
एक तो किसान पहले ही खेती में इन दिनों कई तरह की चुनौतियों से जूझ रहे हैं और उस पर से क्लाइमेट चेंज ने उनके सामने एक नया चैलेंज पेश कर दिया है. कर्नाटक में किसानों को मौसम के अनुसार से अब खेती के लिए माहौल बनाना पड़ रहा है. एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य में खेती के तरीके में एक बड़े बदलाव के लिए तैयार की जा रही है ताकि मौसम को समझा जा सके. करीब चार दशकों में पहली बार, राज्य अपने 10 एग्रो-क्लाइमैटिक जोन पर फिर से विचार कर रहा है और उन्हें फिर से परिभाषित कर रहा है. यह एक पुराना फ्रेमवर्क है जिसने लंबे समय से किसानों को यह बताया है कि क्या उगाना है, कब बोना है, और कैसे सिंचाई करनी है. यह काम ऐसे समय में हो रहा है जब क्लाइमेट पैटर्न का अंदाजा लगाना मुश्किल होता जा रहा है.
अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार ऐसे जोन जिन्हें पहले बारिश, मिट्टी के प्रकार, ऊंचाई, टोपोग्राफी, मुख्य फसलों और सिंचाई के तरीकों के आधार पर मैप किया गया था, अब उन्हें तेजी से गर्म होती दुनिया के अनुकूल बनाने के लिए फिर से परखा जा रहा है. यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज, रायचूर के पूर्व वाइस-चांसलर बीवी पाटिल की अगुवाई वाली एक हाई-लेवल कमेटी इस मसले पर पहले ही चार बार मीटिंग कर चुकी है. इस पैनल में एग्रीकल्चरल साइंटिस्ट्स, वाइस-चांसलर, और मौसम विज्ञान विभाग, इसरो कर्नाटक स्टेट नेचुरल डिजास्टर मॉनिटरिंग सेंटर, ग्राउंडवाटर बोर्ड, कर्नाटक स्टेट रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशंस सेंटर (KSRSAC) और नेशनल ब्यूरो ऑफ सॉइल सर्वे एंड लैंड यूज प्लानिंग के प्रतिनिधि शामिल हैं.
एग्रीकल्चर के एडिशनल डायरेक्टर सीबी बालारेड्डी ने कहा कि अगली मीटिंग जल्द ही होने की उम्मीद है. KSRSAC अभी क्रॉपिंग सिस्टम और मौसम के ट्रेंड पर 30 से ज्यादा सालों के डेटा का एनालिसिस कर रहा है ताकि री-डिलीयनेशन में मदद मिल सके. माना जा रहा है कि जनवरी 2026 तक इसकी रिपोर्ट आ सकती है. यह बदलाव 2025-26 के राज्य बजट से भी मेल खाता है. इसमें किसानों के डेमॉन्स्ट्रेशन के लिए रायतु समृद्धि योजना के तहत हर एग्रो-क्लाइमैटिक जोन में ट्रायल किए जाने वाले एक इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम मॉडल पर जोर दिया गया है. एग्रीकल्चर डिप्टी डायरेक्टर मंजू एसी ने कहा कि नई सीमाओं से सलाह और बेहतर हो पाएगी. उन्होंने बताया कि उत्तरी अंदरूनी कर्नाटक में भारी बारिश के दिनों में तेजी से बढ़ोतरी देखी जा रही है.
नए ब्लूप्रिंट के साथ किसानों को ठीक-ठीक सलाह दी जा सकेगी कि लोबिया और मूंग (60 दिनों में कटाई) जैसी कम समय की फसलें और लाल मूंग (160 दिन) जैसी लंबे समय की फसलें बारिश के दिनों और मिट्टी की नमी के आधार पर कहाँ सबसे अच्छी रहेंगी. अधिकारियों ने माना कि मौसम के असर की रियल-टाइम मैपिंग मौजूदा फसल पैटर्न को बदल देगी. वहीं बालारेड्डी का कहना था कि केंद्रीय प्रोत्साहनों के बावजूद, किसान पहले से ही क्लाइमेट-रेजिलिएंट फसलों की ओर बढ़ रहे हैं, ज्यादा मक्का और सुपारी, और कम सूरजमुखी. उन्होंने कहा कि भविष्य में मजबूत बाजरा और दालें खेतों में हावी होने की संभावना है.
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