राजस्थान के करौली में कभी बंदूकों की गूंज सुनाई देती थी. इस इलाके में डाकुओं का नाम सुनते ही लोग कांप उठते थे. लेकिन समय ने करवट ली और बदलाव की शुरुआत हुई. जो हाथ कल तक बंदूकें थामे खड़े थे, आज वही हाथ हल चला रहे हैं, जमीन जोत रहे हैं और लोगों की थाली में सरसों, गेहूं और बाजरे की खुशबूदार फसलें परोस रहे हैं. इस बदलाव के पीछे हैं परिवार की वो साहसी महिलाएं जो कभी डर के साए में जीने को मजबूर थीं.
करीब 15 साल पहले तक राजस्थान के करौली जिले में संपत्ति देवी और उनके जैसी कई महिलाएं लगातार डर के साये में जीने को मजबूर थीं. उन्हें डर लगता था कि क्या होगा अगर किसी दिन उनके पति घर वापस नहीं लौटे तो. लगातार सूखे, जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश में कमी के चलते उनकी जमीन बंजर हो गई थी. पानी के स्रोत सूख गए जिससे कृषि और पशुपालन भी एकदम पंगु हो गए जबकि यही उनकी इनकम का जरिया थे. जीवित रहने का कोई और रास्ता न होने की वजह से यहां के कई पुरुष डकैती करने के लिए मजबूर हो गए. ये पुलिस से बचने के लिए हर दिन जंगलों में छिपते और अपनी जान जोखिम में डालते थे.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, करौली में साल 1951 से 2000 के बीच औसत वार्षिक वर्षा 722.1 मिमी थी. जबकि 2001 से 2011 के बीच में इसमें कमी आई और यह 563.94 मिमी हो गई. इसके बाद यहां की महिलाओं ने साथ मिलकर पुराने, सूख चुके तालाबों को फिर से जिंदा किया. इसके लिए उन्होंने सन् 1975 से जल संरक्षण के लिए समर्पित अलवर स्थित एक एनजीओ तरुण भारत संघ (टीबीएस) की मदद से नए तालाब का निर्माण शुरू किया. 58 साल की संपत्ति देवी के पति जगदीश याद करते हैं, 'मैं अब तक मर चुका होता. उन्होंने मुझे वापस आकर फिर से खेती करने के लिए राजी किया.' जगदीश ने अपने हथियार डालकर शांति का रास्ता चुना. दूध बेचकर वर्षों में कमाए गए हर पैसे को इकट्ठा करके उन्होंने साल 2015-16 में अपने गांव आलमपुर के पास एक पहाड़ी की तलहटी में एक पोखर बनाया. जब बारिश हुई, तो पोखर भर गया और कई सालों में पहली बार उनके परिवार के पास इतना पानी था कि वे लंबे समय तक जीवित रह सकें.
पोखर के तटबंध पर गर्व से बैठी संपत्ति देवी ने न्यूज एजेंसी पीटीआई को बताया, 'अब हम सरसों, गेहूं, बाजरा और सब्जियां उगाते हैं.' वह इसे सिंघाड़े की खेती के लिए किराए पर भी देती हैं जिससे हर सीजन में उन्हें करीब एक लाख रुपये की कमाई होती है. पिछले कुछ सालों में, आस-पास के जंगल में 16 ऐसे पोखर बनाए गए हैं जिनमें हर ढलानों से बहता पानी इकट्ठा होता है. अब डीजल पंप खेतों की सिंचाई के लिए पानी उठाते हैं. राजस्थान के सबसे ज्यादा प्रभावित डकैतों वाले इलाकों में से एक करौली में बदलाव देखने को मिला है. करौली के पुलिस अधीक्षक बृजेश ज्योति उपाध्याय कहते हैं, 'पानी के साथ स्थिरता लौट रही है.' समुदाय के नेतृत्व में जल संरक्षण ने भूजल को फिर से जिंदा किया है और खेती के अवसरों को फिर से बढ़ाया.
गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर और राजस्थान के मूल निवासी सुमित डूकिया कहते हैं कि चंबल क्षेत्र की चट्टानी भूमि बारिश के पानी के बहाव को तेज करती है, जिससे भूजल पुनर्भरण सीमित हो जाता है. उनका कहना है कि इसी तरह के बदलाव उत्तर प्रदेश के इटावा में भी हुए हैं, जहां पूर्व डकैत खेती करने लौट आए हैं. करौली में, संरक्षण की इस लहर ने सेरनी को, जो कभी मौसमी नदी थी, अब बारहमासी नदी में बदल दिया है. महज एक दशक पहले, दिवाली के बाद नदी सूख जाती थी, जिससे लोग पानी के लिए बेताब हो जाते थे.
भूरखेड़ा के ही 60 वर्षीय लज्जा राम ने स्वीकार किया कि वह हताशा के कारण डकैती करने लगे थे. उन्होंने बताया कि उनके पिता एक किसान थे. उनके समय में पर्याप्त पानी था. लेकिन जैसे-जैसे वह बड़े हुए, बारिश कम होती गई, कुएं सूख गए और खेती करना असंभव हो गया. लज्जा राम के खिलाफ कभी 40 आपराधिक मामले थे.उनकी मानें तो यह उनकी बहन ही थीं जिन्होंने आखिरकार उन्हें आत्मसमर्पण करने और जल संरक्षण प्रयासों में शामिल होने के लिए राजी किया. अब वह अपनी 10 बीघा जमीन पर गेहूं, सरसों, चना और बाजरा उगाते हैं. उनके पास आठ भैंसे और कई बकरियां हैं और उनके पास खाने के लिए पर्याप्त है. वह कहते हैं, 'अब आनंद है.'
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