नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (NAAS) के अध्यक्ष डॉ. त्रिलोचन महापात्र के अनुसार, 'भारत ने वर्ष 2020-21 में 13.35 मिलियन टन खाद्य तेलों का आयात किया, जिस पर 1,17,000 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े.' जाहिर है कि भारत में तिलहन फसलों के कम उत्पादन की वजह से ऐसी नौबत आई है. लेकिन, इसके लिए जिम्मेदार कौन है, किसान या सरकार? साल 1993-94 तक हम अपनी जरूरत का महज 3-4 परसेंट ही खाद्य तेल आयात करते थे. जबकि अब जरूरत का 56 फीसदी आयात करते हैं. सवाल यह है कि ऐसा क्या हुआ था कि किसानों का सरसों की खेती से मोहभंग हो गया था और अब क्यों पिछले तीन-चार साल में ही सरसों की खेती में रिकॉर्ड इजाफा हो गया है. इसका जवाब किसानों को केंद्र में लेकर तलाशने की जरूरत है.
दरअसल, कृषि विशेषज्ञ इसके लिए उन सरकारी नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं जिनकी वजह से तिलहन फसलों की खेती भारत में घाटे का सौदा होती गई. अब से करीब 35 साल पहले अपना देश खाद्य तेल के मामले में लगभग आत्मनिर्भर था. बाद में एंटी फार्मर सरकारी नीतियों की वजह से घरेलू उत्पादन डिस्करेज किया जाने लगा. किसानों पर लगातार चोट की गई. खाद्य तेलों पर इंपोर्ट शुल्क में कटौतियों ने हमारे बाजारों को सस्ते पाम ऑयल और सोयाबीन तेल से पाट दिया. न तो सरकारें सरसों की पर्याप्त खरीद कर रही थीं और न तो बाजार में अच्छा दाम मिल रहा था. ऐसे में धीरे-धीरे खेती कम होती गई.
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सीएसीपी के मुताबिक रबी मार्केटिंग सीजन 2018-19 में सबसे अधिक 5.6 लाख टन सरसों खरीदा. हरियाणा ने 2.5 लाख की खरीद की, जो उसके कुल सरसों उत्पादन का 24.9 फीसदी रहा. मध्य प्रदेश ने 1.8 लाख टन सरसों खरीदा जो उसके कुल उत्पादन का 16.5 फीसदी था. गुजरात ने 0.3 लाख टन की खरीद की जो उसके कुल सरसों उत्पादन का 9.3 फीसदी था और यूपी ने अपने कुल उत्पादन का महज 0.1 फीसदी सरसों खरीदा.
केंद्रीय कृषि मंत्रालय के मुताबिक 2005-06 में सरसों का उत्पादन 81.3 लाख टन था जो 2019-20 तक 91.24 लाख टन ही हो सका. मतलब करीब डेढ़ दशक में उत्पादन सिर्फ 9.94 लाख टन बढ़ा. दूसरी ओर ऐसा क्या जादू हुआ कि 2021-22 में इसका उत्पादन 117.46 लाख टन हो गया. यानी महज तीन साल में ही रिकॉर्ड 26.22 लाख टन की वृद्धि हो गई. दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है अच्छा दाम. जिसकी वजह से किसानों ने इसकी बुवाई बढ़ा दी, जिससे उत्पादन बढ़ गया. सरकार की नीति घरेलू उत्पादन बढ़ाने पर केंद्रित हो रही है.
ये तो रही रकबे और उत्पादन की बात. देश में सरसों की उत्पादकता में भी अच्छी वृद्धि दर्ज की गई है. क्योंकि वैज्ञानिकों ने बीजों की ऐसी वैराइटी विकसित की जिसमें 20 से 27 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की पैदावार मिली. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक रिपोर्ट के अनुसार 2014-15 में सरसों की उत्पादकता प्रति हेक्टेयर सिर्फ 1083 किलोग्राम थी जो 2021-22 में 39.52 फीसदी बढ़कर 1511 किलो तक पहुंच गई.
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कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा का कहना है कि पिछले दो साल से ओपन मार्केट में सरसों का भाव एमएसपी से ऊपर चल रहा है. इसी वजह से इसके रकबे में इतना बड़ा बदलाव देखने को मिला है. सरसों मुनाफे का सौदा बना तो इसका रकबा बढ़ रहा है और उत्पादन भी बढ़ने लगा है. मतलब साफ है कि खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता का सपना तभी पूरा होगा जब किसानों का मन बदलेगा. किसानों का मन तभी बदलेगा जब उनकी फसल का अच्छा दाम मिलेगा. जब सरसों का दाम ओपन मार्केट में एमएसपी से कम रहता था और सरकारें एमएसपी पर बहुत कम खरीद करती थीं तब किसानों ने इसकी बुवाई बहुत कम कर दी थी.
साल | लाख हेक्टेयर | लाख टन |
2017-18 | 67.04 | 84.3 |
2018-19 | 69.17 | 92.56 |
2019-20 | 69.08 | 91.24 |
2020-21 | 73.12 | 102.1 |
2021-22 | 91.25 | 117.46 |
2022-23 | 98.02 | ------- |
Source: Ministry of Agriculture
जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) सरसों विवाद के बीच खाद्य तेल के मोर्चे पर सरकार के लिए यह सुखद है कि किसान दूसरी फसलों के मुकाबले अब सरसों की खेती को तवज्जो दे रहे हैं. इस वर्ष इसकी बुवाई का एरिया रिकॉर्ड 98.02 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया है. हालांकि, सरकार इसका सामान्य एरिया 63.46 लाख हेक्टेयर ही मानती रही है. इस हिसाब से बुवाई में काफी वृद्धि हो गई है.
खाद्य तेलों में सरसों का अहम योगदान है. इसकी करीब 28 फीसदी हिस्सेदारी है. सरसों का सबसे बड़ा उत्पादक राजस्थान है. यहां देश का करीब 40 फीसदी उत्पादन होता है. हरियाणा लगभग 13 फीसदी सरसों पैदा करता है. मध्य प्रदेश में 11.76 और उत्तर प्रदेश में देश का 11.40 फीसदी सरसों उत्पादन होता है. पश्चिम बंगाल भी देश का बड़ा सरसों उत्पादक है. उत्पादन में इसका 9 फीसदी योगदान है.
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