
क्या आपको पता है कि दालों और खाद्य तेलों के आयात पर हम कितना पैसा खर्च कर रहे हैं? नहीं पता है तो हम बता देते हैं. सिर्फ एक साल में ही हमने इस पर 1,58,160 करोड़ रुपये खर्च कर डाले हैं. यह इतनी बड़ी रकम है जिससे 341 किलोमीटर लंबे पूर्वांचल एक्सप्रेसवे जैसे सात एक्सप्रेसवे बनाए जा सकते हैं. यह पैसा हम इंडोनेशिया, मलेशिया, रूस, यूक्रेन, अर्जेंटीना, म्यांमार और मोजांबिक जैसे देशों को दे रहे हैं. क्योंकि हमारे नीति निर्धारकों की आंखों पर गेहूं-धान की ऐसी पट्टी बंधी हुई है कि दूसरी फसलें हमें दिखाई नहीं देतीं. आप कहेंगे कि गेहूं और धान से हम कमा भी तो रहे हैं. तो दोस्तों कमाई का हिसाब भी ले लीजिए. एक साल में हमने दोनों के एक्सपोर्ट से सिर्फ 87,960 करोड़ रुपये कमाए हैं. ऐसे में जरूरत गेहूं-धान को डिस्करेज करके तिलहन और दलहन फसल बढ़ाने की है. लेकिन, हो उल्टा रहा है. हम दलहन-तिलहन में आत्मनिर्भर होने का नारा तो लगा रहे हैं लेकिन, आगे बढ़ा रहे हैं गेहूं और धान को.
यकीन न हो तो उदाहरण सहित समझा देता हूं. विधानसभा चुनावों में किए गए वादे के अनुसार अब मध्य प्रदेश और राजस्थान में गेहूं की एमएसपी पर बोनस देकर उसे 2700 रुपये और छत्तीसगढ़ में धान की एमएसपी पर बोनस देकर 3100 रुपये प्रति क्विंटल पर सरकारी खरीद की जाएगी. जबकि साल 2024-25 के लिए गेहूं का एमएसपी 2275 और धान की एमएसपी सिर्फ 2183 रुपये प्रति क्विंटल ही है. जब आप अपने सियासी मंसूबों को पूरा करने के लिए धान और गेहूं पर बोनस देंगे तो किसी किसान को क्या पड़ी है कि वो तिलहन और दलहन फसलों की खेती करेगा. जाहिर है कि इन तीनों सूबों में धान और गेहूं पर ही किसान फोकस करेंगे. यही नहीं इन तीनों की देखादेखी दूसरे राज्यों में भी गेहूं-धान पर बोनस देने का दबाव पड़ेगा.
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राजस्थान और मध्य प्रदेश में जहां गेहूं पर बोनस देने का एलान किया गया है वो दोनों देश के बड़े तिलहन उत्पादक भी हैं. यह घोषणा भी तब हुई है जब सरसों और सोयाबीन जैसी फसलों की न तो पर्याप्त सरकारी खरीद हो रही है और न तो ओपन मार्केट में किसानों को इसका एमएसपी जितना दाम मिल रहा है. जबकि, तिलहन फसलों के उत्पादन में 22.25 फीसदी योगदान के साथ राजस्थान देश में पहले नंबर पर है और मध्य प्रदेश 21.02 फीसदी के साथ दूसरे नंबर पर.
दूसरी ओर सरसों उत्पादन में 48 फीसदी योगदान के साथ राजस्थान पहले और मध्य प्रदेश 45 फीसदी शेयर के साथ सोयाबीन उत्पादन में अव्वल है. दलहन उत्पादन में मध्य प्रदेश 21.78 फीसदी के साथ देश में पहले और राजस्थान 14.51 फीसदी के साथ तीसरे स्थान पर है. इन हालातों में दोनों सूबों में गेहूं की एमएसपी पर बोनस देना देश के दलहन और तिलहन उत्पादन के लिए खतरनाक फैसला साबित हो सकता है.
कुल मिलाकर बीजेपी के इस सियासी दांव की वजह से दलहन-तिलहन फसलों का रकबा बढ़ने की बजाय घट सकता है. क्योंकि दोनों राज्य दलहन-तिलहन में अहम योगदान देने वाले हैं. ऐसे में यहां पर गेहूं का दाम एमएसपी से अधिक मिलेगा तो किसान दलहन-तिलहन का रकबा कम करके गेहूं की तरफ शिफ्ट हो सकते हैं. देश को दालों और खाद्य तेलों के मामले में 'आयात निर्भर' बनाने के लिए ऐसी ही नीतियां काफी साबित होंगी.
धान, गेहूं पर फोकस करने वाली नीतियों से दलहन और तिलहन का रकबा कैसे कम हुआ इसे पंजाब से समझने की जरूरत है. पंजाब सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार 1960-61 में पंजाब में दलहन फसलें 19 फीसदी एरिया में हुआ करती थीं, जो 2020-21 तक सिर्फ 0.4 प्रतिशत रह गई. तब तिलहन करीब 4 फीसदी था जो अब घटकर सिर्फ 0.5 फीसदी एरिया में ही रह गया है.
दलहन और तिलहन की जगह धान और गेहूं ने ले ली है. यहां 1960-61 में मुश्किल से सिर्फ 5 फीसदी एरिया में धान की खेती होती थी जो अब बढ़कर 40 प्रतिशत के पार पहुंच गई है. यही हाल गेहूं का भी है. गेहूं साठ के दशक में 27 फीसदी एरिया पर था जो अब 45 फीसदी से अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर चुका है. ऐसे में अगर मध्य प्रदेश और राजस्थान में गेहूं, धान पर बोनस मिला तो फिर वहां भी दलहन और तिलहन फसलें कम हो सकती हैं.
हालांकि, केंद्र सरकार द्वारा एमएसपी और क्रॉप डायवर्सिफिकेशन पर बनाई गई कमेटी के सदस्य बिनोद आनंद का कहना है कि सरकार नेफेड के जरिए दलहन की शत-प्रतिशत खरीद सुनिश्चित करने जा रही है. इसी तरह तिलहन पर भी काम होगा. सरकार की इस कोशिश से हम दलहन और तिलहन में आत्मनिर्भर बन जाएंगे. हमें इन दोनों एग्री कमोडिटी का इंपोर्ट बिल जीरो करना है.
साल दर साल भारत में दलहन फसलों का क्राइसिस बढ़ता नजर आ रहा है. इस मामले में हम आयात पर निर्भर हैं. ऐसे में केंद्र सरकार ने दिसंबर 2027 तक दलहन के मामले में भारत को आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य रखा है. लेकिन दलहन उत्पादक सूबों में जो गेहूं की एमएसपी पर बोनस देने का एलान है ऐसी पॉलिसी केंद्र सरकार के ही लक्ष्य को हासिल करने में बाधक साबित हो सकती हैं. दलहन और तिलहन फसलों की जो उपेक्षा आजादी के बाद से होती रही है कम से कम अब उससे बाहर निकलने का वक्त है.
अब बात करते हैं दलहन फसलों के एरिया की. आजादी के बाद भारत में दलहन फसलों का क्षेत्र गेहूं से भी ज्यादा था. गेहूं सिर्फ 9.75 मिलियन हेक्टेयर में हो रहा था. जबकि दलहन का एरिया 19.09 मिलियन हेक्टेयर था. साल 1972-73 तक गेहूं का एरिया लगभग डबल हो गया. जबकि दलहन फसलों के रकबे में मामूली सी वृद्धि हुई. साठ के दशक की शुरुआत से 2015-16 तक दलहन फसलों का एरिया स्थिर रहा. न ज्यादा घटा और न बढ़ा. इससे दालों की मांग और आपूर्ति में काफी अंतर आ गया. साल 2015 के बाद सरकार ने इसका उत्पादन बढ़ाने और आत्मनिर्भर बनने का रोडमैप तैयार किया. लेकिन गेहूं पर बोनस इस लक्ष्य में बाधा बन सकता है.
बेशक 60 के दशक के बाद गेहूं और धान का एरिया बढ़ाने की जरूरत थी. उस पर जोर भी दिया गया, जिससे रकबा और उत्पादन बढ़ा. लेकिन दलहन और तिलहन दोनों फसलों की जो घोर उपेक्षा हुई उसका नतीजा यह है कि दोनों फसलों के मामले में हम बड़े आयातक बनकर रह गए. दलहन फसलों को उचित दाम दिलाने और खरीद की गारंटी की अब नेफेड के जरिए व्यवस्था की जा रही है, लेकिन तिलहन के मामले में अब भी हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. सरसों जैसी भारत की पारंपरिक तिलहन फसल को एमएसपी पर बेचने के लिए किसानों को आंदोलन करना पड़ रहा है.
गेहूं-धान बनाम दलहन-तिलहन फसलों की बात हो रही है तो यह भी जानने की जरूरत है कि हम गेहूं-चावल के निर्यात से कितना पैसा कमाते हैं और तिलहन-दलहन के आयात पर कितनी रकम खर्च कर रहे हैं. गेहूं और धान पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. इनमें पानी ज्यादा खर्च होता. जबकि दलहन और तिलहन कम पानी वाली फसलें हैं. यह पर्यावरण अनुकूल फसलें कही जा सकती हैं. दलहन फसलें तो वातावरण से नाइट्रोजन लेकर उसे मिट्टी में फिक्स करती हैं. ऐसे में यह खेती में फर्टिलाइजर फैक्ट्री के तौर भी काम करती है. इन बातों को नजर में रखते हुए जरा आयात-निर्यात के आंकड़ों पर भी गौर करने की जरूरत है.
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एक बात साफ है कि अगर किसी फसल का अच्छा दाम मिलेगा तो किसान अपने आप उस फसल की ओर आकर्षित होंगे. लेकिन अगर दाम नहीं मिलेगा तो सरकार कुछ भी कर ले, कोई भी अभियान चला ले, फाइलों में पन्ने बढ़ा ले. किसान वही करेंगे जो उनके फायदे में होगा. खाद्य तेलों की घरेलू मांग करीब 250 लाख टन है, जबकि उत्पादन केवल 125 लाख टन है. यानी खाद्य तेलों की मांग और आपूर्ति में करीब 50 फीसदी गैप है.
सरसों का एमएसपी 5450 रुपये है. जबकि किसानों को ओपन मार्केट में इसका दाम 4500 रुपये के आसपास ही मिल रहा है. इसी तरह देश के अधिकांश हिस्सों में सोयाबीन का भी 4600 रुपये के एमएसपी जितना दाम नहीं मिल पा रहा है. ऐसे में न तो किसान इन फसलों का रकबा बढ़ाएंगे और न तो हम इस मामले में आत्मनिर्भर बन पाएंगे. अगर इन दोनों फसलों में भारत को आत्मनिर्भर बनाना है तो किसानों को अच्छा दाम देना ही होगा. चाहे वो बोनस के जरिए मिले या फिर किसी और तरीके से. वरना दोनों का आयात बिल बढ़ता रहेगा जो देश की इकोनॉमी और उपभोक्ताओं के लिए खतरनाक साबित होगा.
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