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जब चीनी का फिक्स है रेट तो फसलों पर MSP गारंटी देने से क्यों है परहेज? पढ़ें पूरी रिपोर्ट

जब चीनी का फिक्स है रेट तो फसलों पर MSP गारंटी देने से क्यों है परहेज? पढ़ें पूरी रिपोर्ट

Legal Guarantee of MSP: क‍िसानों को उनकी उपज का सही दाम म‍िलेगा तो क‍िसको होगा नुकसान? मिलों को घाटे से बचाने के ल‍िए सरकार ने 31 रुपये प्रत‍ि क‍िलो फ‍िक्स क‍िया है चीनी का न्यूनतम बिक्री मूल्य. क्या क‍िसानों को घाटे से बचाने के ल‍िए सभी फसलों की लागत के ह‍िसाब से फ‍िक्स होगा न्यूनतम दाम? 

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क‍िसानों को कब म‍िलेगा फसलों का उच‍ित दाम? (Photo-Kisan Tak). क‍िसानों को कब म‍िलेगा फसलों का उच‍ित दाम? (Photo-Kisan Tak).

प्रधानमंत्री द्वारा 19 नवंबर 2021 को तीन कृष‍ि कानूनों को वापस लेने का एलान करने के बाद भी क‍िसान आंदोलन जारी था. क्योंक‍ि, क‍िसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी की मांग पर अडे़ हुए थे. क‍िसान द‍िल्ली बॉर्डर से 378 द‍िन बाद तब हटे जब 9 द‍िसंबर 2021 को सरकार ने एमएसपी को लेकर कमेटी बनाने का ल‍िख‍ित आश्वासन द‍िया. एमएसपी गारंटी की वजह से ही इसे खत्म करने की बजाय स्थग‍ित करने का फैसला ल‍िया गया. बेशक, एमएसपी के मुद्दे पर धरना-प्रदर्शन नहीं हो रहा है लेकिन इसका शोर ग्राम सभाओं से लेकर संसद तक है. सरकार एमएसपी जारी रखने की बात कर रही है लेक‍िन गारंटी जैसे शब्द से सख्त परहेज कर रही है. दूसरी ओर, कृष‍ि व‍िशेषज्ञों और क‍िसान संगठनों का कहना है क‍ि जब आप गन्ने से बनी चीनी का न्यूनतम रेट फिक्स कर सकते हैं तब फसलों से परहेज क्यों है? 
 
क‍िसान आंदोलन के बाद सबसे ज्यादा चर्चा में एमएसपी गारंटी की मांग है. क‍िसान स‍िर्फ इतना चाहते हैं क‍ि उनकी उपज बाजार लागत मूल्य से कम कीमत पर न ब‍िके. इसके ल‍िए उन्हें सरकारी संरक्षण म‍िलना चाह‍िए. बस उनकी यह चाहत न तो नौकरशाहों के गले उतर रही है और न ही द‍िल्ली वाले कुछ अर्थशास्त्र‍ियों के. दूसरी ओर, इन्हीं दोनों जमातों की पैरोकारी से चीनी म‍िल माल‍िकों को ऐसा ही संरक्षण म‍िला हुआ है. चीनी की कीमतों में कमी के कारण मिलों को होने वाले नकद नुकसान को रोकने के लिए सरकार ने जून, 2018 में चीनी के न्यूनतम बिक्री मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू कर दी थी. इसके तहत घरेलू खपत के लिए म‍िल से 31 रुपये प्रत‍ि क‍िलो से कम दाम पर चीनी नहीं म‍िलती. 

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क‍िसानों को क्यों न म‍िले गारंटेड इनकम? 

कृष‍ि अर्थशास्त्री देव‍िंदर शर्मा का कहना है क‍ि आप म‍िल माल‍िकों को गारंटेड इनकम दे सकते हैं तो क‍िसान को क्यों नहीं? जब आप चीनी म‍िलों के घाटे को देखते हुए चीनी का न्यूनतम ब‍िक्री मूल्य तय करके कह सकते हैं क‍ि इसकी ब‍िक्री इससे कम पर कीमत पर नहीं होगी तब क‍िसानों की उपज पर यही प्रावधान क्यों नहीं करते? आपको म‍िल माल‍िकों की च‍िंता है, क‍िसान भी आपके हैं उनकी च‍िंता भी कर‍िए. 

यही सवाल भारतीय कृष‍क समाज के अध्यक्ष कृष्णवीर चौधरी भी दोहराते हैं. उनका कहना है क‍ि कम से कम कांट्रैक्ट फार्मिंग के ल‍िए तो सभी प्रमुख फसलों का उसकी क्वाल‍िटी के ह‍िसाब से र‍िजर्व प्राइस तय क‍िया जा सकता है. ताक‍ि कोई भी कंपनी क‍िसी क‍िसान या एफपीओ से उससे कम रेट पर फसल न ले पाए. यह बेस प्राइस लागत पर मुनाफा जोड़कर तय हो और उससे ज्यादा दाम लेने के ल‍िए क‍िसान या एफपीओ खुद बारगेन‍िंग करें. इससे बाजार में एक माहौल बनेगा और धीरे-धीरे क‍िसानों को उच‍ित दाम म‍िलने लगेगा. चौधरी, केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई एमएसपी कमेटी के सदस्य भी हैं. 

कहां से गढ़ते हैं ऐसे तर्क 

बहरहाल, यह स्थाप‍ित सत्य है क‍ि देश के क‍िसान पर‍िवारों की औसत मास‍िक आय सरकारी चपरासी की सैलरी से भी बहुत कम है. इसके बावजूद कुछ लोगों को एमएसपी से भी सस्ता अनाज क्यों चाह‍िए? क्यों वो कहते हैं क‍ि एमएसपी बाध्यकारी नहीं होनी चाह‍िए, ऐसा होगा तो बाजार खराब हो जाएगा. 

एक अर्थशास्त्री हैं जो कहते हैं क‍ि एमएसपी के दायरे में आने वाली सभी 23 फसलों की पूरी खरीद अगर इसके मौजूदा रेट पर की जाए तो इस पर लगभग 17 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा. इससे भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से भी बदतर हो जाएगी. 

मतलब क‍िसान को अच्छा दाम म‍िलेगा तो देश बर्बाद हो जाएगा और जब व्यापार‍ियों को पैसा म‍िलेगा तो देश तरक्की करेगा? ऐसी सोच कहां से आती है, आप खुद अंदाजा लगाईए. दूसरी ओर 7,755 रुपये प्रत‍ि क्व‍िंटल वाली मूंग को क‍िसान से महज 5000 रुपये में खरीदकर जब व्यापारी वर्ग उसकी दाल उपभोक्ता को 100 रुपये क‍िलो बेचता है तब देश की आर्थिक तरक्की होती है. क‍िसान से जब व्यापारी 5 रुपये क‍िलो प्याज खरीदकर उपभोक्ताओं को 40 रुपये में बेचता तो वो देश के ल‍िए अच्छा होता है. कृष्णवीर चौधरी कहते हैं क‍ि ऐसी सोच के लोग अर्थशास्त्री नहीं बल्क‍ि अनर्थशास्त्री हैं. 

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यूं फैलाया जा रहा भ्रम 

क‍िसानों ने ऐसा कभी नहीं कहा क‍ि फसलों के न्यूनतम दाम की गारंटी देने के बाद सारी खरीद सरकार ही करे. लेक‍िन, उनके ख‍िलाफ धारणा ऐसी ही बनाई जा रही है क‍ि वो सरकार पर बोझ बन रहे हैं. किसानों का तो यह कहना है कि सरकार ऐसी कानूनी व्यवस्था बना दे जिससे कि फसलों की निजी खरीद भी उससे कम पर न हो सके. एमएसपी स‍िर्फ 23 फसलों पर न हो बल्क‍ि उसमें आलू, प्याज, टमाटर, लहसुन और दूध जैसी दूसरी चीजें भी शाम‍िल की जाएं. 

 एमएसपी गारंटी की लड़ाई लड़ रहे किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट का कहना है क‍ि अगर 17 लाख करोड़ रुपये किसानों के हाथ में आएंगे तो देश की इकोनॉमी बर्बाद कैसे हो जाएगी? क्या यह रकम भारत में नहीं खर्च होगी. क्या इतनी मुद्रा सर्कुलेशन से बाहर हो जाएगी और क्या किसान इस पैसे को स्विस बैंक में जमा कर देंगे? सच तो यह है कि यह पैसा मार्केट में खर्च होगा. जब पैसा मार्केट में खर्च होगा तो फिर इकोनॉमी कैसे खराब हो जाएगी? आपको चंद चीनी म‍िल माल‍िकों के घाटे की इतनी च‍िंता है और करोड़ों क‍िसानों की स्थ‍ित‍ि पर रहम नहीं है. 

जाट के मुताब‍िक, अर्थशास्त्र का सिद्धांत है क‍ि अर्थतंत्र को गत‍ि देने के ल‍िए अध‍िकतम उपभोक्ताओं की जेब में पैसा डाला जाए. मतलब अगर 70 फीसदी जनता की जेब में उनकी कमाई का पूरा पैसा जाता है तो अर्थव्यवस्था को पंख लग जाएंगे. असल में जब यही पैसा चंद लोगों के हाथ में आकर बैंकों में कैद हो जाता है तब इकोनॉमी ठहर जाती है.

इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा? 

कृष‍ि नीत‍ि व‍िशेषज्ञ देव‍िंदर शर्मा आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की एक रिपोर्ट का हवाला देते हैं. ज‍िसमें कहा गया है क‍ि साल 2000 से 2016-17 के बीच भारत के किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम न मिलने के कारण 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. उनका कहना है क‍ि यह किसानों के हक का पैसा था जिसे बिचौलियों एवं दूसरे व्यापारियों ने डकार ल‍िया. सोच‍िए क‍ि अगर क‍िसानों को उनकी कमाई का पूरा पैसा म‍िला होता तो वो क‍ितने समृद्ध होते. उनकी परचेज‍िंग पावर बहुत अच्छी होती, ज‍िससे इकोनॉमी को फायदा होता. 

देश में जब सातवां वेतन आयोग लागू हुआ था तब यह कहा गया था यह अर्थव्यवस्था के लिए बूस्टर डोज का काम करेगा. कर्मचारियों को जो ज्यादा पैसा मिलेगा वो मार्केट में आएगा. जब मार्केट में आएगा तो मार्केट में डिमांड पैदा होगी. अब सोच‍िए क‍ि अगर देश के 5 फीसदी लोगों को ज्यादा पैसा म‍िलने से इकोनॉमी को बूस्टर डोज लग जाएगा तो जब 60 करोड़ क‍िसानों के हाथ में पैसा आएगा तब तो वह इकोनॉमी के ल‍िए रॉकेट डोज बन जाएगी, फ‍िर एमएसपी की गारंटी देकर क‍िसानों को उनकी मेहनत का हक द‍िलाने से परहेज क्यों है?   

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हम एमआरपी नहीं मांग रहे

एमएसपी के फायदों पर क‍िताब ल‍िखकर क‍िसानों में बांट रहे रामपाल जाट कहते हैं क‍ि किसान तो यह कभी नहीं कह रहा है क‍ि उसे मैक्सि‍मम रिटेल प्राइस (एमआरपी) दी जाए. वो तो न्यूनतम की गारंटी मांग रहा है. यह ताज्जुब की बात है क‍ि क‍िसान खेती के ल‍िए इनपुट एमआरपी पर खरीदते हैं जबक‍ि उनकी फसल की एमएसपी पर भी गारंटी नहीं म‍िल रही.  

क‍िसानों की कमाई देख लीज‍िए  

  • 2018-19 की र‍िपोर्ट के मुताब‍िक क‍िसान पर‍िवारों की कुल मास‍िक इनकम 10,218 रुपए है. 
  • इसमें फसलों से होने वाली आय का योगदान स‍िर्फ 3,798 रुपए है. 
  • 2018-19 में क‍िसान पर‍िवारों की आय में फसलों की कमाई का योगदान सिर्फ 37.2 फीसदी है. 
  • प्रत‍ि कृष‍ि पर‍िवार का फसल उत्पादन पर मास‍िक खर्च 2,959 रुपये है.  
  • 2012-2013 में किसानों की औसत मासिक आय सिर्फ 6426 रुपये थी. इसमें 6223 रुपये खर्च हो जाता था.  
  • वर्ष 2012-13 में किसान फसलों से अपनी कुल कमाई का करीब 50 फीसदी हिस्सा जुटाता था. 
  • देश के किसान-परिवारों पर 2013 में औसतन 47,000 रुपये का कर्ज था. 
  • 2018-19 में यह रकम 2019 में बढ़कर 74,121 रुपये हो गई है. 

(नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन यानी एनएसएसओ की रिपोर्ट)   

क‍िसानों की कौन सुनेगा? 

चीनी म‍िलों के घाटे वाली बात ध्यान में रखते हुए जरा प्याज क‍िसानों का दर्द समझ‍िए. प्याज लगभग हर घर में खाई जाने वाली कृष‍ि उपज है. लेक‍िन 2022 में पूरे साल क‍िसानों ने औसतन 1 रुपये से 10 रुपये क‍िलो पर पर इसकी ब‍िक्री की. जब वही प्याज आप तक पहुंचा तो 40 रुपये हो गया.  

प्याज की जो उत्पादन लागत 2014 में थी, उसके नौ साल बाद 2023 में भी क‍िसानों को उससे कम दाम पर संतोष करना पड़ रहा है. इसकी तस्दीक एक सहकारी और एक सरकारी संस्था की र‍िपोर्ट से होती है. 

नेशनल हॉर्टिकल्चरल र‍िसर्च एंड डेवलपमेंट फाउंडेशन की एक र‍िपोर्ट में बताया गया है क‍ि 2014 के रबी सीजन के दौरान देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक प्रदेश महाराष्ट्र में प्याज की प्रत‍ि क्विंटल उत्पादन लागत 669 रुपये और खरीफ में 724 रुपये थी. 

अब अहमदनगर की श्रीरामपुर मंडी में 20 जनवरी 2023 का रेट देख‍िए. यहां क‍िसानों ने न्यूनतम 350 और औसतन 650 रुपये प्रत‍ि क्व‍िंटल के भाव पर प्याज बेचा. सोलापुर की मंगलवेधा मंडी में न्यूनतम भाव 200 और सोलापुर में 100 रुपये क्व‍िंटल रहा. यह महाराष्ट्र स्टेट एग्रीकल्चर मार्केट‍िंग बोर्ड का आंकड़ा है. 

मध्य प्रदेश में 2022 के दौरान लहसुन 2 से 5 रुपये प्रत‍ि क‍िलो तक ब‍िका है. दाम न म‍िलने की वजह से टमाटर और आलू सड़कों के क‍िनारे फेंक देने की र‍िपोर्ट तो अक्सर आप तक पहुंचती ही होगी. दूध का उच‍ित दाम न म‍िलने के ख‍िलाफ क‍िसानों को हर साल आंदोलन करने पर मजबूर होना पड़ रहा है. 

क्या तर्क दे रहे हैं क‍िसान नेता?  

महाराष्ट्र कांदा उत्पादक संगठन के संस्थापक अध्यक्ष भारत द‍िघोले का कहना है क‍ि लागत पर मुनाफा जोड़कर क‍िसानों को उनकी उपज का सही दाम म‍िलता तो इतने बुरे हालात नहीं होते. पूरे साल महाराष्ट्र के क‍िसानों ने 1 से लेकर 10 रुपये प्रत‍ि क‍िलो के भाव पर क‍िसानों ने मंड‍ियों में प्याज बेचा है. जबक‍ि लागत इससे कहीं अध‍िक है. क‍िसान आख‍िर कब तक घाटा सहेंगे. वो प्याज की खेती छोड़कर दूसरा क्या करें? क‍िसानों के हालात तभी सुधरेंगे जब सभी प्रमुख फसलों का बेस प्राइस फ‍िक्स करके उससे कम दाम पर ब‍िक्री रोकी जाएगी. 

द‍िघोले का कहना है क‍ि कोई भी फसल समुद्र में नहीं फेंकी जा रही है. सबका कंजप्शन है. सबकी मांग है. सबको भोजन करना है. इसल‍िए सरकार न्यूनतम दाम फ‍िक्स करे. वो यह च‍िंता छोड़ दे क‍ि क‍िसान का सामान नहीं ब‍िकेगा. ब‍िना खाए कौन रहेगा और हर चीज आप इंपोर्ट करके कब तक मंगवाएंगे. इसल‍िए हम जानते हैं क‍ि क‍िसानों के ब‍िना काम नहीं चलेगा. याद कीज‍िए कोरोना लॉकडाउन लगने का समय. सब लोग खाने-पीने का ही सामान एकत्र कर रहे थे. ऐसे में आप बस हर क्रॉप की लागत न‍िकलवाईए और उस पर क‍िसान का मुनाफा तय करके न्यूनतम दाम की गारंटी दे दीज‍िए. 

एमएसपी से अध‍िक दाम वाली फसलें 

प‍िछले दो साल से कुछ फसलों का ओपन मार्केट में एमएसपी से अध‍िक दाम म‍िल रहा है. लेक‍िन, ऐसा हमेशा नहीं रहने वाला है. कोरोना काल, फसल नुकसान, रूस-यूक्रेन युद्ध और दूसरे अंतरराष्ट्रीय कारणों से कुछ ऐसे हालात पैदा हुए क‍ि कई फसलों का दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊपर चला गया. साल 2022 में गेहूं, सरसों, सोयाबीन, मक्का, कॉटन का भाव ओपन मार्केट भाव एमएसपी से अध‍िक रहा. केंद्रीय कृष‍ि मंत्री नरेंद्र स‍िंह तोमर अक्सर क‍िसानों से अपील कर रहे हैं क‍ि वो महंगी फसलों की खेती करें. ऐसी फसलों की खेती करें ज‍िसकी जरूरत ज्यादा है. 

एमएसपी के तौर क‍ितनी रकम म‍िली 

केंद्रीय कृष‍ि मंत्रालय के मुतब‍िक साल 2014 से मार्च 2022 तक किसानों को एमएसपी के तौर पर 14.25 लाख करोड़ रुपये का भुगतान क‍िया गया. किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में इतना पैसा इससे पहले कभी नहीं मिला था. जहां तक उससे पहले की बात है तो साल 2009 से 2014 तक किसानों को 4,60,528 करोड़ रुपये एमएसपी के तौर पर मिले थे. साल 2020-21 में 2.10 करोड़ से अध‍िक क‍िसानों को एमएसपी पर फसल बेचने का फायदा म‍िला. 

ऐसा नहीं है क‍ि सरकार की मंशा क‍िसानों को फायदा नहीं पहुंचाने की है. लेक‍िन, नौकरशाह और अर्थशास्त्र‍ियों का अपना अलग रोना है. ज‍िससे क‍िसी भी सरकार में बैठे लोग सबसे ज्यादा प्रभाव‍ित हो जाते हैं. फ‍िलहाल, देखना यह है क‍ि एमएसपी कमेटी एमएसपी को लेकर क‍िसानों के ल‍िए क‍िसी सकारात्मक न‍िष्कर्ष तक पहुंचती है या फ‍िर यह भी रस्म अदायगी वाली साब‍ित होती है.   

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