
भेड़ का नाम लेते ही जो शब्द सबसे पहले दिमाग में आता है वो है ऊन. ऊन भेड़ की एक बहुत बड़ी पहचान है. लेकिन यह भी याद रहे कि भेड़ दूध और मीट उत्पादन के लिए भी पाली जाती है. और चौंकाने वाली बात यह है कि आज भेड़ के मीट का उत्पादन तो बढ़ रहा है लेकिन ऊन का घट रहा है. यही वजह है कि देश के जाने-माने गलीचा कारोबार के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है. खुद केंद्रीय मत्स्य, पशुपालन और डेयरी मंत्री परुषोत्तम रूपाला भी इस पर चिंता जता चुके हैं. सबसे ज्यादा भेड़ पालन राजस्थान में है. देश के पांच राज्य कुल ऊन उत्पादन में 84 फीसद से ज्यादा का योगदान देते हैं.
मंत्रालय के मुताबिक देश में भेड़ों की कुल संख्या़ करीब 7.50 करोड़ है. इसमे से प्योर ब्रीड वाली भेड़ों की संख्या करीब 2 करोड़ है. नेल्लोरी भेड़ के साथ ही राजस्थान में जयपुर से करीब 80 किमी दूर अविकानगर में भेड़ों की सबसे अच्छी नस्ल अविसान पाई जाती है. इस नस्ल को दूसरे राज्यों में भी पाला जाता है. बीकानेरी, चोकला, मागरा, दानपुरी, मालपुरी तथा मारवाड़ी नस्ल की भेड़ो से प्राप्त होने वाले ऊन का इस्तेमाल कालीन बनाने में किया जाता है.
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यूपी के गलीचा कारोबारी सुनील गोलानी ने किसान तक को बताया कि गलीचा कारोबार के लिहाज से 30 माइक्रोन की ऊन चाहिए होती है. लेकिन इस पैमाने की ऊन कुछ ही नस्ल की भेड़ से मिलती है. बाकी तो 35 और 40 माइक्रोन तक की ऊन देती हैं. लेकिन इसके साथ ही ऊन के कम प्रोडक्शन की परेशानी भी खड़ी हो गई है. अभी तो इस कमी का ज्यादा असर इसलिए नहीं दिख रहा है कि इंटरनेशनल मार्केट में रुस और उक्रेन युद्ध के चलते डिमांड कम है. लेकिन जैसे ही डिमांड आएगी तो गलीचा कारोबार के पास हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के सिवा कुछ नहीं होगा. अभी भी हम जो थोड़ा बहुत काम चला रहे हैं वो तुर्की की ऊन से चल रहा है. लेकिन वो बहुत महंगी होती है. इसलिए हम तुर्की की ऊन में भारतीय ऊन मिलाकर किसी तरह से काम चला रहे हैं.
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केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर, राजस्थान के डायरेक्टर अरुण कुमार ने किसान तक को बताया देश में पल रहीं कुछ भेड़ में से सिर्फ 40 फीसद ही भेड़ ऐसी होती हैं जो ऊन देती हैं. मारवाड़ी, चोकला और मगरा भेड़ सबसे ज्यादा ऊन देने वालीं भेड़ हैं. बाकी बची देश की 60 फीसद भेड़ ऊन नहीं सिर्फ दूध और मीट के लिए पाली जाती हैं. दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में भेड़ पाली जाती हैं. लेकिन वहां भी सिर्फ तीन खास नस्ल दक्कनी, नीलगिरी, मंडया को छोड़कर बाकी की कोई भी नस्ल ऊन नहीं देती है.
अरुण कुमार ने बताया कि देश में उत्पादित होने वाली 90 फीसद ऊन का इस्तेकमाल कालीन में किया जाता है. जिससे भेड़ पालकों को एक बाजार मिल जाता है. लेकिन अब विदेशों से भी ऊन आने लगी है. हमारे देश के मुकाबले यह सस्ती ऊन है. भेड़ पालकों की रही-सही कमर बिचौलिए तोड़ देते हैं. देश में कहीं भी ऊन खरीद केन्द्ऱ नहीं है. जिसके चलते बिचौलिए सस्ते दाम पर भेड़ पालकों से ऊन खरीदकर बाजार में महंगे दाम पर बेचते हैं. जबकि विदेशों में हमारे यहां की मगरा भेड़ की ऊन से बने कालीन की बहुत डिमांड है. लेकिन भेड़ पालन में ऊन के लिए रुझान कम होता जा रहा है.
साल 2015-16 में भेड़ की ऊन का देश में कुल प्रोडक्शन 4.35 करोड़ किलोग्राम था.
साल 2021-22 में भेड़ की ऊन का देश में कुल प्रोडक्शन 3.31 करोड़ किलोग्राम ही हुआ है.
साल 2021-22 में आंध्रा प्रदेश और तेलंगाना में ऊन प्रोडक्शन जीरो रहा है.
साल 2020-21 में तेलंगाना में 9.11 फीसद ऊन का उत्पादन हुआ था.
साल 2012 में भेड़ों की संख्या 6.5 करोड़ थीं, वहीं साल 2019 में 7.42 करोड़ हो गई है.
साल में तीन बार भेड़ पर से ऊन उतारी जाती है.
भेड़ों की कुल 44 नस्ल रजिस्टर्ड हैं.
भेड़ों को खासतौर पर दूध, मीट और ऊन के लिए पाला जाता है.
देश में ऊन का कुल प्रोडक्शन 37 मिलियन टन है.
देश के पांच राज्यों में 84 फीसद ऊन प्रोडक्शन होता है.
2021-22 में देश में भेड़ के मीट का कुल उत्पादन 9.60 लाख टन था.
कुल मीट प्रोडक्शन में भेड़ की हिस्सेदारी 10.33 फीसद है.
राजस्थान- 42.91
जम्मू-कश्मीर- 23.19
गुजरात- 6.12
महाराष्ट- 4.78
हिमाचल प्रदेश- 4.33
नोट- आंकड़ें फीसद में हैं.
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