'खाना है तो उगाना है' की सोच के साथ झारखंड के बीना उरांव ने शुरू की खेती, अब मिलेगा राष्ट्रीय पुरस्कार

'खाना है तो उगाना है' की सोच के साथ झारखंड के बीना उरांव ने शुरू की खेती, अब मिलेगा राष्ट्रीय पुरस्कार

हजारीबाग जिले के बरही प्रखंड अंतर्गत खोड़ाहार पंचायत के दरवा गांव की भौगोलिक स्थिति खेती के लिए काफी अच्छी है. यह गांव पहाड़ की तराई पर बसा हुआ है. गांव तीन तरफ से जंगलों से घिरा हुआ है. बीना उरांव इसी गांव में खेती करते हैं. बीना उरांव बताते हैं कि उनके गांव में सभी लोग पारंपरिक खेती करते हैं. आज भी खेतों की जुताई के लिए पारंपरिक बैल और भैसों वाले हल का इस्तेमाल होता है.

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'खाना है तो उगाना है' की सोच के साथ झारखंड के बीना उरांव ने शुरू की खेती, अब मिलेगा राष्ट्रीय पुरस्कारअपने खेत में काम करते बीना उरांव

झारखंड के किसानों में प्रतिभा की कमी नहीं है. यही कारण है कि उन्हें उनकी बेहतर कृषि तकनीक के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है. झारखंड के दो किसानों का चयन नवोन्वेषी कृषक पुरस्कार" के लिए किया गया है. इनमें एक नाम मीनू महतो का है जो उन्नत किस्म की खेती के लिए जाने जाते हैं. जबकि दूसरा नाम बीना उरांव का है जो आज भी अपनी पुरखों की विरासत को संभाल रहे हैं. आज भी वो उसी तरह से पांपरिक खेती करते हैं. साथ ही पारंपरिक बीजों को भी सहेज कर कई पीढ़ियों से रखे हुए हैं और उसकी खेती करते हैं. पांरपरिक खेती के जरिए बेहतर उत्पादन हासिल करके बीना उरांव ने यह दिखा दिया है कि आज भी प्राकृतिकत खेती अच्छे तरीके से संभव है. 

हजारीबाग जिले के बरही प्रखंड अंतर्गत खोड़ाहार पंचायत के दरवा गांव की भौगोलिक स्थिति खेती के लिए काफी अच्छी है. यहां गांव पहाड़ की तराई पर बसा हुआ है. गांव तीन तरफ से जंगलों से घिरा हुआ है. बीना उरांव इसी गांव में खेती करते हैं. बीना उरांव बताते हैं कि उनके गांव में सभी लोग पारंपरिक खेती करते हैं. आज भी खेतों की जुताई के लिए पारंपरिक बैल और भैसों वाले हल का इस्तेमाल होता है. सिर्फ बड़ी जोत वाले खेतों में ही ट्रैक्टर का इस्तेमाल किया जाता है. इसके साथ ही आज भी यहां के किसान अपने घरों में मवेशी पालते हैं. क्योंकि खेतों में खाद के तौर पर यह सिर्फ गोबर का इस्तेमाल करते हैं.

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समेकित खेती करते हैं बीना उरांव

बीना उरांव बताते हैं कि उन्होंने अपने पूर्वजों से जो खेती की जो पद्धति देखी और सीखी वहीं आज भी कर रहे हैं. हालांकि उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्रों और आईसीएआर गौरियाकर्मा से भी खेती की ट्रेनिंग ली है. पर फिर भी वो पूरी तरह से प्राकृतिक खेती करते हैं. उन्होंने बताया कि वो समेकित कृषि करते हैं. उनके घर में गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी, भेड़, कबूतर, और बत्तख है. इसके अलावा वो मछली पालन भी करते हैं. इससे उन्हें खेतों में डालने के लिए खाद की कमी नहीं होती है. साथ ही उन्हें बेहतर उत्पादन भी हासिल होता है.

इस वजह से खेती को चुना

कृषि को चुनने के बारे में पूछे जाने पर बीना उरांव बताते हैं कि इंसान सब कुछ करता है दो वक्ती की रोटी खाने के लिए. पर अगर मेहनत करने के बाद शुद्ध भोजन नहीं मिले तो जीवन बेकार है. इसलिए उन्होंने कृषि को चुना. वो कहते हैं कि कोई भी काम करेंगे खाना तो अन्न ही है. सोना चांदी या पैसा नहीं खा सकते हैं. इसलिए खाना उगाने को अपने जीवन में चुना और आज मैं सफल हूं. पारंपरिक खेती के प्रति उनकी जानकारी और लगन को देखते हुए ही उन्हें पुरस्कार दिया जा रहा है. 

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पारंपरिक बीजों का करते हैं इस्तेमाल

बीना उरांव अपने खेतों में पारंपरिक बीजों का इस्तेमाल करते हैं. यह वो पुराने बीज हैं जो वर्षों से उनके पुरखे खाते आ रहे हैं. खेती में वो मुख्य तौर पर पांरपरिक धान की किस्मे जैसे, गोड़ा, करहैनी, साठी और दिघीयो किस्मों की खेती करते हैं. इसके अलावा मकई, गोदंली, ज्वार, बाजरा के अलावा दलहनी फसल और अन्य सब्जियों की खेती करते हैं. वो हाइब्रीड बीजों का इस्तेमाल नहीं करते हैं. इससे उन्हें अच्छी पैदावार होती है. सरकारी योजनाओं के लाभ के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि उन्हें योजनाओं का लाभ नहीं मिला है क्योकि जिस जमीन पर वो खेती करते हैं अब उसका रसीद कटना बंद हो गया है. ब्लॉक के चक्कर काटकर वो परेशान हो गए हैं पर अभी तक कुछ नहीं हो पाया है. हालांकि 2015 तक उनका रसीद कटा था. इसके अलावा बाजार की समस्या का सामना करना पड़ता है.

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