देश में अंगूर की खेती का चलन तेजी से बढ़ रहा है और किसान इसकी खेती करके अच्छी आय अर्जित कर सकते हैं. महाराष्ट्र अंगूर उत्पादन में अग्रणी राज्य है. साल 2024 में एपिडा के आंकड़ों के अनुसार, अंगूर की खेती का क्षेत्रफल लगभग 1.75 लाख हेक्टेयर है. प्रमुख अंगूर उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और मिजोरम हैं. महाराष्ट्र 2023-24 में कुल उत्पादन का 67% से अधिक योगदान देता है और देश में इसकी उत्पादकता सबसे अधिक है. महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडु जैसे इलाकों में है, लेकिन इसके अलावा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश और दिल्ली-राजस्थान के कुछ भागों में अंगूर की खेती की जा रही है.
अंगूर की जड़ें मजबूत होती हैं, इसलिए यह विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उग सकता है, लेकिन रेतीली दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त है. गर्म और शुष्क जलवायु अंगूर की खेती के लिए बेहतर मानी जाती है. थॉम्पसन सीडलेस सबसे लोकप्रिय किस्म है, जो लगभग 78.96% क्षेत्र में उगाई जाती है. अन्य प्रमुख किस्में 2A-क्लोन, टास-ए-गणेश और शरद सीडलेस हैं. इसकी खेती के लिए 4-6 गांठों वाली 23-45 सेमी लंबी कलमों का उपयोग किया जाता है.
कलमों को क्यारियों में लगाकर एक साल बाद रोपाई की जाती है. खेत को तैयार करके 90x90 सेमी के गड्ढे खोदे जाते हैं. गड्ढों में मिट्टी, खाद और उर्वरक मिलाकर जनवरी-फरवरी में रोपाई की जाती है. पौधे लगाते समय, किस्म और लगाने की विधि के हिसाब से दूरी कम-ज्यादा हो सकती है. बेल लगाने के तुंरत बाद पानी देना ज़रूरी होता है.
अंगूर में पंडाल विधि सबसे लोकप्रिय है, जिसमें बेलों को तारों के जाल पर फैलाया जाता है. नियमित छंटाई से अच्छी फसल मिलती है. इसकी खेती में नवंबर-दिसंबर में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. फूल आने से फल पकने तक नियमित सिंचाई जरूरी है. अंगूर की 5 साल पुरानी बेलों के लिए नाइट्रोजन, पोटाश, पोटेशियम सल्फेट और गोबर की खाद की जरूरत होती है.
पंडाल तकनीक से लगाई गई अंगूर की 5 साल पुरानी बेलों में 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम पोटाश, 700 ग्राम पोटेशियम सल्फेट और 50 से 60 कि.ग्रा. गोबर की खाद की ज़रूरत होती है. छंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में, नाइट्रोजन और पोटाश की आधी मात्रा और फॉस्फोरस की सारी मात्रा डाल दें. बाकी बची हुई उर्वरकों की मात्रा, फल लगने के बाद दें. खाद को मुख्य तने से दूर 15-20 सेमी गहराई पर डालना सही रहता है.
फल की तेज वृद्धि और क्वालिटी के लिए बूस्टर देना चाहिए. इससे दानों का आकार दो गुना हो जाता है. पूसा सीडलेस किस्म में पूरे फूल आने पर 45 पीपीएम कंसंट्रेशन की दवा 450 मिग्रा प्रति 10 ली. पानी में, इसी तरह ब्यूटी सीडलेस में आधा फूल खिलने पर 45 पीपीएम और पर्लेट क़िस्म में आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए. जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिड़काव किया जाता है, या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबोया जाता है, यह एक तरह से बूस्टर की तरह काम करता है और फल जल्द पकते हैं.
इस तरह अच्छी देखभाल करने पर अंगूर के बाग़ लगाने के 3 साल बाद फल मिलने शुरू हो जाते हैं, जो 25-30 सालों तक फल देते रहते हैं. उत्तर भारत में उगाई जाने वाली क़िस्मों से शुरू में कम उपज मिलती है, जो बाद में धीरे-धीरे बढ़ जाती है. इस तरह 14 से 15 साल के बगीचे से 30 से 35 टन और पूसा सीडलेस से 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर फल मिल जाता है.
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