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भारत में इस जगह गाय-भैंस को म‍िलता है वीकली ऑफ, उस दि‍न दूध भी नहीं न‍िकाला जाता

भारत में इस जगह गाय-भैंस को म‍िलता है वीकली ऑफ, उस दि‍न दूध भी नहीं न‍िकाला जाता

झारखंड में गाय और भैंस को वीकली ऑफ द‍िया जाता है. कुल म‍िलाकर इस दिन गाय-भैसों की बल्ले बल्ले होती है. क्योंकि इस दिन उन्हें पूरा आराम दिया जाता है और साथ में अच्छा खाना भी दिया जाता है.

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गौशाला में खड़ी गाय         फोटोः किसान तक गौशाला में खड़ी गाय फोटोः किसान तक

देश के व‍िकास में पशुओं का हमेशा से योगदान रहा है. पशुपालन और कृषि एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं. गाय-बैल जैसे मवेशी सदियों से हमारी संस्कृति का हिस्सा रहे हैं, क्योंकि कृषि कार्य से लेकर भोजन तक की व्यवस्था करने में मवेशियों का सहयोग हमें मिलता रहा है. इसलिए हमारी संस्कृति में पशुओं की पूजा करने की परांपरा है. दिवाली समेत कई त्योहारों में पशुओं को अच्छा भोजन खिलाया जाता है और उनकी पूजा की जाती है. झारखंड के लातेहार जिले के गांवों में इस परंपरा का निर्वहन आज भी बखूबी किया जा रहा है. क्योंकि यहां पर मवेशियों को सप्ताह में एक दिन की छुट्टी दी जाती है. उस द‍िन गाय और भैंस से दूध भी नहीं न‍िकाला जाता है.     

रव‍िवार को रहता है वीक ऑफ

लातेहार जिले के 20 गांवों में रव‍िवार के द‍िन गाय और भैंस को वीक ऑफ देने की परपंरा चली आ रही है. इस दिन गायों और भैसों का दूध नहीं भी नहीं निकाला जाता है. रविवार का दिन ऐसा होता है जब इस दिन गाय-भैसों की बल्ले बल्ले होती है. क्योंकि इस दिन उन्हें पूरा आराम दिया जाता है और साथ में अच्छा खाना भी दिया जाता है. जिले के पशुपालन विभाग के कर्मी राजकुमार बताते हैं कि इस दिन कितना भी जरूरी काम हो किसान मवेशियों से काम नहीं लेते हैं. भले ही इसके बदले में वो खुद से सी खुदाई का काम कर लेते हैं. 

मवेशियों को मिलता है आराम

राजकुमार बताते हैं कि जिले में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है. सनातन धर्म में गाय और बैल पूजनीय है इसलिए हमेशा से ही इनकी पूजा होती रही है. लातेहार के गांवों की परंपरा को देखते हुए अब अन्य गांवों के अलावा सीमावर्ती बिहार के गांवों के किसान भी इस परंपरा को अपना रहे हैं. उन्होंने कहा कि यह एक बेहतरीन परंपरा है, क्योंकि लगातार काम करने के बाद तनाव के कारण पशु बीमार पड़ सकते हैं पर एक दिन के आराम से उन्हें काफी राहत मिलती है और वो स्वस्थ रहते हैं. इसका लाभ किसानों को ही मिलता है. 

इसलिए शुरू हुई यह परंपरा

इस परंपरा के शुरू होने के पीछे एक बेहद की दर्दनाक कहानी है. स्थानीय बताते हैं कि करीब 100 साल पहले एक किसान अपने बैलों की मदद से खेतों में जुताई कर रहा था, इस दौरान अचानक उसके बैल खेत में काम करते करते बेहोश हो गए और एक बैल की मौत हो गई. गांव में हुई घटना से किसानों को बड़ा आघात पहुंचा और इस सभी ने मिलकर इस समस्या का हल निकालने पर चर्चा की. इसके बाद यह तय किया गया की सप्ताह में एक दिन पालतू पशुओं को छुट्टी दी जाएगी, उनसे किसी प्रकार का काम नहीं लिया जाएगा. तब से लेकर आज तक यह परंपरा जारी है.