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मिल गई तीन महीने में खुद ही खत्म होने वाली बॉयो प्लास्टिक, गाय को भी नहीं होगा नुकसान

मिल गई तीन महीने में खुद ही खत्म होने वाली बॉयो प्लास्टिक, गाय को भी नहीं होगा नुकसान

बॉयो प्लास्टिक की सबसे खास बात यह है कि अगर किसी भी तरह का खाने का सामान बॉयो प्लास्टिक में पैक किया जाता है और कई-कई घंटे रख दिया जाता है तो खाने पर प्लास्टिक का कोई खराब असर नहीं दिखाई देगा. 

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आईएचबीटी, पालमपुर ने इसी बॉयो प्लास्ट‍िक को खोजा है. फोटो क्रेडिट-किसान तक आईएचबीटी, पालमपुर ने इसी बॉयो प्लास्ट‍िक को खोजा है. फोटो क्रेडिट-किसान तक

देश में प्लास्टिक का इस्तेमाल एक बड़ी परेशानी बन चुका है. ड्रेनेज सिस्टम को ब्लाक करने के साथ ही प्लास्टिक का वेस्ट मिट्टी को भी खराब कर रहा है. खासतौर पर गाय के लिए प्लास्टिक जानलेवा साबित हो रही है. साइंटिसटा का दावा है कि 40 फीसद प्लासटिक ऐसी है जो नष्ट ही नहीं होती है और हमारे वातावरण में बने रहकर उसे नुकसान पहुंचाती है. लेकिन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बॉयो रिसोर्स टेक्नोनलॅजी (आईएचबीटी), पालमपुर, हिमाचल प्रदेश ने एक ऐसी प्लाीस्टिक बनाई है जो तीन महीने बाद खुद से ही नष्ट हो जाती है. और खास बात यह है कि अगर गाय इसे खा भी ले तो उसे कोई नुकसान नहीं होगा. 

इसे बॉयो प्लास्टिक के नाम से जाना जाता है. हिमालय के ग्ले‍शियर में मिले एक बैक्टीरिया से इसे बनाया गया है. आईएचबीटी अभी इसके इस्तेमाल के विकल्प बढ़ाने और इसकी लागत कम करने पर भी काम कर रहा है. गौरतलब रहे कि एक दूसरे बैक्टीरिया से बनी इसी तरह की प्लागस्टिक का इस्तेमाल यूरोप में खूब हो रहा है.

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हर रोज 26 हजार टन प्लास्टिक का होता है प्रोडक्शन 

आईएचबीटी के साइंटिस्ट डॉ. धरम ने किसान तक को बताया कि हमारे देश में हर रोज 26 हजार टन प्लास्टिक का प्रोडक्शन होता है. खास बात यह है कि सबसे ज्यादा प्लास्टिक का इस्तेमाल पैकिजिंग इंडस्ट्री  में होता है. क्योंकि आज अगर देखें तो कोई भी सामान प्लास्टिक में ही पैक होकर आता है. आनलाइन खरीदारी में भी देख सकते हैं. लेकिन चिंता वाली बात यह है कि 40 फीसद प्लाटसटिंक ऐसी है जो नष्ट‍ नहीं होती है और वो वातावरण में रहकर उसे नुकसान पहुंचाती रहती है. बस इसी को ध्या‍न में रखकर हमने बॉयो प्ला‍स्टिक पर काम शुरू किया था. 

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बॉयो प्लास्टिक की लागत कम करने पर चल रहा है काम 

डॉ. धरम ने बताया कि अभी बाजार में जो पॉलिथीन इस्तेमाल हो रही है वो पेट्रो प्रोडक्ट बेस्ड  है. सरकार भी इस पर सब्सिडी देती है. यही वजह है कि जिस बॉयो प्लास्टिक पर हम काम कर रहे हैं उस पर इसके मुकाबले तीन से चार गुना महंगी लागत आ रही है. क्योंकि यह बैक्टीीरिया जितना पॉलीमर बनाएगा उतनी ही लागत कम होती चली जाएगी. यह इसकी फीड पर भी निर्भर करता है. इसी पर और काम चल रहा है. इसके साथ ही इस बात पर भी काम चल रहा है कि बॉयो प्लास्टिक को पैकेजिंग के अलावा और दूसरे काम के लायक भी बनाया जाए.