेव आ रहे हैं, जिससे फसलें तबाह हो रही हैं. इसका सीधा असर किसानों की आय पर पड़ रहा है. लेकिन, अब खेती के जरिए उन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने की कोशिश शुरू होने वाली है जो जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं. देश का पेट भरने के साथ-साथ अब किसानों पर एक और बड़ी जिम्मेदारी आ गई है. यह जिम्मेदारी है पर्यावरण से जुड़ी. इस नेक काम को करके किसान कमाई भी कर सकते हैं. हम बात कर रहे हैं कार्बन क्रेडिट (Carbon Credit) की, जिसकी एंट्री अब एग्रीकल्चर सेक्टर में भी हो गई है. केंद्रीय कृषि मंत्रालय में कार्बन सेल का गठन कर दिया गया है.
देश में बहुत सारे किसान ऐसे हैं जो पहले से ही ऐसी खेती की प्रेक्टिस में हैं जो पर्यावरण के अनुकूल है. इसमें मिलेट्स बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने इस विषय पर काम करना शुरू कर दिया है. इसके लिए वो इसरो, नासा और यूरोपीयन स्पेस एजेंसी के सैटेलाइट की मदद लेगा. जिससे पता चलेगा कि क्या आप ऐसी प्रेक्टिस कर रहे हैं जिसमें ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और मीथेन आदि) का उत्सर्जन कम हो रहा है और जमीन की उर्वरता यानी स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन (SOC) बढ़ रहा है.
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आइए इसे विस्तार से समझते हैं कि कैसे कोई किसान कार्बन क्रेडिट के जरिए पैसा कमा सकता है. हम यह बात हवा में नहीं कर रहे हैं बल्कि हवा साफ करने के इस कारोबार में उतर चुकी कई एग्रो कंपनियां की जानकारी भी देने वाले हैं, जो कार्बन क्रेडिट खरीदेंगी. उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में इसे लेकर कंपनियों के बीच स्पर्धा तेज होगी. इस समय ग्रो इंडिगो, नेचर फार्म और वराह जैसी कंपनियां कार्बन क्रेडिट बिजनेस में उतर चुकी हैं.
अगर आप एक किसान के तौर पर खेती की ऐसी प्रेक्टिस कर रहे हैं जिसमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होता है और खेत की मिट्टी में स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन (SOC) को बढ़ा रहे हैं तो आपको कार्बन क्रेडिट मिल सकता है और यह क्रेडिट आपके बैंक अकाउंट में अतिरिक्त आय के रूप में पहुंच जाएगा. फसलों से होने वाली आय तो होगी ही.
अब आप पूछेंगे कि कार्बन क्रेडिट क्या है और क्यों दिया जाता है. दरअसल, कार्बन क्रेडिट किसी देश द्वारा अपने पर्यावरण परिवेश में हानिकारक गैसों की उत्सर्जन क्षमता को कम करने पर दिया जाता है. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के डायरेक्टर डॉ. अशोक कुमार सिंह का कहना है कि इस वक्त एक कार्बन क्रेडिट का दाम 30 से 50 डॉलर के बीच है. एक हेक्टेयर एरिया में धान के खेत में अच्छी प्रेक्टिस से आप 8 कार्बन क्रेडिट तक कमा सकते हैं. इसके लिए संस्थान काम कर रहा है.
पूरी दुनिया इस वक्त जलवायु परिवर्तन के साइड इफेक्ट झेल रही है. अब देशों के सामने ग्रीनहाउस गैसों में कमी लाने यानी कार्बन उत्सर्जन कम करने की चुनौती है. ग्लासगो में आयोजित ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज-26’ यानी COP-26 जलवायु शिखर सम्मेलन में भारत ने 2070 तक 'कार्बन न्यूट्रल' होने की बात कही है. कार्बन न्यूट्रल का अर्थ है ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में अधिक से अधिक कमी लाना या कटौती करना.
जिसमें वर्ष 2030 तक उत्सर्जन को 50 फीसदी तक कम करना भी शामिल है. ग्लोबल वार्मिंग द्वारा हो रहे जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए बनाए गए क्योटो प्रोटोकॉल में भी ग्रीनहाउस गैसों पर निश्चित समय-सीमा के अंतर्गत रोक लगाने की बात कही गई थी. यह लक्ष्य पाने के लिए सभी व्यवसायों में कार्बन फुटप्रिंट कम करने का दबाव है. कार्बन फुटप्रिंट का अर्थ किसी एक संस्था, व्यक्ति या उत्पाद द्वारा किया गया कुल कार्बन उत्सर्जन होता है. यह उत्सर्जन ग्रीनहाउस गैसों के रूप में होता है.
उदाहरण के तौर पर जो यूनिट उत्सर्जन कम करेगी वो कार्बन क्रेडिट प्राप्त करने के लिए हकदार है. लेकिन जो यूनिट निर्धारित मानकों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वह इन क्रेडिट को खरीद कर मानकों का पालन कर सकते हैं. जैसे एयरलाइंस कंपनियां, कोल कंपनियां और एनर्जी सेक्टर की कंपनियां इसे खरीदकर अपना काम चलाएंगी. ऐसे में धीरे-धीरे कार्बन क्रेडिट की मांग बढ़ रही है.
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पूसा में एग्रीकल्चरल फिजिक्स के प्रमुख डॉ. वीके सहगल ने 'किसान तक' से कहा कि एग्रीकल्चर सेक्टर से भी बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है. भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कृषि का योगदान 14 फीसदी है. इसलिए इसमें कमी करके आप कार्बन क्रेडिट ले सकते हैं.
इसके लिए किसानों को कुछ ऐसा करना होगा जिससे कि कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और मीथेन आदि गैसों में कमी आए और स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन बढ़ जाए. स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन में सारे पोषक तत्वों का सोर्स होता है. इसकी कमी से पौधे का विकास रुक जाता है. उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है.
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड सिस्टम एनालिसिस के मुताबिक नाइट्रस ऑक्साइड वातावरण में अधिक मात्रा में फैल रहा है. इसके उत्सर्जन में यह वृद्धि एग्रीकल्चर पैटर्न और नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के लगातार बढ़ते प्रयोग से हुआ है. नाइट्रोजन की अधिक उपलब्धता ने फसलों का उत्पादन बढ़ाया है लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि वातावरण में N2O का स्तर बढ़ गया है. इसके लिए ये प्रयास करने होंगे.
किसानों को कार्बन क्रेडिट देने के लिए कंपनियों और किसानों के बीच समझौता होगा. इसमें राज्य सरकार भी पार्ट होगी. लेकिन, आप अपनी खेती में जितना ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम कर रहे हैं और स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन बढ़ा रहे हैं उसे स्टेट अपने किसी प्रोजेक्ट में नहीं गिनेगा, क्योंकि कोई कंपनी आपको इस काम के लिए पहले से ही पैसा दे रही है.
इसे देने का एक इंटरनेशनल प्रोग्राम है. जिसे वॉलेंटरी कार्बन स्कीम (VCS) कहते हैं. कार्बन क्रेडिट पाने के लिए किसी कंपनी में कितने किसान जुड़ रहे हैं, इस स्कीम में उसे इस बारे में एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट सबमिट करनी होगी. किसान कंपनी के साथ इस बात को तय कर सकता है कि वो अगले 20-25 साल में कितना कार्बन क्रेडिट बनाएगा. कार्बन क्रेडिट देने वाली कंपनी को इस स्कीम में बताना होगा उसने कैसे वेरिफाई किया कि किसान ने वास्तव में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने वाली खेती का पैटर्न अपनाया.
किसान ने अपने कितने खेत की हैप्पीसीडर से बुवाई की और कितने खेत की पारंपरिक तौर पर. इसे वेरिफाई करेंगे. इस वेरिफिकेशन की एक्यूरेसी यानी सटीकता देखी जाएगी. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा वेरिफिकेशन का काम करेगा. वेरिफिकेशन की कार्यप्रणाली (Methodology) जितनी सटीक होगी, कार्बन क्रेडिट का पैसा उसी हिसाब से बढ़ेगा-घटेगा.
एक इंटरनेशनल एजेंसी वेरिफिकेशन मेथोडोलॉजी का ऑडिट भी करेगी, ताकि इस काम में कोई फर्जीवाड़ा न हो सके. मान लीजिए कि एक्यूरेसी 90 फीसदी है और एक कार्बन क्रेडिट का दाम 50 डॉलर है और किसी किसान ने दो कार्बन क्रेडिट कमाए हैं तो उसे 100 की बजाय 90 डॉलर मिलेंगे. कार्बन क्रेडिट की कीमत उनकी गुणवत्ता पर निर्भर करती है. पूसा के डायरेक्टर डॉ. अशोक सिंह का दावा है कि उनका संस्थान 95 फीसदी तक एक्यूरेट डाटा दे सकता है.
पूसा सैटेलाइट के जरिए यह कंफर्म करेगा कि किसान ने धान की रोपाई की है या फिर सीधी बिजाई की है. पराली जलाने की मैपिंग तो हो ही रही है. कितना स्वायल ऑर्गेनिक बढ़ा इसके लिए पहले ग्राउंड पर एक बेसलाइन सर्वे होगा. उसके बाद इसकी वृद्धि देखी जाएगी. खेती के पैटर्न का वेरिफिकेशन सैटेलाइट से होगा जबकि उत्सर्जन कम हुआ या फिर ऑर्गेनिक कार्बन बढ़ा है इसका मूल्यांकन सिमुलेशन मॉडलिंग से किया जाएगा. बेस सर्वे के बाद यह काम भी ऑनलाइन ही होगा.
डॉ. सिंह का कहना है कि कृषि को कार्बन बाजार से जोड़कर हम किसानों के लिए आय का एक नया स्रोत देना चाहते हैं. कार्बन क्रेडिट के महत्वपूर्ण खरीदार निजी फर्म और गैर सरकारी संगठन हैं जो स्वेच्छा से सस्टनेबल डेवलपमेंट में योगदान करना चाहते हैं. हालांकि, इसे ग्राउंड तक ले जाना और कृषि क्षेत्र में इंप्लीमेंटेशन इतना आसान नहीं है. किसी भी फसल में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करके पैसा कमाने का यह एक नया रास्ता है.
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