‘धरती के लाल’: किसानों के मुद्दे पर लोकतांत्रिक तरीके से बनी अनूठी और हृदयस्पर्शी फिल्म

‘धरती के लाल’: किसानों के मुद्दे पर लोकतांत्रिक तरीके से बनी अनूठी और हृदयस्पर्शी फिल्म

फिल्म की शूटिंग, संवाद, कैमरा और प्रोडक्शन में फिल्म के स्पॉटबॉय से लेकर नायक-नायिकाओं तक सभी ने अपना योगदान दिया. फिल्म से जुड़े अनेक किस्सों में से एक यह भी है कि जब फिल्म का एक किरदार कलकत्ता के फुटपाथ पर अंतिम सांसे गिन रहा है,

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‘धरती के लाल’: किसानों के मुद्दे पर लोकतांत्रिक तरीके से बनी अनूठी और हृदयस्पर्शी फिल्मधरती के लाल

हमारी फिल्मों की दुनिया ने एक समृद्ध और जीवंत सफर तय किया है. पारसी थिएटर के प्रभाव, यथार्थवादी और नवयथार्थवादी, फिर व्यवसायी प्रभावों से गुजरते हुए आज हम दुनिया में सबसे ज़्यादा फिल्में बनाने वाले देशों में से एक हैं. चूंकि फिल्में हमारे जीवन का इतना अहम अंग हैं, इसलिए बेशक वे हमारी सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं, बदलावों और पड़ावों के महत्वपूर्ण दस्तावेज रही हैं.ऐसी ही एक अहम फिल्म है 1946 में रिलीज हुई ‘धरती के लाल’. यह फिल्म इसलिए महत्वपूर्ण है ही कि यह किसानों की समस्या पर बनी पहली गंभीर हिन्दी फिल्म है और बंगाल के अकाल का बहुत वास्तविक चित्रण करती है, फिल्म निर्माण के लिहाज से भी यह फिल्म एक खास जगह रखती है.

1946 के आसपास बनी थी फिल्म

दरअसल, 1946 के आसपास ही बनी थी. एक वामपंथी सांस्कृतिक संस्था- इंडियन पीपल्स थिएटर असोशिएशन (इप्टा). इस संस्था में सभी उम्र के संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी और कलाकार देश भर में नाटकों के जरिए अंग्रेजों से आज़ादी और सामाजिक सुधार की अलख जगाते थे. इसी संस्था ने बंगाल के लेखक बिजोन भट्टाचार्य के नाटक ‘नबान्न’ का मंचन किया और इसी दौरान हिन्दी के लेखक कृशन चंदर की लघुकथा प्रकाशित हुई ‘अन्नदाता’. युवा पत्रकार ख्वाजा अहमद अब्बास इन दोनों रचनाओं से बहुत प्रभावित हुए.

ख्वाजा अहमद अब्बास उन दिनों एक कॉलम के साथ-साथ फिल्म समीक्षाएं लिखा करते थे. वे भी इप्टा के सदस्य थे. उन्होने निश्चय किया कि इप्टा की तरफ से ही इन दोनों रचनाओं पर आधारित फिल्म बनाई जाए. इंडियन पीपल्स थिएटर असोशिएशन के युवा और उत्साही रंगकर्मी सहर्ष तैयार हो गए. फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा बिजोन भट्टाचार्य और ख्वाजा अहमद अब्बास ने.इप्टा द्वारा प्रोड्यूस की गई यह पहली और आखिरी फिल्म थी.

लोकतान्त्रिक तरीके से बनी फिल्म थी

फिल्म की शूटिंग, संवाद, कैमरा और प्रोडक्शन में फिल्म के स्पॉटबॉय से लेकर नायक-नायिकाओं तक सभी ने अपना योगदान दिया. फिल्म से जुड़े अनेक किस्सों में से एक यह भी है कि जब फिल्म का एक किरदार कलकत्ता के फुटपाथ पर अंतिम सांसे गिन रहा है, तो उसकी आंखों में लहलहाते खेत घूम जाते हैं. इस शॉट के दौरान इस किरदार के चेहरे का क्लोजअप स्ट्रीट लैम्प की रोशनी में लेना था. लेकिन ऐन मौके पर बल्ब खराब हो गया. तब सेट पर काम करने वाले एक मजदूर ने सुझाव दिया कि लैम्प की रोशनी से बेहतर होगा कि सामने से आती किसी गाड़ी की हेडलाइट में इस किरदार का क्लोज़अप लिया जाए. ये सुझाव सभी को पसंद आया और आखिरकार शॉट इसी तरह लिया गया.

इस मायने में यह लोकतान्त्रिक तरीके से बनी फिल्म थी. हालांकि यह मुश्किल भी था क्योंकि सभी के सुझावों का पालन तो नहीं किया जा सकता था ना! सो, शूटिंग से पहले लंबी चर्चाएं होती थीं और उसके बाद सर्व सहमति से शॉट लिया जाता था. अभिनेता बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में इस फिल्म से जुड़े बहुत से रोचक किस्सों को दर्ज़ किया है. इसकी आउटडोर शूटिंग महाराष्ट्र के एक गांव में की गयी और इसमें सैकड़ों ग्रामीणों ने बतौर एक्सट्रा काम भी किया, खासकर गांव से शहर पलायन करते किसानों के तौर पर फिल्म की कहानी के केंद्र में है बंगाल के एक काल्पनिक गांव अमीनपुर में रहने वाला एक किसान परिवार.

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किसानों के मुद्दे पर बनी है ये फिल्म

बुजुर्ग बटाईदार किसान समद्दर के दो बेटे हैं निरंजन और रामू. रामू का अभी विवाह नहीं हुआ है. जीवन कठिन है लेकिन खुशहाल भी. रामू की राधिका से शादी के लिए समद्दर कुछ कर्ज़ लेता है. फसल अच्छी होती है लेकिन साहूकार कम दामों पर सारी फसल खरीद लेता है. साहूकार की मदद करता है बिचौलिया. जब ज़रूरत पड़ने पर यही किसान परिवार अनाज मांगने जाता है तो साहूकार तिगुनी कीमत पर अनाज देता है.

उधर अंग्रेज़ी सरकार के क़ानूनों ने बंगाल में वैसे भी सूखे जैसे हालात बना दिए हैं. अमीनपुर में बाढ़ आ जाती है तो खाने के लाले पड़ जाते हैं. गांव के सदस्य मिल कर निश्चय करते हैं कि उन्हें कलकत्ता जाना चाहिए, शायद वहां हालात बेहतर हों. सब कुछ बेचने के बाद भी समद्दर अपनी छोटी सी ज़मीन बेचने से इंकार कर देता है तो छोटा बेटा रामू कुछ गांव वालों के साथ कलकत्ता चला जाता है. लेकिन कलकत्ता में हालात और भी खराब हैं. पेट भरने के लिए रामू की पत्नी राधिका को वेश्यावृत्ति तक करनी पड़ती है.

किसानों पर फिल्माई गई है कहानी

अंत में समद्दर सभी को राज़ी कर लेता है कि वे गांव वापिस चलें और मिल कर खेती करें. रामू और राधिका वापिस नहीं जाते. सांझा खेती के सकारात्मक फैसले पर इस फिल्म का अंत होता है लेकिन इसमें दिखाई गई गरीबी और भुखमरी हृदयविदारक है. बंगाल के इस अकाल में करीब 30 लाख लोग मारे गए थे. अंग्रेज़ी हुकूमत ने तो अपनी नीतियों से किसान मजदूरों का खून चूसा ही, हमारे अपने साहूकार, और बिचौलियों ने भी शोषण में कोई कसर नहीं छोड़ी. यह फिल्म गहरी आर्थिक विषमता को प्रभावपूर्ण तरीके से दिखलाती है. शहर में जो अमीर है, वह बहुत अमीर है और जो गरीब है उसे कचरे में ढूंढने पर भी खाने को नहीं मिलता.

फिल्म किसानों और ग्रामीणों की समस्याओं के साथ ही पारिवारिक रिश्तों को भी खूबसूरती से दिखलाती है. युवा राधिका के मन में पढ़ने की ललक है तो सास बहू और जेठानी देवरानी के बीच तकरार भी है. और आर्थिक संकट किस तरह सामाजिक रिश्तों पर असर डालता है, ‘धरती के लाल’ इसका मार्मिक चित्रण करती है. फिल्म अगस्त 1946 में रिलीज़ हुई और बदकिस्मती से उसी दिन बंबई में दंगे शुरू हो गए तो यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाई नहीं कर पायी. यह भी विडंबनापूर्ण है कि जो फिल्म धार्मिक और सांप्रदायिक सद्भाव को इतने प्रभावपूर्ण तरीके से दिखलाती है, वही सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ गई.

‘मदर इंडिया’ ने ली थी इस फिल्म से प्रेरणा 

लेकिन इस फिल्म ने हिन्दी में यथार्थवादी शैली की नींव रखी, और यह पहली हिन्दी फिल्म थी जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता और प्रशंसा मिली. रूस में इस फिल्म को विशेष रूप से सराहा गया. न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसे ‘एक साहसी और यथार्थवादी’ फिल्म माना. बंगाल के अकाल पर बनी यह फिल्म लगभग एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है. इस फिल्म में जिन कलाकारों ने काम किया वे बाद में हमारे सिनेमा की महत्वपूर्ण शख्सियतें बने. इनमें प्रमुख हैं, बलराज साहनी, तृप्ति मित्रा, दमयंती साहनी, ज़ोहरा सहगल, शोम्भू मित्रा, के एन सिंह और डेविड. फिल्म का संगीत दिया था प्रसिद्ध सितार वादक रविशंकर ने. ख्वाजा अहमद अब्बास भी आगे जाकर प्रसिद्ध स्क्रिप्ट राइटर बने और राज कपूर की कई हिट फिल्मों का लेखन किया. चाहें वह ‘दो बीघा ज़मीन’ हो या ‘मदर इंडिया’, आगे आने वाली अनेक फिल्मों ने ‘धरती के लाल’ से ही प्रेरणा ली, और किसानों की दुर्दशा को संवेदनशीलता से चित्रित किया. इस लिहाज से यह फिल्म मील का पत्थर साबित हुई.

फिल्म के अंत में राधिका कहती है कि गांव वाले और यह देश हमें कभी नहीं भूलेगा. जो लोग भूख और गरीबी से मर गए, आज़ादी मिलने तक वे लोग इस देश की स्मृति में एक ज़्वाला की तरह लहकते रहेंगे. आज आज़ादी मिले 76 साल हो गए हैं. वक्त बदला है, कई दौर आए-गए. खेती-किसानी की तकनीक भी बदली, लेकिन मुद्दा आज भी वही है. किसान को उसकी मेहनत का सही दाम. किसानों का संघर्ष आज भी कमोबेश वही है. क़र्ज़ा और फसल का उचित मूल्य. क्या हम वाकई उन असंख्य लोगों की स्मृति को जीवित रख पाए हैं, जो गुलामी और शोषण की भेंट चढ़ गए? यह फिल्म इस सवाल के साथ आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितना 1946 में थी.

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