Dada Lakhmi: गांव-किसानों की मदद से बनी हरियाणा के ‘शेक्सपियर’ पर एक खूबसूरत हरियाणवी फिल्म

Dada Lakhmi: गांव-किसानों की मदद से बनी हरियाणा के ‘शेक्सपियर’ पर एक खूबसूरत हरियाणवी फिल्म

हरियाणा के कबीर और शेक्सपियर कहे जाने वाले लखमीचन्द पर फिल्म बनाना अपने आप में ही एक चुनौतीपूर्ण काम था, लेकिन हिन्दी फिल्म के सुप्रसिद्ध अभिनेता यशपाल शर्मा ने इस चुनौती को स्वीकार किया.

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Dada Lakhmi: गांव-किसानों की मदद से बनी हरियाणा के ‘शेक्सपियर’ पर एक खूबसूरत हरियाणवी फिल्मगांव-किसानों की मदद से बनी हरियाणा के ‘शेक्स्पीयर’ पर एक खूबसूरत हरियाणवी फिल्म

यह एक विडम्बना ही है कि देश-विदेश की विभिन्न बोलियों के प्रभाव से सजी-धजी हमारी हिन्दी के इतिहासकार इन बोलियों को औपचारिक रूप से हमारी भाषा के इतिहास में नहीं जोड़ पाए. ब्रज और अवधी या कुछ हद तक राजस्थानी और मैथिली-भोजपुरी का वर्णन तो फिर भी मिलता है, लेकिन बघेली, बुन्देली और खासकर हरियाणवी और पंजाबी भाषा का तो ज़िक्र तक नहीं मिलता, लेकिन इस अंचल के कवि और साहित्यकारों ने कुछ अजेय कृतियां लिखीं और परंपरागत नाट्य शैलियों को बचाए रखने का महत्वपूर्ण काम भी किया.

ऐसे ही एक कवि थे पंडित लख़मीचंद. 1903 में हरियाणा में सोनीपत के करीब एक छोटे से गांव जाट्टी कलां में जन्मे लख़मीचंद ने ना सिर्फ श्रेष्ठ कविता की रचना की बल्कि उन्होने लोक नाटक शैली ‘सांग’ को जीवित और संवर्धित करने का भी काम किया. आज हरियाणा की रागिनी और सांग का जो रूप हम देखते हैं, वो मूलतः पंडित लखमीचन्द द्वारा ही प्रचारित किया गया.

हरियाणा के शेक्सपियर पर बनी फिल्म

हरियाणा के कबीर और शेक्सपियर कहे जाने वाले लखमीचन्द पर फिल्म बनाना अपने आप में ही एक चुनौतीपूर्ण काम था, लेकिन हिन्दी फिल्म के सुप्रसिद्ध अभिनेता यशपाल शर्मा ने इस चुनौती को स्वीकार किया. फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट लेखक राजू मान के पास थी. स्क्रिप्ट देखने के बाद सभी लोगों ने राय दी कि अगर दादा लखमी के जीवनी के साथ न्याय करना है, तो इसे दो भागों में बनाना चाहिए. यशपाल शर्मा ने ये चुनौती भी स्वीकार की.

प्रोड्यूसर रवीन्द्र सिंह राजावत और यशपाल शर्मा ने मिल कर इस फिल्म को बनाने का बीड़ा उठाया. पूरे हरियाणा में आज़ादी से पहले के एक गांव की लोकेशन ढूंढना भी मुश्किल था. बहुत जगहों का दौरा करने के बाद सिरसा के पास जमाल नाम के गांव में इस फिल्म को शूट करने का निश्चय किया गया. किस्मत से, उस गांव में एक ऐसा मकान भी मिल गया जिसमें लगभग सौ साल से भी पहले के ग्रामीण घर की सारी विशेषताएं मौजूद थीं.

द्रवित करने वाली कहानी है ‘दादा लखमी’ 

घर के मालिक भी सहर्ष तैयार हो गए फिल्म शूटिंग के लिए. यह आसान काम नहीं था. अब यह मकान पूरी तरह से फिल्म क्रू के सुपुर्द कर दिया गया था. ‘दादा लखमी’ की टीम ने उस घर में 20वीं सदी के शुरू का माहौल बनाने के लिए बहुत सी चीज़ें हटा दीं, जिनमें पंखा और बिजली महत्वपूर्ण थे. सारा मकान मिट्टी से लीपा गया. जमाल गांव के सभी लोगों ने इस फिल्म के बनने में सहयोग दिया-कोई चारपाई लाया तो किसी ने मंच बनाने, उस समय के परिधान तैयार करने में मदद की, कुछ लोगों ने सह कलाकारों के रूप में भी काम किया. दादा लखमी की शूटिंग लगभग 45 दिन चली और पूरा जमाल गांव मानों ‘लखमी-मय’ हो गया!

‘दादा लखमी’ की कहानी है भी ऐसी कि किसी को भी द्रवित कर जाए. 1903 में हरियाणा के एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्में लखमीचन्द स्कूल नहीं जा पाये. सात-आठ साल की उम्र से ही उन्हें मवेशियों की देखभाल का काम सौंप दिया गया. बालक लखीम को संगीत और कविता में गहरी रुचि थी, इतना कि उनकी मधुर आवाज़ और कविता गांव भर में मशहूर हो गई.

दादा लखमी को हो गया था निमोनिया

मां-बाप इसके सख्त खिलाफ थे कि बेटा गवैया बने. उधर लखमी को रागनी गाने वाले प्रसिद्ध मानसिंह में अपना गुरु मिल गया तो वे उनके साथ हो चले. मां-बाप ने सिर धुन लिया लेकिन लखमी अपनी धुन के पक्के. कुछ सालों की कड़ी मेहनत से उन्होने गायन सीखा. फिर उनकी रुचि सांग में हुई, तो वे उस वक्त के प्रसिद्ध सांग कलाकार सोहन लाल के ‘बेड़े’ यानी समूह में शामिल हो गए. यहां लखमी ने तमाम तरह की नाट्य भाव भंगिमाएं और नृत्य सीखा और वे इतने लोकप्रिय हो गए कि राजस्थान और उत्तर प्रदेश के सुदूर गांवों से भी लोग उनके सांग और अभिनय देखने आने लगे.

एक दिन सोहन लाल ने उनके गुरु मानसिंह के लिए कुछ असभ्य बात कह दी तो लखमी नाराज़ हो गए . फिर कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने धोखे से लखमी के भोजन में पारा मिला दिया जिससे लखमी गंभीर बीमार हो गए और उनकी आवाज़ खराब हो गई.
लखमी फिर भी थे लगन के पक्के. धीरे धीरे अभ्यास से उन्होने अपने सुरीले स्वर को फिर वापस पा लिया. लोकप्रियता, बीमारी और अपनी सृजनात्मकता के बीच झूलते दादा लखमी को निमोनिया ने घेर लिया तो उन्हें दवाइयों के साथ शराब पिला कर ठीक किया गया. ठीक तो वे हो गए लेकिन उन्हें शराब की लत लग गई.

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दादा लखमी के जीवन पर बनी ये फिल्म 

इस बीच लखमी बतौर कलाकार आध्यात्मिक होते चले गए. उन्होने अपना अलग सांग समूह बनाया और उत्तर भारत में अनेक जगहों पर कार्यक्रम के लिए उन्हें बुलाया जाने लगा. धीरे-धीरे वे ‘सांग सम्राट ‘ के रूप में सुविख्यात हो गए. उन्होने लगभग 24 सांगों की रचना की जिनके जरिए सामाजिक-आध्यात्मिक संदेश भी दिए. आरंभ में उनकी रुचि शृंगारपूर्ण गीतों में थी जो धीरे धीरे आध्यात्म और सामाजिक बुराइयों पर केन्द्रित हो गई. अपनी रागनियों में उन्होंने न सिर्फ जाति-धर्म और नस्ल के भेद को निरर्थक बताया बल्कि मनुष्यता, बराबरी, माता-पिता की सेवा, परस्पर प्रेम और अहिंसा का संदेश भी दिया.

हरियाणा में उनकी वही प्रतिष्ठा स्थापित हो गई जो संत कबीर की उत्तर प्रदेश में थी. उन्होने हरियाणवी कविता और लोक नाटक को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया जिसे बाद में उनके अनेक शिष्यों ने आगे बढ़ाया. उनके जीवन और रचनाओं पर देश भर के विद्वानों ने शोध किया है. दादा लखमी के जीवन पर फिल्म बनाना कठिन था क्योंकि सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में एक कलाकार की रचनात्मक प्रक्रिया और उसके व्यक्तित्व में आए परिवर्तन को दर्शाना मुश्किल काम होता है. निर्देशक यशपाल शर्मा ने एक इंटरव्यू में बताया कि इस फिल्म पर शोध, फिर उसकी स्क्रिप्ट और इसे फिल्माने में करीब छह साल लगे. “यह लगभग तपस्या की तरह था.“

फिल्म ने बॉक्सऑफिस पर की बढ़िया कमाई

बहरहाल, फिल्म बहुत खूबसूरती से हरियाणा की संस्कृति, बोलचाल, रहन सहन को चित्रित करती है. एक रचनात्मक व्यक्ति की बेचैनी, सीखने की उत्कट इच्छा, कलात्मक सूक्ष्मताओं को जानने और समझने का उत्साह और अपनी कला के माध्यम से आध्यात्मिकता को प्राप्त करना – यह सब संवेदनापूर्ण तरीके से व्यक्त करती है. यशपाल शर्मा के साथ फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में मेघना मलिक और राजेंद्र गुप्ता हैं, जो हिन्दी फिल्म और थिएटर के वरिष्ठ अभिनेता रहे हैं. फिल्म में ज़्यादातर कलाकार, साज़िंदे और गायक हरियाणा से ही लिए गए. सबसे प्रभावशाली है फिल्म का संगीत, जिसे रचा है उत्तम सिंह जैसे वरिष्ठ संगीतकार ने.

यह यशपाल द्वारा निर्देशित पहली फिल्म है जिसे उन्होंने प्रोड्यूस भी किया है. नवंबर 2022 में यह फिल्म रिलीज़ हुई और इस फिल्म ने न सिर्फ बॉक्सऑफिस पर बढ़िया कमाई की बल्कि राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता और यह पहली हरियाणवी फिल्म थी जिसका प्रदर्शन विश्व प्रसिद्ध कान फिल्म फेस्टिवल में भी हुआ. हरियाणा सरकार ने इस फिल्म को टैक्स फ्री भी किया.
एक गरीब अनपढ़ चरवाहा किस तरह एक कवि, नाटककार से संत बन जाता है. इस उतार चढ़ाव से भरी कहानी को एक ही फिल्म में नहीं बांधा जा सकता था. इसलिए इस कहानी के दूसरे भाग पर भी काम शुरू हो चुका है जिसमें दादा लखमी के आध्यात्मिक विकास और उनके शिष्यों की दिलचस्प कहानी होगी. 42 साल की छोटी सी उम्र में दादा लखमी का निधन हो गया, लेकिन उनका रचनात्मक जीवन और विरासत हमेशा हमारी बहुमूल्य सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर रहेगा.

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