जैसलमेर में काफी लंबे समय से ग्रामीण ओरणों यानी चारागाहों को राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज कराने की मांग कर रहे थे. अब इनके संघर्ष की एक छोटी सी जीत हुई है. दरअसल, राजस्व विभाग ने दो दिन पहले एक आदेश जारी कर देगराय ओरण की छह हजार बीघा ओरण भूमि को राजस्व रिकॉर्ड कर दिया है. देगराय ओरण करीब 60 हजार बीघे में फैला हुआ है. इसमे से सिर्फ 24 हजार बीघा ही राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज था. सांवता गांव के आसपास छह हजार बीघा को सरकार ने रिकॉर्ड में शामिल कर लिया है. इस तरह अब आधी जमीन राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज हो गई है. यह भू-राजस्व अधिनियम 1956 की धारा 92 के तहत आरक्षित किया गया है.
बता दें कि किसान तक ने समय-समय पर इस संबंध में खबरें प्रकाशित की थीं. सांवता गांव के रहने वाले और इस संघर्ष में शुरू से जुड़े सुमेर सिंह कहते हैं, “ये हमारी लड़ाई की एक छोटी सी जीत है. अभी पूरे देगराय ओरण की बाकी बची जमीन को भी रेवेन्यू रिकॉर्ड में दर्ज कराना है. इस लड़ाई में स्थानीय लोग, पर्यावरण प्रेमी, मीडिया का सहयोग रहा. साथ ही स्थानीय विधायक रूपाराम धनदे ने भी प्रयास किए.”
सांवता गांव में देगराय ओरण के राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज होने के बाद यहां की मवेशी खासकर बकरी और ऊंटों को चरने के लिए एक जगह मिल गई है. इसमें अब किसी भी तरह का पक्का निर्माण नहीं हो सकेगा. साथ ही इसकी जमीन को किसी और काम के लिए अलॉट नहीं किया जा सकेगा.
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जैसलमेर में ओरण बचाओ समिति के सचिव दुर्जन सिंह किसान तक को इस संघर्ष की जड़ तक ले जाते हैं. बताते हैं, “आजादी के बाद जमीनों की पैमाइश हुई तो ओरणों की जमीन सिवायचक यानी सरकारी जमीन के रूप में दर्ज हो गईं. जागरूकता के अभाव में ग्रामीण इस बात की गंभीरता को नहीं समझ पाए कि बाद में यही समस्या की जड़ बनेगा. 2000 के दशक में यहां सोलर कंपनियों को जमीन अलॉट होने लगीं. ओरण की जमीनों पर सोलर प्लांट खड़े होने लगे तो पता चला कि अधिकतर ओरण राजस्व भूमि में दर्ज नहीं हैं. जो हैं, उनकी पूरी जमीन ओरण के रूप में नहीं दिखाई गई है. इसीलिए 2010 के बाद से इस क्षेत्र में संघर्ष बढ़ा है.”
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वहीं, पर्यावरणविद् और थार को समझने वाले पार्थ जगाणी कहते हैं, “राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज कराने का एक लंबी प्रक्रिया और संघर्ष है. इसीलिए हमने युवाओं को ध्यान में रखते हुए ओरण जागरूकता कार्यक्रम शुरू किए हैं. बीते चार साल में इस छोटी शुरूआत ने बड़ा फलक बना लिया है. अब तक ओरण बचाओ अभियान के तहत हजारों लोग 800 किमी पदयात्रा कर चुके हैं. आसपास के 150 से अधिक गांवों में ओरण बचाओ यात्राएं निकाली जा चुकी हैं. ओरणों में वृक्षारोपण कार्यक्रम शुरू किए गए हैं."
जैसलमेर में रहने वाले पर्यावरणविद् और थार को समझने वाले पार्थ जगाणी कहते हैं, “रेगिस्तान की जरूरत पानी और चारे की थी. इसीलिए हमारे बुजुर्गों ने तालाब बनाए. बेरी बनाईं और पशुओं के चरने के लिए ओरण यानी एक जंगलनुमा चारागाह विकसित किए. इन ओरणों में इंसान को पेड़ों के पत्ते तक तोड़ने की इजाज़त नहीं है. पेड़ों से टूटकर गिरे फल और लकड़ियों को ही लोग अपने काम में ले सकते हैं. किसी भी जानवर का शिकार नहीं किया जाएगा.
बुजुर्गों इन ओरणों को किसी ना किसी स्थानीय लोक देवता के साथ जोड़ा गया ताकि इनका संरक्षण हो सके. इसीलिए जैसलमेर सहित पूरे पश्चिमी राजस्थान में ओरण संरक्षण धार्मिक, सामाजिक मान्यता-नियम के साथ-साथ अध्यात्मिक कर्तव्य के रूप में देखा जाता है. यही वजह है कि आज भी पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर और जोधपुर में बड़ी संख्या में ओरण बचे हुए हैं.”
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