भाव की कमी ओर प्रोसेसिंग यूनिट नहीं होने से अब मध्यप्रदेश के आगर जिले से देश भर में अपनी मिठास पहुंचाने वाले संतरे की कमर तोड़ दी है. संतरे के साथ-साथ उन किसानों का भी हाल बेहाल हो गया है जिन्होंने अपने खेतों में संतरे लगाए. ये वो किसान हैं जिन्होंने अपनी जमीन में संतरा लगाया और हर साल की तरह अच्छी मात्रा में संतरे की उपज भी होती है. इस बार भी किसानों को लगा था कि संतरा बहार पर है और उन्हें बहुत अच्छे दाम मिलेंगे. इस पैसे से उनके कई बड़े काम होंगे. जैसे बच्चे की फीस भरी जाएगी तो बेटा-बेटी का ब्याह होगा. लेकिन किसानों के अरमान टूट गए हैं.
आज स्थिति ये है कि किसानों को संतरे तोड़ने के लिए मजदूर का पैसा देना भी भारी पड़ रहा है. न ही अच्छे भाव में इन संतरों को खरीदने के लिए कोई व्यापारी है, न कोई आम खरीदार. संतरे पेड़ पर ही पक गए हैं और पकने के साथ ही धीरे-धीरे जमीन पर गिरने लगे हैं. अधिक पक जाने के कारण संतरे सड़ने भी लगे हैं. यह समस्या किसी एक किसान की नहीं है, बल्कि हर किसान बदहाली के आंसू रो रहा है. जिले भर के हजारों किसानों के खेत से संतरे ले जाने वाला कोई नहीं है.
अब किसानों को यह समझ नहीं आ रहा है कि आखिर इतनी उपज उगाने और खून पसीने से मेहनत करने के बाद भी उसे कहां ले जाएंगे. यह एक दो किसान की बात नहीं है, बल्कि आगर मालवा जिले में करोड़ों रुपये का संतरा होता है जो कि अब पूरी तरह से खराब होने की कगार पर दिख रहा है. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि न संतरों को पेड़ों से कोई तोड़ने वाला है और न ही इन्हें कोई खरीदने वाला.
पूरे भारत में आगर जिले का संतरा अपनी अलग ही पहचान रखता है. यहां के संतरे की सबसे बड़ी विशेषता है उसका बड़ा आकार. इसी वजह से यहां के संतरे को देश भर ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी एक्सपोर्ट किया जाता है. संतरे की फसल को खरीदने वाले व्यापारी अच्छे और आकार में बड़े संतरों की छंटनी कर विदेशों में भेजा करते हैं. मगर धीरे-धीरे हालात कुछ और ही बनते गए हैं. संतरे की सही कीमत नहीं मिलने से पेड़ों को काट रहे हैं. किसानों ने हजारों हेक्टयर में लगे संतरे के पेड़ों को काटना शुरू कर दिया है.
आगर-मालवा जिले के चांदनगांव के किसान भंवरलाल भी इन्हीं किसानों में एक हैं. उनके पास केवल तीन बीघा जमीन है और इस जमीन पर वे घर के लोगों के साथ पिछले 15 साल से संतरे की बागवानी करते हैं. इससे होने वाली कमाई से वे अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं. मगर भंवरलाल ने अब अपने खेतों में इन संतरे के पेड़ों को काट दिया है और गेहूं की फसल लगाने का फैसला कर लिया है. भंवरलाल की मानें तो कभी पेड़ों में मौसम की मार के चलते फल नहीं आते तो कभी भाव नहीं मिलता. पहले संतरे के पेड़ ही घर का खर्च चलाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब नई खेती के बारे में सोचा जा रहा है ताकि अपने घर के लोगों का भोजन चलाया जा सके.
यही हाल घोसली गाव के ईश्वर सिंह का भी है. किसान ईश्वर सिंह इसी बात को लेकर चिंतित हैं कि अपने 14 लोगों के परिवार का खर्च कैसे चलाएंगे. ईश्वर सिंह के पास 45 बीघा जमीन है जिसमें 20 साल से संतरे की बागवानी हो रही थी. आज ईश्वर सिंह संतरे का भाव नहीं मिलने से परेशान हैं और मजबूरी में पेड़ों को काट रहे हैं. इस तरह आगर क्षेत्र में आज हजारों हेक्टेयर जमीन संतरों के पेड़ों से खाली हो रही है.
एक अन्य किसान शांतिलाल के पास भी संतरे की खेती है और उन्होंने भी बाग लगाया हुआ था. शांतिलाल ने सोचा था कि संतरे बेचने के बाद जो पैसा आएगा उससे अपना बैंक का 50 हजार रुपये का कर्ज चुका कर आगे की खेती करेंगे. मगर परिस्थिति से परेशान शांतिलाल ने भी अपने खेत से संतरे के पेड़ों को काट दिया है. किसान कमल सोनी ने भी अपने खेतों से संतरे के पेड़ काट दिए हैं. वे बताते हैं कि उनके जिले का संतरा भारत ही नहीं, बल्कि विश्व प्रसिद्ध है. मगर फसल के औने-पौने दाम और कोरोना की वजह से बागवानी चौपट हो गई जिससे किसानों ने अपने खेतों से संतरे के पेड़ों को काट दिया है.
आगर-मालवा जिला पूरे भारत में संतरे की खेती के लिए जाना जाता है. जिले भर में 38 हजार हेक्टयर जमीन में संतरे की खेती की जाती है. अगर पैदावार देखें तो प्रति हेक्टयर 200 टन संतरे का उत्पादन होता है. इस हिसाब से जिले में 7 करोड़ 60 लाख कुंटल संतरे का उत्पादन हर वर्ष होता है. यदि कम भाव भी मिला, 10 रुपये प्रति किलो भाव भी मिला तो जिले में हर साल 7600 हजार करोड़ रुपये का कारोबार किया जाता है. अब एक तिहाई किसानों ने संतरे के पेड़ काट दिए हैं जिससे समझना आसान है कि बिजनेस किस हद तक मारा गया है.(रिपोर्ट-प्रमोद कारपेंटर)
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