बजट 2023 की तैयारियां लगभग पूरी हो गई हैं. उम्मीद है कि अब तक बजट के हलवे के लिए कढ़ाई चूल्हे पर चढ़ाई जा चुकी होगी और इस हलवे के लिए आटा, घी और चीनी भी जुटाई जा चुकी होगी. हमेशा की तरह इस बजट से भी कई उम्मीदें हैं, जिसके तहत बजट में कई विषयों पर लोकलुभावनी घोषणा होने के कयास लगाए जा रहे हैं. इन्हीं विषयों में एक कृषि भी है. हालांकि बजट से इतर ही आजादी के बाद से अब तक कृषि क्षेत्र में सरकारी उपलब्धियों का पिटारा भरा हुआ है. जिससे देश ने तरक्की की नई इबारत लिखी है. लेकिन, इस पिटारे में एक छेद भी है, जो खेती-किसान की बदहाली के लिए जिम्मेदार है. इसकी एक बानगी महाराष्ट्र के किसान संजय साठे से बातचीत करने पर पता चलती है.
असल में महाराष्ट्र में इन दिनों कई जगहों पर एक महीने की देरी से किसान अपने खेतों पर प्याज की बुवाई कर रहे हैं. इन्हीं किसानों में एक संजय साठे भी हैं, जो प्याज की बुवाई के पिछड़ने का कारण तो बताते हैं. लेकिन, इसके इतर वह इस बात पर अधिक जोर देते हैं कि महाराष्ट्र में किसान के बेटों की शादियां होने में परेशानियां हो रही हैं.
वे बताते हैं किसान ही अब अपनी बेटियों का रिश्ता किसान के घर नहीं कर रहे हैं. इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि किसान की इनकम अच्छी नहीं है. खेती अब भरोसे का सौदा नहीं रही. नौकरी में तो महीने के आखिरी दिन पेमेंट मिल जाता है. लेकिन, किसान को उसकी फसल का दाम क्या मिलेगा और कब मिलेगा ये पता नहीं है. वे कहते हैं कि ऐसे में नई पीढ़ी के किसानों की शादी करने में परेशानी आ रही हैं.
देश के किसान का ये हाल, तब है, जब देश को आजाद हुए 76 साल पूरे हो चुके हैं. कुल मिलाकर आजादी के बढ़ते क्रम में हालात भी पलट रहे हैं. पहले का समय याद करें तो आज भी प्रत्येक परिवार के किस्सों में वे यादें ताजा हैं, जब परिवार की खेती-बाड़ी देखकर ही परिवार के लड़कों की शादियां हो जाया करती थी. मौजूदा समय में हुए इस बदलाव का स्वागत है, लेकिन, किसानों के खराब हालात और खेती के प्रति किसान का ही हेय नजरिया किसी बड़े संकट की तरफ इशारा करने के लिए काफी है.
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खैर ये सच है कि मौजूदा समय में खेती-किसानी पर कई संकट आए हुए हैं. आलम ये है कि किसानों के बीच ही कृषि अपना महत्व खाेते हुए दिखाई दे रही है. इसके लिए सरकारी नीतियों के साथ ही मौसम की मार और मानव व्यवहार जिम्मेदार है. जबकि हकीकत ये है कि कृषि मानव सभ्यता का सबसे पुराना और शाश्वत व्यवसाय है और इसके बिना मानव सभ्यता का अस्तित्व ही नहीं है. इन्हें कुछ उदाहरणों से नीचे समझने की कोशिश करते हैं.
कृषि दुनिया का सबसे पुराना व्यवसाय है. तो वहीं भारत की गिनती भी अभी तक कृषि प्रधान के देश के तौर पर होती है, जो कृषि के महत्व को बताने के लिए काफी है. देश में तकरीबन साढ़े 10 करोड़ किसान हैं, जिनके परिवार औसतन 5 परिजन माने जाएं तो देश में किसान परिवारों की संख्या 50 करोड़ के पास पहुंचती है. इसके बाद खेतिहर मजदूराें की संख्या को जोड़ा जाए तो देश की आधी आबादी का रोजगार कृषि पर ही है. तो वहीं इन 10 करोड़ किसानों की मेहनत से उपजने वाले अनाज से देश की पूरी जनसंख्या का पेट भरता है, जो कृषि के महत्व को बताने के लिए काफी है.
वहीं कृषि के महत्व को दूसरे उदाहरणों से समझा जाए तो कोरोना काल को देखा जा सकता है. कोरोना काल में खाद्यान्न एक्सपोर्ट ने देश की अर्थव्यवस्था को संभाल कर रखा था. ये हाल सिर्फ भारत के ही नहीं थे. बल्कि अमेरिका जैसी पूंजीपति देश में कोरोना काल में 31 फीसदी रोजगारों को कृषि क्षेत्र ने संभाला हुआ था. ये दोनों उदाहरण कृषि के महत्व को बताने के लिए काफी हैं. लेकिन, देश का किसान फिर भी संकट में है. जबकि वो देश का असल नायक है.
देश में खाद्य और आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का नायक किसान ही है. इसे समझने के लिए भारत के दो पड़ोसी देश पाकिस्तान और श्रीलंका के घटनाक्रमों को समझने की कोशिश करते हैं. लगभग 7 महीने पहले श्रीलंका के आर्थिक संकट और राजनीतिक उठापटक की तह तक जाएंगे तो उसमें कृषि और किसान की भूमिका समझ में आएगी. बेशक, श्रीलंका संकट के पीछे का मुख्य कारण आर्थिक संकट था. लेकिन, कृषि उत्पादन में कमी से उपजे भुखमरी के हालातों ने श्रीलंका की आवाम को सड़कों पर आने को मजबूर किया. इसमें कोई दो राय नहीं है.
वहीं पाकिस्तान में आटे के दामों में रिकॉर्ड बढ़ोतरी और कपास की फसल खराब होने से 70 लाख लोगों के बेरोजगार होने के हालात भी किसी से छिपे नहीं है. कुल मिलाकर देखा जाए तो देश की खाद्य और आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का असल नायक किसान ही है.
अगर किसी देश में भरपूर खाद्यान्न का उत्पादन नहीं होगा. उस देश को अपनी खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिए विदेशों पर निर्भर रहना पड़ेगा. जिससे राजकीय कोष पर भार पड़ेगा. अगर, किन्हीं हालातों में देश की खाद्यान्न की जरूरतें पूरी नहीं होती हैं तो भुखमरी के हालातों में विद्रोह जैसे हालात पैदा होने लाजिमी हैं. लेकिन, खाद्य और आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के नायक के हालात देश में बेहद ही खराब है, जिसका उदाहरण सरकारी आंकड़ें ही देते हैं.
किसानों की बदहाली का जिक्र सरकारी आंकड़ें ही करते हैं. असल में सरकार ने 2018-19 में कृषि परिवारों का आंकलन सर्वेक्षण कराया था, जिसमें सामने आया है कि एक किसान परिवार की मासिक आय 10218 रुपये औसत है, जबकि दिल्ली में एक कुशल मजदूर की मासिक आय 20357 रुपये है. इस तरह देश का एक किसान परिवार दिल्ली के एक मजदूर परिवार से 50 फीसदी ही महीना कमाता है.
देश के किसानों की औसत आय दिल्ली के कुशल मजदूर से कम है. इसके पीछे शुद्ध तौर पर सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं. इस को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के किसान संगठन भारतीय किसान संघ (BKS) के पदाधिकारी राघवेंद्र पटेल कहते हैं कि फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तय करने की जिम्मेदारी कृषि लागत और मूल्य आयोग की है, जो MSP तय करने के मानकों में किसान की गणना एक अकुशल मजदूर के तौर पर करता है. इसी के अनुसार किसान का मेहनताना भी तय होता है.
BKS के पदाधिकारी राघवेंद्र कहते हैं कि आयोग की सोच के इतर सच बिलकुल अलग है. हकीकत में किसान कुशल मजदूर हैं, उन्हें पता है कि कब खाद, बीज डालनी है. कब बुवाई करनी है. किसान के अनुभव के सामने सबका अनुभव कमतर है. लेकिन, इसके बावजूद भी उन्हें आयाेग अकुशल मजदूर मानता है. जबकि किसान के परिवारों की मेहनत को भी MSP तय करने के मानकों में नहीं जोड़ा जाता है. पटेल कहते हैं कि अगर किसानों को कुशल मजदूर माना जाए और उनके परिवार की मेहनत को MSP तय करने के मानकों में जोड़ा जाए तो स्वाभाविक रूप से फसलों की MSP में बढ़ोतरी होगी और किसान की आय बढ़ेगी.
सरकारी नीतियों में उलझा किसान बदहाली झेलने को मजबूर है. ऐसे में मौसम की मार (जलवायु परिवर्तन) और मानव व्यवहार ने भी युवा पीढ़ी को खेती किसानी से दूर किया है. आलम ये है कि देश की नई पीढ़ी किसानी से दूर जा रही है. ये हाल तब है, जब देश की 60 से 70 फीसदी आबादी मौजूदा समय में युवा है. तो वहीं इसी समय पर देश के किसान की औसत उम्र 50.1 साल (2016 के एक आंंकड़ें के अनुसार) है. देश की नई पीढ़ी के किसानी से दूर जाने की भयावह तस्वीर 2011 की जनसंख्या के आकड़ों में सामने आई थी, जिसमें सामने आया था कि प्रत्येक दिन 2000 किसान खेती छोड़ रहे हैं.
किसानों की इस बदहाली को लेकर भारतीय किसान मजदूर संघ के अध्यक्ष और MSP गारंटी किसान मोर्चा के संयोजक सरदार वीएम सिंंह कहते हैं कि देश के युवा खेती किसानी से दूर जा रहे हैं, वे शहरों में या विदेशों में जाकर छोटा-मोटा काम करना पसंद कर रहे हैं. लेकिन, खेती में अपने परिजनों का हाथ बंटाना उन्हें पसंद नहीं है. युवा पीढ़ी में खेती को लेकर पैदा हुई सोच के लिए कौन जिम्मेदार है, इसको लेकर गंभीर चिंतन की जरूरत है.
देश में किसान बदहाली में हैं. लेकिन, कृषि क्षेत्र अभी फायदे का सौदा है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण बीते साल हुआ खाद्यान्न एक्सपोर्ट है. जिसने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. तो वहीं ऐसे कहीं उदाहरण हैं. ऐसे उदाहरण की बात करें तो ट्रैक्टर समेत कृषि इनपुट कंपनियों की ग्रोथ से सब कुछ समझा जा सकता है, जबकि देश के बीज बाजार पर विदेशी कंपनियों की नजरों के बारे में किसी से कुछ छिपा नहीं है.
किसानों की बदहाली पर सरकारी नीतियों पर दोषरोपण अधूरा सत्य है. किसानों की मजबूती के लिए सरकारें कई योजनाएं चला रही हैं, जिसमें किसान सम्मान निधि और गांव में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए मनरेगा जैसी योजनाएं प्रमुख है. लेकिन, ये दोनों ही योजनाएं बाबूशाही के मकड़जाल और राजनीतिक लाभ लाचल में उलझी हुई हैं. गांव में रोजगार उपलब्ध कराने वाली मनरेगा को आज भी कृषि से नहीं जोड़ा गया है. नतीजतन खेती में मजदूर संकट गहराया है. तो वहीं कई छोटे किसानों ने छोटी जोत की खेती से दूरी बनाई है.
वहीं पीएम सम्मान निधि का गणित बेहद ही कमजोर है. बेशक सम्मान निधि से किसानों को फायदा हुआ है. लेकिन, इसे दूसरे चश्मे से देखें तो सालाना 6 हजार रुपये मिलने वाली सम्मान निधि किसी मजाक से कम नहीं लगती है. पीएम किसान सम्मान निधि का गणित प्रति दिन के हिसाब से लगाए तो वह लगभग 17 रुपये के पास आता है. खेती में किसान की मेहनत के सामने इस 17 रुपये (सालना 6 हजार रुपये) की तुलना करें तो बुवाई से लेकर फसल को मंडी तक ले जाने तक किसान इससे अधिक का नुकसान उठा लेता है. जिसकी गणना वह आज तक नहीं कर पाया है.
केंद्र सरकार की तरफ से जारी किए जाने वाले केंद्रीय बजट 2023 को लेकर देश में उत्साह का माहाैल रहता है, जिससे नौकरीपेशा से लेकर व्यापारी, गृहणियां, उद्यमी कई तरह की उम्मीद करते हैं. लेकिन, इस आम बजट से किसान कई सालों से सीधे तौर पर नहीं जुड़ पाया है, जिसका मुख्य कारण आम बजट में किसानों के लिए सीधी घोषणा नहीं होना है. हालांकि, कई राज्य सरकारों ने इस पर काम किया है, जिसके तहत राजस्थान और तमिलनाडु सरकार ने बीते साल कृषि बजट को अलग से जारी किया है. वहीं इस साल उम्मीद है कि वित्त मंत्री के बजट में किसानों के लिए बड़ी सौगात होगी.