scorecardresearch
Water Crisis! पानी ही नहीं बचेगा तो भविष्य में कैसे होगी खेती?

Water Crisis! पानी ही नहीं बचेगा तो भविष्य में कैसे होगी खेती?

समय रहते हम नहीं संभले तो पानी की कहानी गंभीर हो जाएगी. पानी की कमी से कृषि क्षेत्र की चुनौती बढ़ेगी. इस बीच कुछ कृषि वैज्ञानिक यह कहने लगे हैं कि हम चावल नहीं बल्कि पानी एक्सपोर्ट कर रहे हैं. दूसरी, ओर कुछ लोगों का कहना है कि पानी बचाने की जिम्मेदारी कृषि क्षेत्र और किसानों पर ही क्यों?

advertisement
खेती के ल‍िए जमीनों से खींंचे जा रहे पानी से भूजल संकट ग‍िरता जा रहा है- GFX Sandeep bhardwaj       खेती के ल‍िए जमीनों से खींंचे जा रहे पानी से भूजल संकट ग‍िरता जा रहा है- GFX Sandeep bhardwaj

पिछले साल यानी 2021-22 में भारत ने लगभग 75 हजार करोड़ रुपये का चावल एक्सपोर्ट किया. जाहिर है कि धान की खेती हमारे लिए एक सक्सेस स्टोरी है, लेकिन इसका बढ़ता रकबा एक नए तरह की चुनौती भी सामने खड़ी कर रहा है. यह चुनौती है जल संकट की. दरअसल, कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि एक किलो चावल पैदा करने में करीब 3000 लीटर पानी खर्च होता है. यानी धान जल संकट के लिए एक बड़े जिम्मेदार के रूप में सामने आता है. इसलिए अब कुछ कृषि वैज्ञानिक यह कहने लगे हैं कि हम चावल नहीं बल्कि पानी एक्सपोर्ट कर रहे हैं, जिसकी कीमत आने वाली पीढियां चुकाएंगी. जब पानी ही नहीं बचेगा तो भविष्य में खेती कैसे होगी?

मशहूर राइस साइंटिस्ट प्रो. रामचेत चौधरी ऐसे ही वैज्ञान‍िकों में शुमार हैं जो कहते हैं क‍ि धान नहीं बल्क‍ि हम पानी एक्सपोर्ट कर रहे हैं. उनका कहना है कि धान की खेती में पानी का ज्यादा इस्तेमाल होता है. इसलिए इसके साथ पानी की चिंता भी जुड़ जाती है. इसल‍िए ऐसे धान की खेती करने की जरूरत है ज‍िसमें पानी का खर्च कम हो और उसका दाम अध‍िक हो.केंद्र सरकार धान की खेती को यूं ही डिस्करेज नहीं करना चाहती. जल संकट से जूझ रहे हरियाणा की सरकार तो धान की खेती छोड़ने वाले किसानों को धान की खेती छोड़ने के लिए 7000 रुपये प्रति एकड़ की दर से प्रलोभन दे रही है.

पंजाब भी जल संकट से जूझ रहा है और वो धान की सीधी बुवाई करने वाले किसानों को आर्थिक मदद दे रहा है क्योंकि ऐसी खेती में कम पानी खर्च होता है.अब कार्बन क्रेडिट की तर्ज पर वाटर क्रेडिट की भी वकालत हो रही है ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए पानी बचाया जा सके. 

किसानों की ही जिम्मेदारी क्यों? 

आप पूछ सकते हैं कि आखिर पानी बचाने की सारी जिम्मेदारी कृषि क्षेत्र या किसानों पर ही क्यों? दरअसल, खेती बारिश के पानी से ज्यादा सतही व भू-जल पर निर्भर है. खाद्य एवं कृषि संगठन यानी एफएओ के मुताबिक भारत में 90 परसेंट पानी का इस्तेमाल कृषि क्षेत्र में होता है. इसकी तस्दीक केंद्रीय जल आयोग भी करता है. आयोग के मुताबिक, वर्ष 2000 में उपयोग किए गए कुल पानी का 85.3 फीसदी खेती के काम में लाया गया था.

ये भी पढ़ें:  व‍िकस‍ित देशों को क्यों खटक रही भारत में क‍िसानों को म‍िलने वाली सरकारी सहायता और एमएसपी?

मतलब साफ है कि भू-जल के दोहन में कृषि क्षेत्र सबसे आगे खड़ा मिलता है. इसलिए इस क्षेत्र से जुड़े लोगों की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है. धान और गन्ने की फसल पर नीति आयोग ने यूं ही चिंता नहीं जाहिर की थी. 

कब समझेगा तेलंगाना?

ये तो रही हरियाणा, पंजाब की बात. जो अब समझने लगे हैं कि धान की खेती क्यों कम करने या उसका तौर-तरीका बदलने की जरूरत है. लेकिन, तेलंगाना इसे नहीं समझ रहा है. अपनी दूसरी फसलों को पीछे करके धान उत्पादन के मामले में देखते ही देखते वो काफी आगे निकल गया. वो एकदम पंजाब के रास्ते पर चल रहा है. तेलंगाना देश का एकमात्र ऐसा सूबा है जो अपने किसानों को खेती के लिए 24 घंटे बिजली सप्लाई दे रहा है, वो भी मुफ्त में. धान का रकबा तेजी से बढ़ने की एक ये भी वजह है.

तेलंगाना, धान और पानी का सवाल

तेलंगाना में कितनी तेजी से धान की खेती बढ़ी है, इसे कुछ आंकड़ों के जरिए समझा जा सकता है. साल 2014-15 के दौरान तेलंगाना में धान का रकबा महज 12.23 लाख एकड़ ही था, जो 2021 में बढ़कर 63 लाख एकड़ तक पहुंच गया. यहां धान की खेती को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है.

साल 2015-16 में तेलंगाना से एमएसपी पर सिर्फ 23.57 लाख क्विंटल धान की खरीद हुई थी. जबकि यह 2020-21 में बढ़कर 141.11 लाख मीट्र‍िक टन तक पहुंच गई. हालांकि, मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने सितंबर 2021 में कहा था कि धान की खेती किसानों के लिए आत्मघाती होगी, क्योंकि भारतीय खाद्य निगम ने रबी सीजन के धान को खरीदने से मना कर दिया है. लेकिन, इसका जमीन पर कोई असर देखने को नहीं मिला. मौजूदा साल यानी 2022-23 के दौरान देश में रबी सीजन के धान की सबसे ज्यादा बुवाई करने वाला राज्य तेलंगाना ही है. यहां इस वर्ष 18.07 हेक्टेयर में धान की बुवाई हुई है, जो पिछले साल के मुकाबले 10.31 लाख हेक्टेयर ज्यादा है. 

केंद्र सरकार द्वारा गठित एमएसपी और क्रॉप डाइवर्सिफिकेशन कमेटी के सदस्य बिनोद आनंद का कहना है कि तेलंगाना में सिंचाई की अच्छी सुविधा हो गई है. पानी निकालने पर कोई रोक नहीं है. बिजली फ्री है और एमएसपी पर जमकर खरीद हो रही है इसलिए यहां धान की खेती इतनी तेजी से बढ़ी है. लेकिन यह ट्रेंड पर्यावरण और किसानों दोनों के लिए खतरनाक है. 

हरियाणा मॉडल की जरूरत

कृषि क्षेत्र में पानी बचाने के लिए हरियाणा सरकार मेरा पानी-मेरी विरासत नाम की एक योजना चला रही है. इसके तहत धान की खेती छोड़ने वाले किसानों को वो 7000 रुपये प्रति एकड़ की प्रोत्साहन रकम देती है. साथ ही कम पानी वाली फसल जैसे मक्का की खरीद की गारंटी देती है. उनका फसल बीमा भी करवाती है.

दावा है कि इसके असर से किसान लगभग सवा लाख हैक्टेयर में धान की जगह दूसरी फसल उगा रहे हैं. इस मॉडल पर दूसरे राज्यों में भी काम शुरू हो सकता है. धान या गन्ने की जगह जो दूसरी फसल होगी उसकी खरीद की गारंटी देनी होगी. तब जाकर किसान कम पानी वाली फसलों की ओर रुख करेंगे. वरना किसान कहेंगे कि धान और गन्ने की फसल उगाना क्यों छोड़ दें? ऐसे में इसे लेकर एमएसपी की तरह एक नई किसान पॉलिटिक्स शुरू हो जाएगी. साफ है कि सिर्फ क्रॉप डायवर्सिफिकेशन के नारे से काम नहीं चलेगा. 

कहां-कहां होती है धान की खेती

पंजाब, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और झारखंड में धान प्रमुख फसल है. देश में लगभग 43 मिलियन हेक्टेयर में धान की खेती होती है.केंद्र सरकार द्वारा गठित क्रॉप डायवर्सिफिकेशन कमेटी के सदस्य बिनोद आनंद का कहना है कि जहां पर पर्याप्त पानी उपलब्ध है वहां पर धान की फसल होनी ही चाहिए, लेकिन जहां पर पानी की कमी है वहां इसकी फसल को हतोत्साहित करने की जरूरत है. क्योंकि पानी ही नहीं रहेगा तो भविष्य में खेती कैसे होगी?

पानी बचाने के लिए क्या करें किसान?

इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूसा के निदेशक डॉ. अशोक कुमार सिंह का कहना है कि धान की सीधी बिजाई की जाए. इससे पानी की 25 फीसदी तक की बचत होगी. कम समय में पकने वाली फसलों के बीज तैयार हों, इससे भी पानी की बचत होगी.

उधर, पूसा में वाटर डिवीजन के प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉ. अन‍िल कुमार मिश्र का कहना है कि फसल पैदा करने के ल‍िए पानी तो लगेगा ही, लेकिन कुछ तौर-तरीके बदलकर उसकी खपत कम की जा सकती है. पंजाब और हर‍ियाणा में पानी का संकट इसलिए तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि यहां धान की खेती परंपरागत तरीके से की जाती है और मिट्टी बलुई दोमट है, ज‍िसकी जलधारण क्षमता कम है. इसल‍िए बार-बार स‍िंचाई करनी पड़ती है.

कम हो सकती है पैदावार

केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक भारत में सिंचित चावल की पैदावार में वर्ष 2050 तक 7 फीसदी और वर्ष 2080 के परिदृश्य में 10 फीसदी तक की कमी का अनुमान लगाया गया है. वर्ष 2100 में गेहूं की पैदावार में 6-25 फीसदी और मक्का की पैदावार में 18-23 परसेंट तक की कमी आने का अनुमान लगाया गया है. भारतीय कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के अध्ययन में यह निष्कर्ष निकला है.

पानी का कितना बड़ा है संकट

जल संकट का सामना ग्रामीण और शहरी दोनों कर रहे हैं. किसानों को आज नहीं कल तो पानी की वजह से फसल बदलनी होगी. महाराष्ट्र कृषि मूल्य आयोग के अध्यक्ष पाशा पटेल बताते हैं कि उनके यहां जल संकट की वजह से किसानों ने पारंपरिक खेती छोड़कर सोयाबीन उगाना शुरू कर दिया है. पटेल महाराष्ट्र के लातूर के रहने वाले हैं, जहां 2016 में ट्रेन से पानी पहुंचाना पड़ा था. महाराष्ट्र में भयंकर जल संकट है, लेकिन यहां गन्ने की खेती कम नहीं की जा रही है, जिसमें धान से ज्यादा पानी की खपत होती है.

 सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 21 शहर 2030 तक ‘डे जीरो’ की कगार पर होंगे. डे जीरो का मतलब उस दिन से होता है, जब किसी शहर के पास मौजूद पानी के स्रोत खत्म हो जाएं. वो पानी की आपूर्ति के लिए पूरी तरह अन्य साधनों पर आश्रित हो जाएं. ऐसे शहरों में गुरुग्राम, फरीदाबाद, बंगलुरू, कोयंबटूर, कोच्ची, मदुरै, चेन्नई, सोलापुर, हैदराबाद, विजयवाड़ा, मुंबई, अमरावती, जमशेदपुर, धनबाद, कानपुर, जयपुर,  दिल्ली, मेरठ विशाखापत्तनम और आसनसोल शामिल हैं.

क्या कर रही सरकार

सरकार चाहती है कि फ्लड इरिगेशन बिल्कुल बंद हो. किसान सिंचाई के तौर-तरीके बदलें. इससे उनकी लागत भी कम होगी और पानी भी बचेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में जल संकट को देखते हुए किसानों को प्रति बूंद अधिक फसल ( Per Drop More Crop) वाला आइडिया अपनाने का आह्वान किया है. माइक्रो इरीगेशन के तहत अब तक करीब 60 लाख हेक्टेयर एरिया कवर हो चुका है. केंद्र सरकार ने फिलहाल, 100 लाख हेक्टेयर भूमि इसके तहत कवर करने का टारगेट तय किया है.

ये भी पढ़ें: