भारत में केला सिर्फ एक फल नहीं है, यह परंपरा, संस्कृति और आस्था से जुड़ा हुआ है. पूजा-पाठ से लेकर त्योहारों तक, खासतौर पर उत्तर और दक्षिण भारत में, देसी केले का विशेष महत्व है. लेकिन आज शहरों में कैवेंडिश नामक विदेशी केला हर दुकान, बाजार और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर दिखता है, जबकि झारखंड और बिहार का चिनिया केला मिलना किसी खजाने की खोज जैसा लगता है.
कैवेंडिश किस्म का जन्म इंग्लैंड में हुआ था और यह 20वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत आया. इसके एक समान आकार, लंबी शेल्फ लाइफ और भारी उत्पादन ने इसे किसानों और व्यापारियों के बीच लोकप्रिय बना दिया. महाराष्ट्र, गुजरात, यूपी, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इसे बड़े पैमाने पर उगाया जा रहा है. आज, देश के लगभग 70% केला उत्पादन में कैवेंडिश का ही हिस्सा है.
हालांकि कैवेंडिश की पकड़ मजबूत है, लेकिन देसी केले भी अपनी जगह बनाए हुए हैं. ICAR-National Research Centre for Banana के निदेशक, डॉ. रमासामी के अनुसार, भारत का 50% केला उत्पादन आज भी देसी किस्मों से होता है. इनमें तमिलनाडु का रस्थाली, केरल का नेन्द्रन, असम का मालभोग और बिहार का चिनिया प्रमुख हैं.
शहरों में भले ही कैवेंडिश दिखता हो, लेकिन गाँवों और पारंपरिक क्षेत्रों में चिनिया, मुठिया, अलपन जैसे किस्मों की अब भी जबरदस्त मांग है. पूजा, शादी-ब्याह और खास त्योहारों में देसी केले की मांग बनी रहती है. यही वजह है कि बिहार, झारखंड, असम और दक्षिण भारत में आज भी देसी किस्में बड़े पैमाने पर उगाई जाती हैं.
आज जहां पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और बीमारियों से जूझ रही है, वहां भारतीय देसी केले ज्यादा टिकाऊ और मजबूत साबित हो रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, देसी किस्में जैसे कि चिनिया और नेन्द्रन फंगल बीमारियों, सूखा, असमय बारिश और तापमान बदलाव के खिलाफ बेहतर प्रतिरोध रखती हैं.
देसी किस्में केवल स्वाद और परंपरा में ही नहीं, बल्कि पोषण में भी अव्वल हैं. जैसे, बिहार का चिनिया आयरन से भरपूर होता है और बच्चों के लिए पचाने में आसान है. वहीं, केरल का नेन्द्रन फाइबर और बीटा-कैरोटीन में समृद्ध है.
दुनिया में एक समय ग्रोस मिशेल नामक केला सबसे लोकप्रिय था, लेकिन एक बीमारी ने उसे खत्म कर दिया और कैवेंडिश ने उसकी जगह ली. अब जबकि कैवेंडिश पर भी जलवायु और बीमारियों का खतरा मंडरा रहा है, भारत के पास एक मौका है कि वह अपने विविध देसी किस्मों को दुनिया के सामने लाए. हां, अभी चुनौती है, जैसे एक समानता, शेल्फ लाइफ और निर्यात मानकों की कमी, लेकिन स्वाद, पोषण, विविधता और जलवायु सहनशीलता के कारण भारत के केले भविष्य में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अपनी जगह बना सकते हैं.
भारत का केला उत्पादन विश्व में सबसे अधिक है और इसमें देसी किस्मों की अहम भूमिका है. ये न केवल हमारी परंपराओं का हिस्सा हैं, बल्कि बदलते पर्यावरण के लिए भी बेहतर विकल्प हैं. ज़रूरत है कि हम अपने देसी केले की कद्र करें, उसे बाजार में बढ़ावा दें और दुनिया को बताएं कि स्वाद और सेहत में कोई मुकाबला नहीं.
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