पंजाब के क‍िसानों के ल‍िए उम्मीद की नई क‍िरण बनकर उभरी पीआर-126 क‍िस्म, जान‍िए क्या है खास‍ियत

पंजाब के क‍िसानों के ल‍िए उम्मीद की नई क‍िरण बनकर उभरी पीआर-126 क‍िस्म, जान‍िए क्या है खास‍ियत

PR-126 Paddy Variety: पीआर-126 क‍िस्म में पूसा-44 धान की वैराइटी को र‍िप्लेस करने की पूरी क्षमता द‍िखाई पड़ती है. पूसा-44 सबसे ज्यादा लंबी अवध‍ि की क‍िस्म है. इसमें पानी की खपत ज्यादा होती है. इसील‍िए इसे अगले साल से बैन कर द‍िया गया है. ज्यादा पैदावार की वजह से पूसा-44 का जलवा था, ज‍िसे पीआर-126 धान खत्म कर रहा है. 

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पंजाब के क‍िसानों के ल‍िए उम्मीद की नई क‍िरण बनकर उभरी पीआर-126 क‍िस्म, जान‍िए क्या है खास‍ियतपंजाब के क‍िसानों की समस्या का समाधान करेगा पीआर-126 धान.

जल संकट से जूझ रहे पंजाब के क‍िसानों के ल‍िए धान की एक नई क‍िस्म उम्मीद की नई क‍िरण बनकर उभर रही है. यह किस्म पंजाब में गिरते भू-जल स्तर को रोकने और उपज में संतुलन बनाए रखने के ल‍िए वरदान साबित हो सकती है. इस क‍िस्म का नाम है पीआर-126. इस वैराइटी को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने खेती के लिए 2017 में र‍िलीज करवाया था. दरअसल, इस क‍िस्म में पूसा-44 धान की वैराइटी को र‍िप्लेस करने की पूरी क्षमता है. पूसा-44 सबसे ज्यादा लंबी अवध‍ि की क‍िस्म है, ज‍िसमें पानी की खपत ज्यादा होती है. हालांक‍ि यह ज्यादा पैदावार की वजह से पंजाब का सबसे लोकप्र‍िय गैर बासमती धान है. फ‍िर भी इसे जल संकट बढ़ाने का ज‍िम्मेदार मानते हुए राज्य सरकार ने अगले साल से आध‍िकार‍िक तौर पर इसकी बुवाई प्रत‍िबंध‍ित कर दी है. 

पूसा-44 को तैयार होने में 145 से 150 द‍िन का वक्त लगता है. दरअसल, धान की फसल औसतन चार महीने यानी 120 द‍िन में तैयार हो जाती है. इसमें नर्सरी से लेकर कटाई तक का वक्त शाम‍िल होता है. लेक‍िन पूसा-44 को तैयार होने में 145 से 150 द‍िन का वक्त लगता है. इसल‍िए इसमें पानी की खपत ज्यादा होती है. जो क‍िस्म ज‍ितने अध‍िक द‍िन खेत में रहती है उसमें पानी का खर्च ज्यादा होता है. अब दूसरी ओर, पीआर-126 इसल‍िए इसके व‍िकल्प के तौर पर उभर रही है क्योंक‍ि 115 से 120 दिनों में ही पक जाती है. रोपाई के बाद इसे पकने में लगभग 93 दिन ही लगता है. इसका पूरा नाम पंजाब राइस-126 है.यह वैराइटी समय, पानी और पैसे की बचत करेगी. जब समय कम लगेगा तो पराली की समस्या भी कम हो सकती है. 

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इस तरह खत्म होगा पूसा-44 का जलवा

पीआर-126 की वैराइटी पूसा-44 से एक महीना कम और अन्य किस्मों की तुलना में 2-3 सप्ताह कम समय लेती है. इस साल जुलाई और अगस्त में बाढ़ से बेहाल रहे पंजाब के क‍िसानों के ल‍िए यही वैराइटी सहारा बनकर उभरी है. पूसा-44 वैराइटी को लंबी अवध‍ि के बावजूद क‍िसान इसल‍िए अपनाते थे क्योंक‍ि इसमें पैदावार बहुत अच्छी है. करीब 35 से 40 क्व‍िंटल प्रत‍ि एकड़ उत्पादन की वजह से ही इस वैराइटी का पंजाब में जलवा था. लेक‍िन पीआर-126 अन्य खूबियों के अलावा उत्पादन के मामले में भी बादशाह साब‍ित हुई है. इसकी उपज प्रत‍ि एकड़ 25 से 37 क्विंटल के बीच है. इसल‍िए अब यह पंजाब के क‍िसानों के बीच काफी लोकप्र‍िय हो रही है.

वंडर सीड की दी जा रही संज्ञा

पीआर-126 किस्म फसल जल्दी तैयार हो जाती है, जिससे उनकी इनपुट लागत कम हो जाती है और कटाई के बाद वे कम अवशेष छोड़ते हैं. धान की अन्य किस्मों की तुलना में 20 फीसदी कम सिंचाई में ही यह किस्म तैयार हो जाती है. जुलाई और अगस्त में बाढ़ आने के बाद, कई किसानों ने बुआई के लिए गैर-बासमती धान की पीआर 126 किस्म का विकल्प चुना. इसकी खास‍ियत की वजह से ही इसे पंजाब में 'वंडर सीड' की संज्ञा दी जा रही है.  

पीआर-126 ही क्यों?

सवाल यह है क‍ि पीआर-126 को कि‍सान क्यों चुनें? दरअसल, बढ़ते जल संकट के बीच अब क‍िसानों पर उन क‍िस्मों का चुनाव करने का दबाव बन रहा है जो कम अवध‍ि की हों. इससे पराली की समस्या का भी काफी हद तक समाधान होगा और पानी के बढ़ते संकट पर भी कंट्रोल होगा. बताया जा रहा है क‍ि PUSA-44 का एक किलोग्राम चावल पैदा करने के ल‍िए 5,000 से 6,000 लीटर पानी की खपत होती है. लेकिन कम समय में पकने वाली किस्म PR-126 में 3000 से 4,000 लीटर पानी का उपयोग होता है. पंजाब के विशेषज्ञों के अनुसार, पीआर-126 का क्षेत्र पिछले साल के लगभग 22 फीसदी से बढ़कर इस बार 29 प्रतिशत था. इसी तरह 17 प्रतिशत पूसा 44 के तहत था. पीआर 126 की पैदावार पूसा 44 के बराबर थी, जिससे पंजाब में उत्पादकता हाई रही है.  

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दोनों परमल कैटेगरी के चावल 

पूसा-44 परमल कैटेगरी का चावल है. दूसरी ओर PR-126 धान भी परमल कैटेगरी का ही चावल है. लेक‍िन खास‍ियत यह है क‍ि यह जल्दी पकने वाली धान की किस्म है. इसील‍िए यह बाढ़ के दौरान पंजाब के क‍िसानों का सहारा बन गई. बाढ़ के बाद दोबारा रोपाई की वजह से जो देरी हुई उसे इसने इसील‍िए कवर कर ल‍िया. पीआर 126 कीटों और बीमारियों से बच जाती है, जिससे खेती की लागत कम होती है.  

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