यूं तो भारत के कई राज्यों में तिल की खेती की जाती है. लेकिन राजस्थान में इसका रकबा काफी अधिक है. राजस्थान में लगभग 6.68 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में तिल की खेती की जा रही है. जो राजस्थान में कुल तिलहन क्षेत्र का लगभग 19.31 प्रतिशत है. तिल की खेती के क्षेत्र में राजस्थान देश में पहले स्थान पर है. राजस्थान में तिल की खेती खरीफ में असिंचित क्षेत्रों में की जाती है. राजस्थान में तिल का उत्पादन देश के अन्य तिल क्षेत्रों की तुलना में काफी कम है. शुष्क क्षेत्रों में तिल का उत्पादन कम होने का मुख्य कारण तिल की खेती के लिए सिंचाई सुविधाओं का अभाव, स्थानीय बीजों का अधिक उपयोग, खाद व उर्वरकों का आवश्यकता से कम उपयोग, कीटनाशकों का कम उपयोग आदि है. शुष्क क्षेत्रों में तिल का उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि अनुसंधान संस्थानों और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा आधुनिक तकनीकें विकसित की गई हैं, जिन्हें अपनाकर उत्पादन में काफी वृद्धि की जा सकती है. यहां कुछ उन्नत तकनीकों की जानकारी दी गई है, जो तिल का उत्पादन बढ़ाने में काफी सहायक साबित हुई हैं.
तिल के लिए मटियार रेतीली भूमि अच्छी रहती है. मॉनसून आने से पहले खेत की जुताई कर समतल करना चाहिए और उगे हुए पौधों को साफ कर देना चाहिए. एक या दो जुताई करके खेत को तैयार कर लेना चाहिए.
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बुवाई का समय तापमान और मिट्टी में नमी की उपलब्धता पर निर्भर करता है. बुवाई करते समय यह सुनिश्चित करना चाहिए कि तापमान अधिक न हो और मिट्टी में नमी कम न हो. तिल की बुवाई के लिए उपयुक्त समय 1 जुलाई से 15 जुलाई तक है, लेकिन किसी भी स्थिति में इसे अंतिम सप्ताह तक अवश्य कर लेना चाहिए.
तिल के लिए बीज की मात्रा 3-4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होनी चाहिए. इससे कम या ज्यादा होने पर उपज बढ़ने की बजाय कम हो जाती है. अक्सर देखा जाता है कि ज्यादातर किसान कम मात्रा में बीज का इस्तेमाल करते हैं. बीज को बोने से पहले उपचारित कर लेना चाहिए. बीज को उपचारित करके बोने से फसल में कीटों और बीमारियों का प्रकोप कम होता है. बीज उपचार के लिए कैप्टान या ब्रैसिकोल दवा का 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.
तिल की अधिक उपज के लिए उन्नत किस्मों का प्रयोग करना चाहिए. इनके प्रयोग से फसल में कीटों और रोगों का प्रकोप कम होता है और इससे उपज भी 20-30 प्रतिशत बढ़ जाती है. यहां पाया गया है कि लगभग 80-85 प्रतिशत किसान अभी भी स्थानीय किस्मों का प्रयोग कर रहे हैं. अधिक उपज के लिए निम्नलिखित उन्नत किस्मों का प्रयोग करना चाहिए.
यह शीघ्र पकने वाली किस्म है, इसके पौधे 90 से 100 सेमी. ऊंचाई के होते हैं. इसमें 30 से 35 दिन में फूल आ जाते हैं. प्रत्येक पौधे पर औसतन 4-6 शाखाएं निकलती हैं, जिनमें 65-75 कैप्सूल आते हैं और इनमें बीजों की 4 पंक्तियां होती हैं. इस किस्म की मुख्य विशेषता यह है कि कैप्सूल नीचे से ऊपर की ओर एक साथ पकते हैं. यह 90 से 100 दिन में पक जाती है. इसकी औसत उपज 4.25-4.50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इसके बीजों का रंग सफेद होता है. इसमें तेल की मात्रा 48-49 प्रतिशत और प्रोटीन की मात्रा 26-27 प्रतिशत होती है.
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यह किस्म 75 से 85 दिन में पक जाती है. इसके बीज सफेद रंग के होते हैं. इसमें तेल की मात्रा 45-47 प्रतिशत तथा प्रोटीन की मात्रा 27 प्रतिशत होती है. इसकी औसत उपज 6-9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म जड़ और तना सड़न रोग, फ्लडी तथा जीवाणुजनित पत्ती धब्बा रोग के प्रति सहनशील है.
इसके पौधे 100 से 125 सेमी. ऊंचे होते हैं. पत्ती और फली छेदक कीट और पित्त मक्खी का प्रकोप कम होता है. इसमें गेमेसिस रोग का खतरा कम होता है. 30-35 दिन में फूल आ जाते हैं. प्रत्येक पौधे में 4-6 शाखाएं निकल आती हैं. यह किस्म 73 से 90 दिन में पक जाती है. इसकी औसत उपज 6.00 से 8.00 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इसके बीज सफेद रंग के होते हैं और तेल की मात्रा 49 प्रतिशत होती है.
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