इन दिनाें फूड ट्रैसेबिलिटी (Food Traceability) शब्द काफी चर्चा में बना हुआ है. कई देश इस पर फोकस कर रहे हैं और यह व्यवस्था खाद्य और कृषि व्यापार की नई जरूरत बनती जा रही है. यह एक तरह से फायदेमंद तो है, लेकिन कहीं न कहीं यह विकासशील देशों और छोटे किसानों, व्यापारियों और निर्यातकों को प्रभावित कर रही है या भविष्य में बड़ी चिंता के रूप में उभर सकती है. जैसा कि नाम से ही जाहिर है... फूड ट्रैसेबिलिटी एक ऐसी व्यवस्था है, जो किसी खाद्य उत्पाद/कृषि उपज की पूरी सप्लाई चेन की जानकारी मुहैया कराती है यानी खेत से लेकर थाली तक पहुंचने की पूरी जानकारी आसानी से तकनीक के माध्यम से ट्रैक की जा सकती है.
इससे आसानी से यह पता लगाया जा सकता है कि उत्पाद किसने, कब, कहां और किन शर्तों पर उगाया/बनाया/उत्पादित किया. इसमें अब तकनीक और डिजिटलीकरण अहम फैक्टर हैं, जिससे कोई भी उपभोक्ता अपने उत्पाद पर या उत्पाद के पैकेट पर लगे क्यूआर कोड को स्कैन कर उत्पाद की पूरी जानकारी आसानी से हासिल कर सकता है.
उदहारण के तौर पर देवगढ़ का हापुस आम एक खास तरह की सील के साथ बाजार में बेचा जाता है, जिसे हटाने पर एक क्यूआर कोड के माध्यम से उसकी ऑरिजिनल होने की पहचान की जा सकती है और किसान के नाम से लेकर बाग की जरूरी जानकारी मोबाइल पर देखी जा सकती है.
खाद्य सुरक्षा, उपभोक्ता भरोसे और गुणवत्ता नियंत्रण के लिए ट्रैसेबिलिटी को बेहद जरूरी कदम माना जा रहा है और यह खाद्य घोटालों को रोकने और गड़बड़ी समझ आने पर रीकॉल (किसी उत्पाद को वापस मंगाने) की स्थिति में तेजी से कार्रवाई के लिए अहम है. लेकिन, यह विकासशील देशों के व्यापार, छोटे किसानों, व्यापारियों और निर्यातकों को प्रभावित कर रही है, जानिए कैसे...
दरअसल, कोई भी देश अपनी जरूरतों के हिसाब से किसी फसल या खाद्य उत्पाद को आयात करने की शर्त रखता है. इसमें वह उत्पाद को उगाए जाने से लेकर उसकी प्रोसेसिंग को लेकर कई शर्तों के साथ ट्रेसिबिलिटी की अनिवार्यता लगा सकता है. ऐसे में कई बार ऐसी शर्तों के कारण इनका पालन कर पाना निर्यातक देश खासकर विकासशील देश के के बस के बाहर की बात हो जाती है और उसके- छोटे किसानों, छोटे व्यापारियों और छोटे निर्यातकों को व्यापार की रेस से बाहर होना पड़ सकता है.
भारत भी एक विकासशील देश है और यहां ज्यादातर किसान छोटी जाेत वाले हैं, जिनके पास इससे जुड़ी तकनीक तक बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के पहुंच बना पाना बेहद मुश्किल है और निजी स्तर पर तो यह किसानों के लिए लगभग नामुमकिन जैसा है. आइए इसे भारत के लिहाज से उदहारण के साथ समझते हैं...
यूरोपियन यूनियन (EU) ने कड़ा रुख अपनाते हुए (EUDR- (European Union Deforestation Regulation) बनाया है, जिसके तहत साल 2020 के बाद जहां भी जंगल काटकर खेतीकर फसल उगाई जा रही है, वे वहां के उत्पादों को नहीं खरीदेंगे. यह नियम इस साल के आखिरी में यानी 30 दिसंबर को लागू होगा.
हालांकि, शुरुआत में बड़े उद्यमों को ही ट्रेसेबिलिटी के साथ इसका प्रूफ देना होगा, लेकिन इसके कुछ महीनों बाद यह लघु और सूक्ष्म पर भी लागू हो जाएगा और उन्हें भी ट्रेसेलिबिटी बताना अनिवार्य होगा.
ऐसे में भारतीय निर्यातक और किसानों के सामने यह बताने की चुनौती खड़ी हो जाएगी कि उन्हें ट्रेसिबिलिटी के साथ यह समझाना होगा कि वे खेती की जमीन पर ही फसल उगा रहे हैं, न कि जंगल काटकर. ऐसे में ऐसी समस्या से निपटने के लिए सरकारी हस्तक्षेप जरूरी है.
अब इसे एक कृषि उत्पाद के उदहारण से और आसानी से समझते हैं... भारत से यूरोपियन यूनियन के कई सदस्य देश पशुचारे के रूप में इस्तेमाल होने वाली सोयाबीन की खली (De-Oiled Soymeal) खरीदते हैं. ऐसे में जब यह शर्त लागू होगी तो यहां के निर्यातकों को सबूत के तौर पर सर्टिफिकेट और ट्रेसेबिलिटी का रिकॉर्ड देना होगा कि यह सोयाबीन की खली, खेती योग्य जमीन पर उगी सोयाबीन से प्रोसेस होकर बनी है, न कि जंगल की जमीन काटकर उगी सोयाबीन से.
अब चिंता की बात यह है कि भारत में जितने भी किसान सोयाबीन की खेती करते हैं, उनमें से ज्यादातर के पास जोत बहुत छोटी है. ऐसे में किसानों और निर्यातकों के स्तर पर यह जानकारी और सर्टिफिकेशन दे पाना बड़ी समस्या का विषय है और सरकार का कदम उठाना जरूरी है. इसलिए कुछ महीने पहले ही सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (SOPA) ने केंद्र सरकार से इन नियमों के चलते निर्यात प्रभावित होने को लेकर चिंता जताई थी और इसमें दखल देने की मांग की थी.
सोपा भारत में सोयाबीन प्रोसेसर्स, किसानों, निर्यातकों और दलालों का प्रतिनिधित्व करने वाला राष्ट्रीय स्तर का निकाय है, जो सोयाबीन को एक व्यवहार्य फसल के रूप में मज़बूत करने के उद्देश्य से काम करता है. सोपा का मुख्य उद्देश्य किसानों के साथ-साथ प्रोसेसर्स के हित में सोया-आधारित उत्पादों के विकास और प्रचार को प्रोत्साहित करना है.
ट्रैसेबिलिटी की अनिवार्यता भारत के लिए एक दोधारी तलवार जैसी बन गई है. एक तरफ यह निर्यात में नए अवसरों के द्वार खोल रही है, वहीं दूसरी ओर इस प्रणाली की जटिलताएं ग्रामीण और छोटे किसानों के लिए समस्या बन रही हैं. इसमें GPS आधारित भू-सर्वेक्षण, QR कोड टैगिंग, फसल के हर चरण का डिजिटल रिकॉर्ड जैसी सुविधाएं शामिल हैं, जो तकनीकी और वित्तीय दृष्टि से हर किसान के लिए सुलभ नहीं हैं. इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार को प्रशिक्षण, टेक्नोलॉजी सब्सिडी और सस्ती डिजिटल प्रणाली की उपलब्धता जैसे कदम उठाने होंगे, जो कहीं न कहीं कम समय में मुश्किल है.
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