
आमतौर पर यह माना जाता है कि बकरे-बकरी का पालन दूध और मीट के लिए किया जाता है. मीट के लिए काटे गए बकरे की खाल (स्किन) से लैदर भी बनता है. लेकिन हमारे देश में एक खास नस्ल के बकरे-बकरी से बोझा ढोने का काम भी लिया जाता है. यह बकरे खासतौर पर पहाड़ी और ठंडे इलाकों में पाले जाते हैं. बकरे-बकरी की दो तरह की नस्ल हैं जो पहाड़ी इलाकों में बोझा ढो सकती हैं. हालांकि 19वीं पशु जनगणना के मुताबिक इनकी संख्या अब बहुत ज्यादा नहीं है.
गद्दी नस्ल की बकरी के लम्बे बालों से जहां कम्बल बनाए जाते हैं, वहीं अपने दुग्ध काल में 50 लीटर तक दूध भी देती है. इस नस्ल के बकरे-बकरी में मांस भी खूब होता है. जबकि चांगथांगी एक साल में 1.5 किलो से लेकर 2.25 किलो तक पश्मीना देती है. यह माइनस 40 डिग्री तापमान में भी रह लेती है.
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बकरी पालन करने वाले और सीआरआईजी, मथुरा से बकरी पालन की पढ़ाई करने वाले फहीम खान बताते हैं, देश में चांगथांगी और गद्दी दो खास नस्ल के बकरे-बकरी पाए जाते हैं. गद्दी नस्ल के बकरे-बकरी हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, चंबा, शिमला और कुल्लू घाटी में, वहीं जम्मू्-कश्मीर के जम्मू में यह नस्ल खासतौर पर पाली जाती हैं. इसे वाइट हिमालयन भी कहा जाता है. 19वीं पशु जनगणना के मुताबिक इनकी संख्या 3.60 लाख है.
इस नस्ल का बकरा 28 किलो तो बकरी 23 किलो तक की पाई जाती है. होती तो यह सफेद रंग की ही हैं, लेकिन भूरे और काले रंग के धब्बे भी इनके शरीर पर पाए जाते हैं. इनकी दो खास पहचान यह होती हैं कि कान 12 सेमी तक लंबे नीचे की ओर गिरे हुए होते हैं. वहीं शरीर का ज्यादातर हिस्सा लम्बे-लम्बे बालों से ढका होता है.
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चांगथांगी नस्लर के बकरे-बकरी लेह, कारगिल, लद्दाख और लाहुल-स्पीती घाटियों में खासतौर से पाला जाता है. लद्दाख में एक इलाका है चांगथांग जिसके नाम पर इनका नाम चांगथांगी नस्ल रखा गया है. इस इलाके में यह बहुत पाली जाती हैं. 19वीं पशु जनगणना के मुताबिक इनकी संख्या 2 लाख ही बची है. बकरे-बकरी दोनों का ही वजन 20 से 21 किलो के आसपास होता है. गद्दी नस्ल की तरह से इनका रंग भी सफेद ही होता है. लेकिन काले और भूरे रंग के धब्बे भी इनके शरीर पर पाए जाते हैं. इनकी खास पहचान यह है कि इनके सींग ऊपर की ओर उठे हुए और घुमावदार होते हैं.
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