
भारत के पहाड़ी इलाकों, विशेषकर जम्मू और कश्मीर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर भारत जैसे राज्यों में खेती करना मैदानी इलाकों की तुलना में बहुत कठिन होता है. यहां खेत छोटे होते हैं, जमीन ऊबड़-खाबड़ होती है और सीढ़ीदार खेतों तक बड़े ट्रैक्टरों का पहुंचना करीब नामुमकिन होता है. जम्मू के राजौरी जिले के लंगेर गांव के रहने वाले परवीन कुमार ने इस समस्या को बहुत करीब से देखा. मात्र दसवीं कक्षा तक पढ़े परवीन के पास 18 साल का खेती का लंबा अनुभव है. उन्होंने महसूस किया कि पहाड़ पर किसानों को जुताई के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है और पारंपरिक तरीके अब महंगे साबित हो रहे हैं. इसी सोच के साथ, उन्होंने ठान लिया कि वे अपने अनुभव का इस्तेमाल करके एक ऐसी मशीन तैयार करेंगे जो न केवल छोटे और टेढ़े-मेढ़े खेतों में आसानी से चल सके, बल्कि किसान का खर्चा भी कम करे.
परवीन कुमार ने बाजार में मिलने वाले साधारण डीजल को ज्यों का त्यों इस्तेमाल करने के बजाय, उसे अपनी जरूरतों के हिसाब से 'मॉडिफाई' करने का फैसला किया. उन्होंने मशीन के इंजन और ढांचे में कुछ ऐसे तकनीकी बदलाव किए जो पहाड़ी मिट्टी के लिए वरदान साबित हुए. उन्होंने हल की 'चेसिस' और ब्लेड की बनावट को इस तरह बदला कि यह संकरे और छोटे खेतों में भी आसानी से घूम सके. अक्सर पहाड़ों में भारी मशीनें पलट जाती हैं या कोनों तक नहीं पहुंच पातीं, लेकिन परवीन का यह मॉडिफाइड हल खेत के हर कोने की जुताई करने में सक्षम है. यह इइनोवेशन किसी बड़ी इंजीनियरिंग डिग्री का नहीं, बल्कि 18 साल के जमीनी अनुभव का नतीजा है, जिसने एक साधारण मशीन को पहाड़ी खेती के लिए एक विशेष यंत्र बना दिया.
आज के दौर में खेती की लागत बढ़ने का सबसे बड़ा कारण डीजल की बढ़ती कीमतें हैं. परवीन कुमार के इस नवाचार की सबसे बड़ी खासियत इसकी ईंधन दक्षता है. उन्होंने इंजन में जो संशोधन किए हैं, उससे डीजल की खपत में 10 से 15 प्रतिशत तक की कमी आई है. एक छोटे किसान के लिए यह बचत बहुत मायने रखती है. इसके अलावा, यह हल मिट्टी की गहरी जुताई करता है और मिट्टी को इतना भुरभुरा बना देता है कि फसल की जड़ें आसानी से फैल सकें. यह मशीन अलग-अलग तरह की मिट्टी और ढलान वाली जमीनों पर भी बेहतरीन काम करती है. जहां पहले जुताई में ज्यादा तेल लगता था और काम कम होता था, वहीं अब किसान कम खर्च में अपने खेत को बुवाई के लिए बेहतर तरीके से तैयार कर पा रहे हैं.
पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में खेती अक्सर बिखरी हुई जोत पर निर्भर होती है. ऐसे में परवीन कुमार का यह मॉडिफाइड हल किसानों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है. इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे समय की भारी बचत होती है. जो काम बैलों या मजदूरों के जरिए कई दिनों में होता था, वह अब कुछ ही घंटों में हो जाता है. इससे न केवल डीजल का पैसा बचता है, बल्कि मजदूरों की समस्या भी हल हो जाती है. यह मशीन इतनी सुगमता से चलती है कि किसान इसे बिना ज्यादा थकान के चला सकते हैं. बेहतर जुताई का सीधा असर फसल की पैदावार पर पड़ता है, जिससे किसानों की आमदनी बढ़ने की संभावना भी बढ़ जाती है. यह तकनीक पहाड़ के उन छोटे किसानों के लिए आशा की किरण है जो महंगे कृषि यंत्र नहीं खरीद सकते.
परवीन कुमार का यह प्रयास सिर्फ राजौरी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें पूरे भारत के पहाड़ी और दुर्गम इलाकों की खेती को बदलने की क्षमता है. यह इनोवेशन साबित करता है कि स्थानीय समस्याओं का समाधान स्थानीय स्तर पर ही खोजा जा सकता है. हालांकि, इस तकनीक को बड़े पैमाने पर किसानों तक पहुंचाने के लिए अभी वैज्ञानिक मान्यता की जरूरत है. अगर इसके ईंधन की बचत और यांत्रिक विश्वसनीयता के सफल ट्रायल हो जाते हैं, तो यह मशीन हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर भारत के किसानों के लिए एक गेम-चेंजर साबित हो सकती है. परवीन कुमार जैसे प्रगतिशील किसान यह दिखाते हैं कि अगर इरादे मजबूत हों, तो कम संसाधनों में भी बड़ा बदलाव लाया जा सकता है.
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