
बुंदेलखंड में बीते कुछ दशकों से पानी के लिए सबसे ज्यादा मारामारी (Water Crisis) बांदा और महोबा जिले में रही है. पिछले पांच सालों में इन जिलों में जलसंकट के कारण किसानों ने खेती छोड़ कर और नौजवानों ने अपने घरों को छोड़ कर काम की तलाश में सबसे ज्यादा पलायन (Migration) किया. इसी दौर में भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) अधिकारी डॉ. हीरालाल बांदा के जिलाधिकारी बन कर आए और उन्होंने इस समस्या को जनजागरूकता के हथियार से महज दो सालों के भीतर काबू में कर लिया.
पानी बचाने के छोटे छोटे उपायों की मदद से उन्होंने पहले गांव और फिर शहर में जलस्तर को 1 मीटर से भी ऊपर लाने में कामयाबी हासिल की. इससे न सिर्फ कृषि उत्पादन बढ़ा बल्कि पलायन भी रोकने में मदद मिली. उनकी इस उपलब्धि का ही नतीजा है कि आज उप्र भूगर्भ जल विभाग की ताजा रिपोर्ट में बांदा भूजल स्तर के मामले में सुरक्षित जिलों की सूची में शामिल हो गया है. जलसंकट से उबरने के अपने इस अनुभव को डा हीरालाल ने अपनी किताब ''डायनमिक डीएम'' में भी लिखा है. आइए जानते हैं बांदा के डायनमिक डीएम रहे डॉ. हीरालाल के तजुर्बे की कहानी उन्हीं की जुबानी।
डायनमिक डीएम डॉ. हीरालाल कहते हैं, ''बुंदेलखंड में पानी की समस्या और इसके समाधान को लेकर मेरे प्रयोग और अनुभव, प्रकृति के बारे में मेरे चिंतन को व्यापक बनाने वाले साबित हुए. मैं 31 अगस्त, 2018 को जिला मजिस्ट्रेट (DM) के रूप में बांदा आया था. बांदा के बारे में मुझे मालूम था कि यह इलाका जल संकट के लिए कुख्यात है. मैं बहुत दिनों से बांदा में पानी की कमी के बारे में पढ़ रहा था. बांदा में कार्यभार संभालने के एक महीने बाद ही सितंबर में जो पहली शांति व्यवस्था की समस्या आई, वह पानी की थी. बांदा की एक महत्त्वपूर्ण सड़क को जाम कर दिया गया. वहां की तत्कालीन एसडीएम थमीम अंसरिया ने मुझे बताया कि इसका कारण बीते एक सप्ताह से पानी सप्लाई के पंप का खराब होना है. इससे चौकन्ना होकर पता किया तो ज्ञात हुआ कि गर्मी में यहां प्रतिदिन धरना-प्रदर्शन होते हैं. महिलाएं 'गगरी प्रदर्शन' कर डीएम को चूड़ी भेंट करती हैं."
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डायनमिक डीएम डॉ हीरालाल आगे बताते हैं, ''इस घटना ने मुझे सतर्क कर दिया और मैंने आने वाले गर्मी के मौसम को लेकर लोगों से पानी की समस्या की जानकारी लेना शुरू किया. मैंने वरिष्ठ नागरिकों, पानी के क्षेत्र में कार्य कर रहे विशेषज्ञों, पुराने पत्रकारों और अधिकारियों के साथ चर्चा की. सभी ने बताया कि इस इलाके में चार दशक पहले तक कुएं, तालाब और स्थानीय छोटी नदियां, पानी के मुख्य स्रोत थे. इनका उपयोग लोग पेयजल और सिंचाई के लिए करते थे. बदलती जीवन-शैली धीरे-धीरे आमजन को प्राकृतिक स्रोतों से अलग करती गई और नलकूप एवं ‘बोतलबंद पानी’ रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो गए. पारंपरिक जल स्रोतों से संबंध विच्छेद होने की स्थिति ने जल संकट की समस्या पैदा कर दी, क्योंकि लोगों ने प्राकृतिक जल स्रोतों की देखभाल करना बंद कर दिया और उनकी उपेक्षा शुरू हो गई. धीरे-धीरे ये उपेक्षित जल स्रोत इतिहास बन गए''.
वह आगे बताते हैं, "मेरा जन्म और पालन-पोषण उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के एक सुदूर पिछड़े गांव बागडीह में हुआ था. हमारे घर में अपना निजी कुआं था. यह हमारे मोहल्ले के लिए पीने के पानी का स्रोत था. हम अपनी फसलों की सिंचाई नदी और तालाब से किया करते थे. कुआं घरेलू उपयोग के पानी की आपूर्ति के स्रोत थे. बचपन के इस अनुभव ने बांदा में जलसंकट का ठोस समाधान पाने के लिए बुनियादी ज्ञान के रूप में काम किया".
अपनी जुबानी अभियान की शुरुआत की जानकारी देते हुए वह कहते हैं, "यहां के लोग पहले कुआं, तालाब और नदी से पानी की व्यवस्था करते थे. विगत कई वर्षों से बदलती जीवन-शैली ने लोगों को इन जल स्रोतों से दूर कर दिया. लोग नल और नलकूप के नजदीक आ गए. बोतल का पानी पीना स्टेटस सिंबल बन गया. नतीजतन कुआं, तालाब व नदी जैसे पानी के जीवंत स्रोत हमसे दूर चले गए और घोर उपेक्षा के कारण या तो मर गये या मृत प्राय हो गए. इसका नतीजा जल संकट के रूप में हमारे सामने है. जलसंकट का पहला असर यह हुआ कि हरियाली घटने लगी, पेयजल और सिंचाई के पानी की भी कमी हाेने से उत्पादकता घट गई और गरीबी बढ़ गई".
वह आगे बताते हैं,"इसी दौरान मुझे बांदा के जखनी गांव में जल संरक्षण के काम में जुटे उमा शंकर पांडेय के बारे में पता चला. जल संरक्षण के उनके उपायों के कारण जखनी को ‘जल ग्राम’ के नाम से जाना जाता है. जखनी मॉडल को पूरे जिले में लागू करने के लिए अक्टूबर, 2018 में ‘जल संरक्षण महापर्व’ के रूप में एक कार्यशाला आयोजित करने का सिलसिला शुरू किया गया. इसमें ग्राम प्रधान, लेखपाल और ग्राम सचिव की टीम को जल संरक्षण की मूल जानकारी देने के साथ बताया गया कि बरसाती पानी धरती में ले जाकर बचाना है. पानी की समस्या को आम जनता के सरोकारों से जुड़ा मुद्दा बनाया गया. इसके पहले चरण में कुआं और सरकारी नलों के चारों तरफ खंती खुदाई अभियान चलाया गया. सिंचाई विभाग के इंजीनियरों को लखनऊ भेजकर तकनीकी जानकारी दिलाई गई. प्रशिक्षित इंजीनियरों ने गांवों में अन्य कर्मचारियों को भी प्रशिक्षित किया".
डायनमिक डीएम डॉ हीरालाल आगे बताते हैं, "इसके परिणाम स्वरूप बांदा के 470 गांव में नलों के आसपास 2443 खंती खोदी गई. इससे 3930 किलो लीटर पानी रिचार्ज करने की नई जगह बनी. लगभग 34,732 लोग इस अभियान में भाग लेकर जल संरक्षण के प्रति जागरूक हुए. इससे इलाके में 11,001 किलोलीटर पानी को हर साल रिचार्ज करने की क्षमता उत्पन्न हुई. इसकी गूंज दिल्ली तक गई और इस काम को भारत सरकार के सचिव परमेश्वरन अय्यर ने 24 मई, 2019 को दिल्ली में इस अभियान को पुरस्कृत किया. इससे पूरी टीम में जोश पैदा हुआ. यह भी साबित हो गया कि हम लोग सही दिशा में प्रयास कर रहे हैं. पुरस्कार मिलने तक मैं दिल से नहीं सिर्फ दिमागी तौर पर सक्रिय था लेकिन इस पुरस्कार ने मुझे जगा दिया. मैं सक्रिय हो गया".
डायनमिक डीएम डॉ हीरालाल आगे बताते हैं,"इसके बाद इस अभियान का दूसरा चरण शुरू हुआ. इस चरण में कुओं और तालाबों पर फोकस किया गया. जिले की लगभग 7,800 कुओं की पहली बार गणना कराई गई. लगभग 2200 सार्वजनिक और इतने ही निजी तालाबों को ठीक करने की योजना पर काम शुरू हुआ. इसे जन अभियान बनाने के लिए नारे गढ़े गए. ‘कुआं-तालाबों में पानी लाएंगे—बांदा को खुशहाल बनाएंगे,’ इस नारे के साथ गांव वालों की मदद से कुएं तालाब ठीक किए गए. यह नारा काफी कारगर रहा और इससे ग्रामीणों का कुओं-तालाबों से पुराना लगाव पुनः स्थापित होने लगा. इनकी साफ-सफाई, रखरखाव शुरू हो गया. नए तालाब की खुदाई मनरेगा और अपना खेत तालाब योजना से अभियान चलाकर कराया गया. यह अभियान देश में एक अनूठा प्रयोग साबित हुआ, जिसमें जलस्रोतों से आम जन को जोड़ने का अभियान चलाया गया हो".
डायनमिक डीएम डॉ हीरालाल आगे बताते हैं,"ग्रामीण इलाकों में जल स्रोतों को बचाने के अभियान से लोगों काे जोड़ने के क्रम में अब बारी शहर की थी. गांव में चल रहे अभियान की चर्चा मीडिया के माध्यम से शहरों में होने लगी. इससे हमारे लिए शहरी आबादी को गांव के लोगों की नजीर पेश कर पानी बचाने के लिए जागरूक करना आसान हो गया. शहरी बस्तियों में भी पानी का दुरुपयोग रोकने के लिए प्रभात फेरी निकालने जैसे अनूठे प्रयोग किये गए. बरसात का पानी जमीन में रोकने के लिए 'रेन वॉटर हार्वेस्टिंग' (rain water harvesting) पर जोर दिया गया. स्थानीय सामाजिक संगठनों को साझेदार बनाकर जिले में 88 कार्यालयों, 2200 प्राथमिक विद्यालयों और शहरी इमारतों को रेन वाटर हार्वेस्टिंग से लैस किया गया. इतना ही नहीं, गांव और शहर की बस्तियों के लिए पानी के बजट तैयार कराए गए. इन इलाकों में 'जल चौपाल' लगाई गई. इससे जल के मुद्दे से आम जनता को जोड़ा गया. बांदा की प्रमुख नदियों केन और यमुना पर जल आरती शुरू कराई. इन नदियों के किनारे बसे 130 गांवों में अपनी नदी को साफ रखकर धनी बनने का रास्ता सुझा कर लोगों को जागरूक किया गया".
वे आगे कहते हैं,"साल भर के भीतर इस अभियान की चर्चा दिल्ली तक पहुंच गई. जल शक्ति मंत्रालय के तत्कालीन सचिव यू.पी. सिंह ने जुलाई, 2020 में दो दिन के प्रवास पर आकर पूरे अभियान का जायजा लिया. इससे प्रभावित होकर उन्होंने दिल्ली से भी बांदा के जल संरक्षण मॉडल का खूब प्रचार-प्रसार कराया. अब समय था, लगभग सवा साल की मेहनत का नतीजा निकालने का. यह पता किया गया कि बांदा जिले में भूजल स्तर कम हुआ या बढ़ा. चौंकाने वाले नतीजों में पता चला कि जिले के ग्रामीण इलाकों में करीब 1.34 मीटर जल स्तर ऊपर आया. इससे लगभग 18.5 प्रतिशत फसल उत्पादकता बढ़ी. इस नतीजे से लोगों में पानी को बचाने के प्रति उत्साह बढ़ा. नतीजतन सूखाग्रस्त बांदा के शायरों की सूखी लेखनी से भी इस कामयाबी के लिए शब्द झरने लगे. इलाके के मशहूर शायर नज़रे आलम ‘नज़र बांदवी’ ने लिखा :
“पानी बड़ा सवाल था बांदा की जमीं पर.
जीना बड़ा मुहाल था बांदा की जमीं पर.
मैंने फिर इस सवाल को शर्मिंदा कर दिया.
सूखे कुएं तालाब को फिर जिंदा कर दिया..
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