
खाद्यान्न संकट के समय दुनिया के अधिकांश मुल्क मदद के लिए भारत की ओर देख रहे हैं. इसकी वजह कृषि क्षेत्र में हमारी तरक्की है. इस ताकत की जड़ में हरित क्रांति है, जिसकी शुरुआत गेहूं से हुई थी. जब खाने की बात आती है तो ‘रोटी’ की बात होती है और रोटी की बात होती है तब गेहूं सबसे आगे मिलता है. हरित क्रांति की शुरुआत से पहले भारत रोटी के लिए अमेरिका के गेहूं का मोहताज था. लेकिन, हरित क्रांति वाले गेहूं ने भारत के लोगों को एक नई ऊर्जा दी. आईए इस गेहूं की पूरी यात्रा को समझते हैं. खेती-किसानी की यह कहानी काफी दिलचस्प है.
साल 1943 में हम बंगाल के अकाल को देख चुके थे. लेकिन, दो दशक बीतने के बाद 1964-65 के आसपास भी देश में अन्न का संकट बरकरार था. मॉनसून कमजोर हो गया और फिर अकाल की नौबत आने लगी. 1965 में पाकिस्तान से युद्ध चल रहा था. अमेरिका भारत को धमकी दे रहा था कि अगर युद्ध नहीं रुका तो गेहूं नहीं मिलेगा. हम अमेरिका से गेहूं मांग रहे थे. इसका मतलब यह नहीं था कि 1964 से पहले भारत में गेहूं की खेती नहीं होती थी. सच तो यह है कि गेहूं की कई वैराइटी भारत में मौजूद थीं. लेकिन इन किस्मों के तने काफी लंबे थे. जो रेनफेड यानी इरीगेशन लेस या वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए थीं. लेकिन जब बौनी किस्में आईं तब संकट का यह दौर बदलने लगा.
गेहूं मांगने से लेकर बांटने तक की भारत की इस अन्नयात्रा पर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में जेनेटिक्स एंड प्लांट ब्रिडिंग के प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉ. राजबीर यादव ने विस्तार से बातचीत की. किसान तक से बातचीत में वो कहते हैं कि 1964 से पहले भारत में मौजूद अपनी गेहूं की किस्मों में पैदावार काफी कम थी. इन किस्मों के गेहूं के तने 115 से 130 सेंटीमीटर तक लंबे थे. जिसकी वजह से वो गिर जाते थे. उन दिनों सिंथेटिक फर्टिलाइजर यूरिया भी आ गया था. ऐसे में हमें गेहूं का उत्पादन बढ़ाने के लिए गेहूं की बौनी वैराइटी की जरूरत थी. जो सिंचाई और यूरिया को सह सके, गिरे नहीं.
तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की कोशिश से बौनी किस्म का यह सीड मैक्सिको के इंटरनेशनल मेज एंड वीट इंप्रूवमेंट सेंटर यानी सिमिट (CIMMYT) से भारत लाया गया. उन दिनों डॉ. नॉर्मन बोरलॉग सिमिट में एग्रीकल्चर रिसर्चर थे. वहां वो मैक्सिकन ड्वार्फ (अर्ध-बौनी), उच्च उपज और रोग प्रतिरोधी गेहूं की किस्में विकसित करने में जुटे हुए थे.
बौनी किस्मों के गेहूं का बीज भारत के खेतों तक पहुंचाने के काम को मैक्सिको से डॉ. बोरलॉग और भारत से डॉ. एमएस स्वामीनाथन देख रहे थे. भारत ने मैक्सिको के सिमिट से लर्मा रोहो (Lerma Rojo), सोनारा-64, सोनारा-64-A और कुछ अन्य किस्मों के गेहूं के 18,000 टन बीज का इंपोर्ट किया.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान दिल्ली, पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना और पंत नगर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी ने दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के कई स्थानों पर मैक्सिको से आए बौने गेहूं की किस्मों का ट्रॉयल किया. ट्रायल दिल्ली के जौंती गांव में भी हुआ था. टेस्ट में ये बौनी निकलीं और प्रोडक्टिविटी भारतीय किस्मों से कहीं अच्छी थी. फिर तीनों संस्थानों ने 1966 के आसपास इन बौनी किस्मों की मदद से 'कल्याण सोना' नाम से अपनी नई बौनी किस्म विकसित की. दूसरी किस्म थी सोनालिका. यह सॉर्ट ड्यूरेशन की किस्में थीं जिनकी लेट बुवाई भी की जा सकती थी.
इन दोनों किस्मों की वजह से भारत के गेहूं उत्पादन में जंप आया. इसीलिए इस घटना को हम हरित क्रांति के नाम से भी जानते हैं. ट्रायल दिल्ली के जौंती गांव में भी हुआ था. नई किस्मों का असर यह था कि गेहूं का उत्पादन 1965 में जो सिर्फ 12 मिलियन टन था वो 1968 में बढ़कर 17 मिलियन टन तक हो गया. उस वक्त देश के कृषि मंत्री के पद पर सी. सुब्रमण्यम आसीन थे. उसके बाद भारत ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. आज हमारे पास गेहूं की करीब पांच सौ किस्में हैं. हम 108 मिलियन टन गेहूं पैदा करने लगे हैं.
हरित क्रांति और गेहूं की इस यात्रा की एक कड़ी अभी बाकी है. जिसके तार कोरिया और जापान से भी जुड़े हुए हैं. दरअसल, लर्मा रोहो, सोनारा-64 जैसी जो किस्में मैक्सिको में डेवलप हुईं, उनमें बौने जीन के स्रोत के रूप में नोरिन-10 किस्म का गेहूं काम आया. जिसका जर्मप्लाज्म कोरिया से जापान और फिर संयुक्त राज्य अमेरिका पहुंचा. क्रॉप वैराइटी इंप्रूवमेंट प्रोग्राम के तहत नोरिन-10 के जीन को इंटरनेशनल मेज एंड वीट इंप्रूवमेंट सेंटर, मैक्सिको को भी दिया गया.
नोरिन-10 का उपयोग यहां नॉर्मन बोरलॉग और उनके सहयोगियों द्वारा स्थानीय किस्मों के साथ बौनी किस्मों का उत्पादन करने के लिए किया गया था. नोरिन-10 का तना केवल 60-100 सेमी तक लंबा होता था. इसके दो जीन, Rht1 और Rht2 के जरिए गेहूं की ऊंचाई कम हो गई. इससे विकसित नई किस्मों को बाद में दुनिया भर में वितरित किया गया. मतलब साफ है कि परोक्ष रूप से नोरिन 10 ने भारत के गेहूं उत्पादन में मदद की. आज भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक है.
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