
सफेद लिबास पर लाल रंग की पगड़ी और भेड़ों को एक दिशा में हांकने के लिए लम्बा सा डंडा. ये पहचान है उस चरवाहे की जो देवासी समुदाय से आता है. इन्हें घुमंतू और खानाबदोश पशुपालक भी कहा जाता है. साल के आठ से नौ महीने ये लोग अपना घर-गांव छोड़कर दूसरे राज्यों में भेड़ चराने निकल जाते हैं. इस दौरान खेत और सड़क से ही इनका कारोबार चलता रहता है. किमी के हिसाब से घर-परिवार के लोगों की डयूटी लगती है. भेड़ और ऊन के खरीदार मोबाइल से इनकी लोकेशन लेकर माल खरीदने पहुंच जाते हैं.
जिसके पास जितनी ज्यादा भेड़ होती हैं समाज में उसकी उतनी ही मान-प्रतिष्ठा होती है. भेड़ों के रेवड़ लेकर एक शहर से दूसरे शहर घूमने वाले इन चरवाहों की एक महीने की कमाई लाखों में होती है. भेड़ के दूध, ऊन से और बड़ी भेड़ें बेचकर ये कारोबार करते हैं. सर्दी-बरसात में ये भेड़ों को लेकर घूमते रहते हैं, लेकिन सदी की दस्तक के साथ ही ये अपने घरों की ओर लौटना शुरू कर देते हैं.
पाली, राजस्थान से भेड़ लेकर हरियाणा के रेवाड़ी में पहुंचे चरवाहे प्रताप ने किसान तक को बताया कि 400 से 500 भेड़ों के झुंड को एक रेवड़ कहा जाता है. फरवरी-मार्च के दौरान रेवड़ लेकर चरवाहे गुजरात में नर्मदा, यूपी में आगरा और हरियाणा में रेवाड़ी से करनाल तक चले जाते हैं. सितम्बर तक इसी तरह से भेड़ लेकर घूमते रहते हैं. इस दौरान माल ढोने और भेड़ों के बच्चों को ढोने के लिए गधे भी साथ रखते हैं.
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प्रताप ने बताया कि एक भेड़ सालभर में दो बार तक बच्चे देती है. आमतौर पर भेड़ एक बार में एक ही बच्चा देती है. अगर भेड़ की सेहत अच्छी है तो दो बच्चे भी दे देती है. जब भेड़ पांच से छह महीने की हो जाती है तो छह से सात हजार रुपये तक की बिक जाती है. इस तरह से एक भेड़ के दो बच्चे सालभर में 12 से 14 हजार रुपये के बिक जाते हैं. जब ऊन का बाजार अच्छा होता है तो भेड़ की ऊन भी बिक जाती है. हालांकि अब ऊन सस्ती ही बिकती है. भेड़ से मिलने वाला रोजाना का दूध भी बिक जाता है. अब अगर किसी के पास एक रेवड़ में 400 भेड़ भी हैं तो वो सालाना का 50 से 60 लाख और महीने का चार से पांच लाख रुपया कमा लेता है.
पशुपालक हरीश ने बताया कि अगर एक परिवार में तीन भाइयों का एक-एक अलग रेवड़ है तो तीनों दूसरे शहर के लिए साथ ही निकलते हैं. ऐसे में तीन भाइयों में से दो भाई के परिवार रेवड़ के साथ जाएंगे और एक परिवार गांव में घर पर ही रह जाएगा. ये लोग अपने रेवड़ लेकर 500 से 600 किमी के दायरे में ही घूमते हैं. ऐसे में हर 200 किमी के बाद एक परिवार गांव चला जाता है और गांव वाला परिवार रेवड़ में शामिल हो जाता है.
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आगरा, यूपी के किसान फहीम खान ने किसान तक को बताया कि जब राजस्थान के ये चरवाहे अपने पशुओं को लेकर गांव से गुजरते हैं तो हम इन्हें पशुओं के साथ अपने खेत में रुकने का मौका देते हैं. साथ ही कुछ पैसे और खाना भी देते हैं. ऐसा इसलिए कि जब इनके पशु खेत में रुकेंगे तो वहीं गोबर या मेंगनी करेंगे. और खेत के लिए इससे बेहतर कोई खाद हो नहीं सकती है.
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