भारत में अगर कृषि में क्रांति की बात बोती है तो एक नाम इस सूचि में सबसे ऊपर आता है - मोनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन. ये नाम देश की धरोहर है, क्योंकि एम. एस. स्वामीनाथन भारत के ना केवल एक प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक थे बल्कि उन्हें "हरित क्रांति" का जनक भी माना जाता है. ये वही स्वामीनाथन थे जिन्होंने विज्ञान को सीधे खेत में उतारा था. देश भुखमरी से जूझ रहा था, तब स्वामीनाथन ने ही करोड़ों लोगों को भूख से बाहर निकाला. स्वामीनाथन ने हरित क्रांति के दौर में स्वामीनाथन ने गेहूं और चावल की उच्च पैदावार वाली कई सारी किस्में विकसित की थीं, जिनकी बदौलत भारत आगे जाकर खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बन पाया. एम. एस. स्वामीनाथन ने देश को खाद्य सुरक्षा दी और लाखों-करोड़ों किसानों का जीवन संवारा. आज एम. एस. स्वामीनाथन का 100वीं जन्म जयंती है.
प्रो. मोनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन का जन्म 7 अगस्त, 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम में हुआ था. उनका पहला नाम केरल के दर्शनीय गांव मोनकोम्बु के नाम पर रखा गया है, जहां उनका परिवार धान और कॉफ़ी की खेती में अग्रणी होने के लिए प्रसिद्ध है. उनका दूसरा नाम उनके पिता - डॉ. एम.के. संबासिवन के नाम पर रखा गया है, जो कुंभकोणम के एक सम्मानित चिकित्सक और सिविल सर्जन थे. यहां उन्हें वैज्ञानिक तकनीकों के अनुप्रयोग में सामाजिक सहभागिता के माध्यम से वेक्टर मच्छर प्रजातियों को खत्म करने और खतरनाक फाइलेरिया रोग के सफल प्रबंधन का श्रेय दिया जाता है. प्रो. स्वामीनाथन की मां - थिरुमादी थंगम्मल का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव था. स्वामीनाथन बताते हैं कि उनकी मां भारतीय नारीत्व की सभी अच्छाइयों और महानताओं का प्रतीक थीं - एकतरफा प्रेम, धैर्य, कड़ी मेहनत, और दुख-सुख को समभाव से सहना.
प्रो. स्वामीनाथन की प्रारंभिक शिक्षा कुंभकोणम के कैथोलिक लिटिल फ्लावर हाई स्कूल में हुई. 1940 में उन्होंने प्राणि विज्ञान की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज, त्रिवेंद्रम में दाखिला लिया और 1944 में बी.एससी. की डिग्री प्राप्त की. हालांकि, धान की कम पैदावार, किसानों की गरीबी और 1942-43 में बंगाल में आए विनाशकारी अकाल से व्यथित होकर, प्रो. स्वामीनाथन ने ‘खाद्य सुरक्षा’ को अपने जीवन का मिशन बना लिया और कृषि संकाय में शामिल हो गए. इसके बाद 1947 में प्रसिद्ध कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान संस्थान से उन्होंने कृषि में बी.एस.सी. की डिग्री प्राप्त की.
इसके बाद उन्होंने नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) से स्नातकोत्तर अध्ययन किया, जहां से उन्होंने 1949 में जेनेटिक्स और प्लांट ब्रीडिंग में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की और नीदरलैंड के वेगेनिंगेन कृषि विश्वविद्यालय में यूनेस्को फेलो रहे. आनुवंशिकी और प्रजनन में उनकी रुचि ने फसल सुधार के क्षेत्र में उनके बाद के कार्यों की नींव रखी. स्वामीनाथन ने 1952 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, यूनाइटेड किंगडम से आनुवंशिकी में अपनी पीएच.डी. पूरी की और विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका (1952-1953) से पोस्ट-डॉक्टरल अध्ययन किया. उनका डॉक्टरेट शोध जौ और गेहूं के आनुवंशिकी पर केंद्रित था.
1954 में ब्रिटेन से भारत लौटकर प्रो. स्वामीनाथन ने केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, कटक, ओडिशा और आगे चलकर आईएआरआई, नई दिल्ली में काम किया. ये वही दौर था जब हमारा देश भीषण खाद्य संकट से जूझ रहा था. देश को गेहूं और चावल जैसे अनाज दूसरे देशों से आयात करने पड़ रहे थे. स्वामीनाथन भारत की खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंतित थे क्योंकि भारत की छवि 'जहाज से मुंह तक' की थी और भारत की छवि 'भिक्षापात्र' की थी. वे कृषि उत्पादकता और उत्पादन, विशेष रूप से हमारे मुख्य खाद्यान्नों (गेहूं और चावल) को बढ़ाने में रुचि रखते थे.
इसके लिए, उन्होंने कल्पना की कि पौधों के प्रकार को इस प्रकार तैयार किया जाना चाहिए कि वे उर्वरकों के बाहरी प्रयोग के प्रति कार्यात्मक रूप से प्रतिक्रियाशील हों. पौधों की ऊंचाई कम की जानी चाहिए, वो भी बिना दाने वाले पुष्पगुच्छ की लंबाई कम किए. इस तरह स्वामीनाथन ने नॉर्मन बोरलॉग के साथ मिलकर उच्च उत्पादकता वाली गेहूं की किस्मों को भारत में सफलतापूर्वक लागू किया. यह प्रयास केवल वैज्ञानिक नवाचार नहीं था, बल्कि भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए एक क्रांतिकारी मोड़ साबित हुआ.
जो किस्में स्वामीनाथन ने तैयारा कीं, वह अच्छी उपज देने वाली, अच्छी गुणवत्ता वाली और रोग-मुक्त तो थीं, मगर उच्च उपज वाली नई किस्म को अपनाने में किसान हिचकिचाहट से भरे थे. फिर 1964 में प्रो. स्वामीनाथन द्वारा नई किस्म का प्रदर्शन करने के बार-बार अनुरोध के बाद, उन्हें छोटे-छोटे डेमो प्लाॉट्स पर रोपण के लिए फंडिंग दी गई. इसके परिणाम शानदार रहे और किसानों की हिचकिचाहट दूर हो गई. फिर लैब में अनाज में और अधिक संशोधन किए गए ताकि वह भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल हो सकें. गेहूं की नई किस्में बोई गईं और 1968 में उत्पादन 17 मिलियन टन हो गया, जो पिछली फसल से 5 मिलियन टन अधिक था. अपने अटूट दृढ़ संकल्प के साथ प्रो. स्वामीनाथन और उनकी टीम ने गेहूं उत्पादन में एक अभूतपूर्व परिवर्तन किया. इसके बाद, भारत सरकार ने 1971 में भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर घोषित कर दिया.
स्वामीनाथन की वजह से कृषि की इतनी प्रभावशाली ग्रोथ, भारत के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई. भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक अकाल की भविष्यवाणियां, जैसे कि पैडॉक बंधुओं द्वारा, प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन जैसे वैज्ञानिकों के समर्पित प्रयासों और भारतीय किसानों के दृढ़ निश्चय के कारण, गलत साबित हुईं. इस अभूतपूर्व योगदान के लिए भारत की हरित क्रांति के जनक कहे जाने वाले प्रो. स्वामीनाथन ने अपना पूरा जीवन खाद्य असुरक्षा को समाप्त करने और सभी के लिए एक अधिक न्यायसंगत और टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने के लिए प्रयास किया.
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