गर्मी में बोई जाने वाली धान की साठा किस्म, उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में भूजल के लगातार गिरते स्तर को गंभीर बनाने में अहम भूमिका निभा रही है. इसके मद्देनजर शासन की ओर से इस इलाके के किसानों से साठा धान को लगाने से बचने की अपील की गई है. हालात की गंभीरता का खुलासा लखीमपुर खीरी के जिलाधिकारी की ग्राउंड रिपोर्ट में हुआ है. यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश के राज्य भूगर्भ जल प्रबंधन एवं नियामक प्राधिकरण की ओर से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में एक मामले की सुनवाई के दौरान पेश की गई है.
रिपोर्ट के अनुसार गर्मी में मार्च से मई के दौरान बोई जाने वाली साठा धान को उगाने में किसानों को पूरी तरह से भूजल पर ही निर्भर रहना पड़ता है. इस वजह से लखीमपुर खीरी सहित पश्चिमी उप्र के अन्य जिलों में बीते कुछ सालों के दौरान साठा धान की उपज से भूजल के अनियंत्रित दोहन का खतरा हो गया है. इसके अलावा इस धान में काफी अधिक कीटनाशक का इस्तेमाल होने के कारण मिट्टी की सेहत भी खराब होती है.
ये भी पढ़ेंं- लाल भिंडी खाई आपने? प्रोटीन-आयरन से भरपूर इसके फायदे जान लीजिए
प्राधिकरण के सदस्य सचिव वी के उपाध्याय ने रिपोर्ट में बताया है कि इस धान के दुष्परिणामों को देखते हुए दो जिलों में इसकी उपज पर पहले ही रोक लगाई जा चुकी. उन्होंने बताया कि किसी भी जिले में स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए इस तरह के प्रतिबंध लगाने का अधिकार जिलाधिकारी के पास होता है. लिहाजा साठा धान के दुष्प्रभावों को देखते हुए शाहजहांपुर और पीलीभीत जिलों में किसानों को यह धान उपजाने से प्रतिबंधित कर दिया गया है. उन्होंने भरोसा दिलाया कि लखीमपुर खीरी का जिला प्रशासन भी इसे प्रतिबंधित करने पर शीघ्र निर्णय करेगा.
रिपोर्ट के अनुसार धान की खेती पूरी तरह से वर्षा आधारित होती है. जबकि साठा धान की खेती मार्च से मई के बीच की जाती है. इस अवधि में बारिश नहीं होती है, लिहाजा धान की सिंचाई के लिए किसान भूजल का ही इस्तेमाल करते हैं. जिन इलाकों में इस किस्म के धान की खेती हो रही है. वहां पर भूजल का अनियंत्रित दोहन हो रहा है, जिससे जलस्तर तेजी से गिर रहा है. इतना ही नहीं इस फसल को जल्द बोने की होड़ में किसान गेहूं और धान, दोनों ही फसलों को पकने से पहले ही कच्चा काट लेते हैं. इससे उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य का माकूल लाभ नहीं मिल पाता है.
रिपोर्ट के अनुसार मार्च में गेहूं की कटाई के तुरंत बाद साठा धान रोपी जाती है. किसान गेहूं की फसल में कीटनाशकों का इस्तेमाल कर चुके होते हैं, इसके तुरंत बाद साठा धान में भी कीट प्रबंधन के लिए किसानों को अधिक मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल करना पड़ता है. मई में इस धान की कटाई के तुरंत बाद किसानों को खरीफ में बोई गई धान में भी कीटनाशक डालने पड़ते हैं. इस प्रकार लगातार तीन फसलों में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशकों की भारी मात्रा जमीन में पहुंच जाती है. इससे मिट्टी की गुणवत्ता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है. साथ ही जहरीला खाद्यान्न उपजने के कारण इसे खाने वालों की सेहत पर भी बुरा असर होता है. इस बीच एक के बाद एक, तीन फसलें लगाने में किसानों की कोई एक फसल यदि लेट हो जाती है तो किसान अगली फसल समय पर लगाने की जल्दबाजी में काटी गई फसल की पराली को खेतों में ही जला देते हैं. इससे वायु प्रदूषण फैलता है.
रिपोर्ट के अनुसार ''साठा धान के बहुआयामी नुकसान को देखते हुए यह धान पर्यावरण की भारी दुश्मन है. इस पर प्रतिबंध लगाना बहुत आवश्यक है.'' इसके समाधान के रूप में रिपोर्ट में किसानों को सुझाव दिया गया है कि वे यह धान उपजाने के बजाय उड़द और मूंग सहित गर्मी में उगाई जाने वाली वैकल्पिक फसलें लगाएं. ये फसलें पर्यावरण हितैषी होने के साथ आर्थिक तौर पर भी लाभप्रद होती हैं. इतना ही नहीं प्राधिकरण ने भूजल स्तर गिरने के खतरे वाले जिलों में नए तालाब बनवाने और पुराने जलाशयों का जीर्णोद्धार कराने का सरकार को सुझाव दिया है. जिससे वर्षा जलसंचय कर भूजल स्तर को बढ़ाया जा सके.
ये भी पढ़ें- मोदी सरकार का बड़ा फैसला, अब सहकारिता से संवरेगा कृषि सेक्टर, बढ़ेगी किसानों की कमाई
छुट्टा जानवरों के बीच हाथियों का आतंक, बहराइच में किसान की दर्दनाक मौत