scorecardresearch
चावल उत्पादन में भारत को ऐसे म‍िली कामयाबी, छोटे कद वाले धान की ये है 'बड़ी कहानी'

चावल उत्पादन में भारत को ऐसे म‍िली कामयाबी, छोटे कद वाले धान की ये है 'बड़ी कहानी'

मौजूदा समय में भारत करीब डेढ़ सौ मुल्कों को अपने यहां पैदा हुआ चावल ख‍िला रहा है. जबक‍ि, साठ के दशक में खुद खाद्यान्न के ल‍िए दूसरे देशों का मोहताज था. पढ़ि‍ए, कैसे ताइवान ने ताइचुंग नेटिव-1 और फिलीपींस ने आईआर-8 के जर‍िए हमारी मदद की.

advertisement
history of rice in india history of rice in india

दुनिया के अध‍िकांश घरों में चावल पकाया जाता है. मक्के के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा मुख्य अनाज है. व‍िश्व की आधी से अध‍ि‍क आबादी का पेट चावल से भरता है और इसमें बड़ा योगदान भारत का है. वो इसल‍िए क्योंक‍ि दुन‍िया के कुल चावल एक्सपोर्ट में इस समय भारत की ह‍िस्सेदारी लगभग 45 फीसदी हो गई है. आज हमारे यहां पैदा होने वाले चावल के मुरीद कम से कम डेढ़ सौ मुल्क हैं. लेकिन, क्या आपको पता है क‍ि एक वक्त ऐसा भी था जब भारत खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था. तब देशवासी अनाज के ल‍िए अमेरिका के मोहताज थे. यानी हमारे देश में खाने भर का चावल नहीं होता था. संकट के उस दौर में भारत को संभालने के ल‍िए ताइवान और फिलीपींस आगे आए थे. 

धान यानी चावल की उत्पत्ति का केंद्र चीन को माना जाता है. दूसरी ओर चीन के दुश्मन ताइवान ने इस फसल को भारत में आगे बढ़वाने में बहुत बड़ी मदद की. इस कहानी को आगे बढ़ाने से पहले हमें यह समझने की जरूरत है क‍ि उत्तर भारत में चावल की खेती का इत‍िहास करीब 5,000 साल पुराना है. इसल‍िए यहां चावल की हजारों क‍िस्में मौजूद थीं. हालांक‍ि, उनका उत्पादन काफी कम था, लेक‍िन खुशबू बेजोड़ थी. साठ के दशक में हुई हरित क्रांत‍ि से पहले भी भारत में चावल की कम से कम तीन सौ ऐसी प्रजातियां म‍िलती थीं. 

बौने धान की जरूरत 

राइस साइंटिस्ट प्रो. रामचेत चौधरी फिलीपींस स्थित इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी इरी में 1989 से 1999 तक जर्म प्लाज्म एक्सचेंज के ग्लोबल कोर्डिनेटर रह चुके हैं. इन द‍िनों उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में रहते हैं. 'क‍िसान तक' से बातचीत में वो कहते हैं क‍ि इरी के जीन बैंक में धान की एक लाख से अधिक प्रजातियां हैं, जिनमें से अकेले 60 हजार तो भारत की ही हैं. हालांक‍ि, पुरानी क‍िस्मों के धान का तना लंबा और कमजोर हुआ करता था. लंबाई 150 सेंटीमीटर तक होती थी. ज‍िससे धान ग‍िर जाता था और उत्पादन बहुत कम हो जाता था. 

यहां अधिकतम 8 क्विंटल प्रति एकड़ पैदावार थी. तब तक रासायन‍िक उर्वरक के तौर पर यूर‍िया आ चुका था. यूर‍िया और अध‍िक पानी के इस्तेमाल से उत्पादन बढ़ जाता था. लेक‍िन, खाद-पानी का फायदा उठाने के लिए बौनी और कड़े तने वाली किस्मों की जरूरत थी. क्योंक‍ि इन दोनों का इस्तेमाल करने पर धान जल्दी ग‍िर जाता था. तब बौने क‍िस्म की जरूरत लगने लगी, ताक‍ि उत्पादन बढ़े और खाद्यान्न संकट का समाधान हो. 

ताइचुंग नेटिव-1 की एंट्री 

चौधरी ने बताते हैं क‍ि ताइवान भारत की इस जरूरत को पूरा करने के ल‍िए आगे आया. उसने अपने यहां उगने वाली बौनी धान की प्रजाति ताइचुंग नेटिव-1 (TN1-Taichung Native-1) दी. इसने भारतीय कृषि क्षेत्र की काया पलट दी. ताइचुंग नेटिव-1 ने हरित क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ताइवान में विकसित टीएन-1 को दुनिया में चावल की पहली अर्ध-बौनी किस्म माना जाता है. 

धान की दूसरी बौनी किस्म 'आईआर-8' आई. ज‍िसे इरी ने भारत को 1968 में द‍िया. इसके जर‍िए तेजी से उत्पादन उत्पादन बढ़ने की शुरुआत हो गई. उसके बाद 1969 में ही हमारे वैज्ञानिकों ने इन प्रजातियों से क्रॉस ब्र‍िड‍िंग शुरू की. ओडिशा में चावल की एक किस्म थी टी-141, ज‍िसका ताइचुंग नेटिव-1 से क्रॉस ब्रिड‍िंग करके जया नाम का धान तैयार किया गया. इसका तना 150 सेंटीमीटर से घटकर 90 का हो गया. इस कोश‍िश से उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई. इसके बाद भारत ने चावल के क्षेत्र में मुड़कर नहीं देखा. हालांकि, इससे पहले पचास के दशक में धान उत्पादन बढ़ाने की एक कोश‍िश जापान के साथ भी हुई थी. 

उत्पादकता क‍ितनी बढ़ी? 

केंद्रीय कृष‍ि मंत्रालय की एक र‍िपोर्ट के मुताब‍िक आजादी के बाद 1950-51 में प्रत‍ि हेक्टेयर स‍िर्फ 668 क‍िलो चावल पैदा होता था, जो 1975-76 में 1235 क‍िलो तक पहुंच गया. क्यों‍क‍ि तब तक बौनी क‍िस्मों का धान आ चुका था और खाद का इस्तेमाल बढ़ने लगा था. साल 2000-01 में उपज 1901 क‍िलो प्रत‍ि हेक्टेयर थी और अब इसका आंकड़ा 2020-21 में 2713 क‍िलोग्राम तक पहुंच गया है. यह सफलता सरकार की कोश‍िशों, कृष‍ि वैज्ञान‍िकों की मेहनत से तैयार की गईं अच्छी क‍िस्मों और क‍िसानों की बदौलत म‍िली है. 

चावल का क‍ितना एक्सपोर्ट? 

फ‍िलहाल, आज का सच तो यह है क‍ि चीन के बाद भारत दुन‍िया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक है. इसके बाद इंडोनेशिया, बांग्लादेश और वियतनाम, थाईलैंड, फिलीपीन्स और म्यांमार आद‍ि के नाम आते हैं. आज सभी कृषि वस्तुओं में देश के ल‍िए विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाला चावल ही है. एपिडा के मुताबिक साल 2021-22 में हमने 7268.8 करोड़ रुपये का चावल एक्सपोर्ट क‍िया. ज‍िसमें बासमती का एक्सपोर्ट 26416.5 करोड़ रुपये का है. चावल का इतना एक्सपोर्ट कभी नहीं हुआ था. 

धान को लेकर बदली धारणा 

कभी हमें खाद्य सुरक्षा के ल‍िए चावल उत्पादन बढ़ाने की जरूरत थी. हमने इसके ल‍िए कई मोर्चों पर मेहनत की और सफलता का मुकाम हास‍िल क‍िया. दुन‍िया का पेट भरा. ले‍क‍िन, अब पर्यावरण से जुड़ी च‍िंताओं के कारण धान की खेती को लेकर धारणा बदलने लगी है. क्योंक‍ि धान की खेती में पानी का दोहन बहुत होता है.

कृष‍ि वैज्ञान‍िकों के मुताबिक एक क‍िलो चावल पैदा करने में करीब 3000 लीटर पानी खर्च हो जाता है. ऐसे में हम चावल नहीं बल्क‍ि पानी एक्सपोर्ट कर रहे हैं, जो हमारी आने वाली पीढ़‍ियों के ल‍िए ठीक नहीं है. इसल‍िए कई सूबों में अब धान की खेती को ड‍िस्करेज करने का कार्यक्रम शुरू हो गया है. फ‍िर भी चावल की इस व‍िकास यात्रा में हमें ताइचुंग नेटिव-1 और आईआर-8 के योगदान को नहीं भूलना चाह‍िए.