
साल 1951 में, भारत एक जल-समृद्ध राष्ट्र था. प्रत्येक नागरिक के पास सालाना 5,200 घन मीटर से ज़्यादा पानी उपलब्ध था. मगर सीधे सात दशक बाद, यह आंकड़ा तेजी से गिरकर 1,500 घन मीटर से भी कम रह गया है. अनुमान है कि 2050 तक यह और भी कम होकर लगभग 1,200 घन मीटर रह जाएगा, जो उस खतरनाक स्तर के बहुत करीब है जो देश को जल-संकटग्रस्त राष्ट्र बना देगा.
दरअसल, किसी देश को जल-संकटग्रस्त तब माना जाता है जब प्रति व्यक्ति उपलब्धता प्रति वर्ष 1,700 घन मीटर से कम हो जाती है, और जब यह 1,000 घन मीटर से कम हो जाती है, तो उसे जल-कमी वाला माना जाता है. अगर यह 500 घन मीटर से कम हो जाती है, तो उसे पूर्ण जल संकट का सामना करना पड़ता है. भारत पहले ही संकटग्रस्त क्षेत्र में पहुंच चुका है. अगर यही स्थिति जारी रही, तो एक पीढ़ी के भीतर कई क्षेत्र पानी के पूर्ण अभाव की ओर बढ़ सकते हैं.
जल शक्ति मंत्रालय के केंद्रीय जल आयोग और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा संयुक्त रूप से मेंटेन किए जाने वाले जल संसाधन सूचना प्रणाली पोर्टल के अनुसार, प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1951 में 5,200 क्यूबिक मीटर से लगातार गिरकर 2001 में 1,816, 2011 में 1,545 और 2021 में 1,486 हो गई. इसका अनुमान है कि 2050 तक यह केवल 1,191 क्यूबिक मीटर तक पहुंच सकता है. ये चेतावनियां 2022 में संसद में एक लिखित उत्तर में भी बताई गई थीं.
जल संसाधन सूचना प्रणाली पोर्टल के अनुसार - जिसे जल शक्ति मंत्रालय के केंद्रीय जल आयोग और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा संयुक्त रूप से बनाए रखा जाता है - प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1951 में 5,200 क्यूबिक मीटर से लगातार गिरकर 2001 में 1,816, 2011 में 1,545 और 2021 में 1,486 हो गई. यह 2050 तक केवल 1,191 क्यूबिक मीटर का अनुमान लगाता है. ये चेतावनियां 2022 में संसद में एक लिखित उत्तर में भी बताई गई थीं.
हालांकि, राष्ट्रीय औसत वाले आंकड़े क्षेत्रीय असमानताओं को छिपाते हैं. नीति आयोग के भारत जलवायु और ऊर्जा डैशबोर्ड पर प्रकाशित ज़िला-स्तरीय अनुमान दर्शाते हैं कि यह संकट भौगोलिक रूप से कैसे फैल सकता है. अभी, 21 ज़िले पानी की भारी कमी से जूझ रहे हैं, जहां प्रति व्यक्ति सालाना 500 घन मीटर से भी कम पानी उपलब्ध है. 2050 तक, यह संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा होकर 49 हो जाएगी - यानी हर 15 जिलों में से एक पानी की भयंकर कमी से जूझेगा.
अकेले उत्तर प्रदेश में 76 जिले पानी के अभावग्रस्त या उससे भी बदतर स्थिति में हैं, इसके बाद बिहार में 38, तमिलनाडु में 36, मध्य प्रदेश में 34 और राजस्थान में ऐसे 33 जिले हैं. चिंता की बात ये भी है कि यही राज्य भारत के मुख्य कृषि क्षेत्र का भी निर्माण करते हैं, जो इस प्रवृत्ति को और भी अधिक चिंताजनक बनाता है. इसके विपरीत, उत्तर-पूर्व जल-समृद्ध बना रहेगा. अनुमान है कि अरुणाचल प्रदेश, असम और मेघालय में 2050 तक भी प्रति व्यक्ति जल-संकट 1,700 घन मीटर से ऊपर बना रहेगा, जो कि तनाव-मुक्त श्रेणी में आराम से रहेगा.
ये सभी आंकड़े सिर्फ़ पर्यावरणीय आंकड़े नहीं हैं; ये अर्थव्यवस्था और शासन के लिए भी ख़तरे की घंटी बजाते हैं. अकेले कृषि ही इस भूजल का 87 प्रतिशत हिस्सा सोख लेती है, जो साफ़ तौर पर दर्शाता है कि कैसे असंवहनीय सिंचाई इस कमी को बढ़ावा देती है. चिंता की बात यह है कि दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, दादरा एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव में सभी मूल्यांकन इकाइयों में से एक-चौथाई से अधिक, पहले से ही अत्यधिक दोहन या संकटग्रस्त हैं. इससे भारत के अन्न भंडार और प्रमुख शहरी केंद्र भूजल संकट के केंद्र बन गए हैं. इस संकट को लेकर यदि कड़े कदम नहीं उठाए गए तो बढ़ते शहर सीमित जल के लिए संघर्ष करेंगे और नदियों और भूजल को लेकर राज्यों के बीच झगड़े और भी बदतर हो जाएंगे.
(रिपोर्ट- पीयूष अग्रवाल)
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