भारत कृषि उत्पादों के एक्सपोर्ट से सबसे ज्यादा पैसा बासमती चावल के जरिए कमाता है. इसका एक्सपोर्ट सालाना 30 से 34 हजार करोड़ रुपये के बीच होता है. लेकिन, अगर आप ऐसी किस्मों का चुनाव करते हैं जिनमें रोग लगता है तो यह संभव है कि एक्सपोर्ट में बड़ी बाधा आए. क्योंकि रोगों के निदान के लिए इन पर कीटनाशकों का स्प्रे करना पड़ता है. जिसकी वजह से एक्सपोर्ट किए गए चावल में भी कीटनाशकों का अधिकतम अवशेष स्तर (MRL) ज्यादा हो जाता है. ऐसे में पूरी कंसाइनमेंट वापस आती ही है साथ में देश की बदनामी भी होती है. इसलिए कृषि वैज्ञानिक किसानों से बासमती की ऐसी किस्मों की बुवाई करने की अपील कर रहे हैं जो रोगरोधी हैं. जिनमें किसी कीटनाशक का स्प्रे करने की जरूरत ही नहीं पड़े.
आममौर पर बासमती धान में पत्ती का जीवाणु झुलसा (Bacterial Leaf Blight) और झोका रोग (Blast Disease) लगता है. मजबूरी में किसान इससे निपटने के लिए ट्राइसाइक्लाजोल नामक कीटनाशक का स्प्रे करते हैं. जिसके कारण चावल में कीटनाशक की मात्रा मिलती थी और खासतौर पर यूरोपीय यूनियन के देशों से हमारा चावल वापस आ जाता था. ऐसे में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा ने तीन ऐसी किस्में विकसित कीं जिनमें जीवाणु झुलसा और झोका रोग नहीं लगेगा. इन तीनों को बासमती की पुरानी किस्मों को सुधार करके रोग रोधी बनाया है. इनमें प्रति एकड़ कीटनाशकों पर 3000 रुपये तक का होने वाला खर्च बचेगा और एक्सपोर्ट में अब कोई दिक्कत नहीं आएगी. जिससे किसानों की कमाई बढ़ेगी.
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यूरोपीय संघ ने ट्राइसाइक्लाजोल की अधिकतम अवशेष सीमा (MRL) 0.01 पीपीएम (0.01 मिलीग्राम/किग्रा) तय की है. यानी 100 टन चावल में 1 ग्राम अवशेष के बराबर. अमेरिका में यह 0.3 और जापान में 0.8 पीपीएम है. किसान बासमती धान के अलग-अलग रोगों के लिए किसान ट्राइसाइक्लाजोल, कार्बेन्डाजिम, प्रोपिकोनाजोल, थियामेथोक्सम, प्रोफेनोफोस, एसेफेट, बुप्रोफेजिन, क्लोरपाइरीफोस, मेथैमिडोफोस और आइसोप्रोथियोलेन आदि का इस्तेमाल करते रहे हैं. जिससे एक्सपोर्ट में दिक्कत आ रही है.
पूसा के डायरेक्टर डॉ. अशोक कुमार सिंह ने बताया कि भारत में लगभग 20 लाख हेक्टेयर में बासमती धान की खेती होती है. जिनमें सबसे ज्यादा एरिया पूसा बासमती 1509, 1121 और 1401 का होता है. बासमती के कुल रकबा में इसका हिस्सा करीब 95 परसेंट तक पहुंच जाता है. पूसा ने बासमती 1509 को अपग्रेड करके 1847, 1121 को सुधार कर 1885 और पूसा बासमती-6 (1401) में बदलाव कर पूसा 1886 नाम से रोगरोधी किस्में विकसित कर दी हैं.
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