HAU के वैज्ञानिकों ने पहली बार ढूढ़ा कपास में फ्यूजेरियम विल्ट रेस-4, फसल के लिए कैंसर है यह बीमारी 

HAU के वैज्ञानिकों ने पहली बार ढूढ़ा कपास में फ्यूजेरियम विल्ट रेस-4, फसल के लिए कैंसर है यह बीमारी 

फ्यूजेरियम विल्ट एक मिट्टी में होने वाला फफूंदजनित रोग है, जिसे Fusarium oxysporum f.sp. vasinfectum नामक फंगस पैदा करता है. यह रोग पौधे की जड़ों के जरिए प्रवेश करता है और उसकी नसों में फैलकर पोषक तत्वों और पानी की आपूर्ति रोक देता है. आसान भाषा में कहें तो फ्यूजेरियम विल्ट रेस-4 कपास की फसल के लिए कैंसर जैसी बीमारी है, जो एक बार खेत में आ जाए तो लंबे समय तक बनी रहती है.

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क‍िसान तक
  • New Delhi ,
  • Sep 01, 2025,
  • Updated Sep 01, 2025, 2:28 PM IST

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय (HAU) के वैज्ञानिकों ने कपास की फसल में एक बड़ी वैज्ञानिक खोज की है. अब तक देसी कपास (डिप्लॉयड) को प्रभावित करने वाला फ्यूजेरियम विल्ट रोग (रेस-4) अब अमेरिकन कपास (टेट्राप्लॉयड) में भी पाया गया है. यह पहली बार है जब टेट्राप्लॉयड कपास में इस बीमारी का प्रकोप दर्ज किया गया है. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी.आर. काम्बोज के निर्देशानुसार वैज्ञानिकों ने इस रोग के प्रबंधन का कार्य शुरू कर दिया है वे जल्द ही इस दिशा में कामयाब होंगे. 

किसानों के लिए बड़ी चुनौती 

आसान भाषा में कहें तो फ्यूजेरियम विल्ट रेस-4 कपास की फसल के लिए कैंसर जैसी बीमारी है, जो एक बार खेत में आ जाए तो लंबे समय तक बनी रहती है. यही वजह है कि वैज्ञानिकों की यह खोज इतनी महत्वपूर्ण मानी जा रही है. चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की इस महत्वपूर्ण खोज को अमेरिकन फाइटोपैथोलॉजिकल सोसायटी ने अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर मान्यता प्रदान की है. इस खोज को इतना महत्वपूर्ण माना गया है कि इसे प्रतिष्ठित ‘प्लांट डिजीज जर्नल’ में फर्स्‍ट रिसर्च रिपोर्ट के तौर पर पब्लिश किया गया है. कुलपति प्रो. बी.आर. काम्बोज ने वैज्ञानिकों को इस खोज पर बधाई देते हुए कहा कि बदलते समय में कृषि फसलों पर बढ़ते खतरों की समय रहते पहचान करना बेहद आवश्यक है.  उन्होंने निर्देश दिए कि इस रोग की लगातार निगरानी की जाए और इसकी रोकथाम के लिए कारगर उपाय जल्द तैयार किए जाएं. 

क्या है फ्यूजेरियम विल्ट रेस-4?

फ्यूजेरियम विल्ट एक मिट्टी में होने वाला फफूंदजनित रोग है, जिसे Fusarium oxysporum f.sp. vasinfectum नामक फंगस पैदा करता है. यह रोग पौधे की जड़ों के जरिए प्रवेश करता है और उसकी नसों में फैलकर पोषक तत्वों और पानी की आपूर्ति रोक देता है. नतीजा यह होता है कि पौधे धीरे-धीरे मुरझाने लगते हैं और आखिरी में सूख जाते हैं. रेस-4 इसका सबसे खतरनाक रूप है, जो अब तक देसी कपास तक सीमित था. इसमें पौधों की पत्तियां पीली होकर झड़ने लगती हैं, तना काला पड़ जाता है और पौधा समय से पहले मर जाता है. इस वजह से किसान की पूरी फसल नष्ट हो सकती है. 

इस रोग के कारण फसल की उपज 30 से 50 फीसदी तक  घट सकती है. कभी-कभी तो पूरी फसल ही बर्बाद हो जाती है. यह रोग तेजी से फैलता है, खासकर अधिक नमी और खराब जल निकासी वाले खेतों में. फसल पूरी तरह से चौपट हो जाती है और ऐसे में इससे किसानों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. 

क्यों है यह खोज महत्वपूर्ण?

हकृवि के वैज्ञानिकों की इस खोज को अमेरिकन फाइटोपैथोलॉजिकल सोसायटी ने मान्यता दी है और इसे विश्व के प्रतिष्ठित प्लांट डिज़ीज़ जर्नल में शोध रिपोर्ट के रूप में प्रकाशित किया गया है.  यह उपलब्धि न केवल भारतीय वैज्ञानिकों की क्षमता को दर्शाती है बल्कि भारत को इस दिशा में अग्रणी शोधकर्ता का दर्जा भी दिलाती है. भारत कपास उत्पादन में दुनिया के अग्रणी देशों में से एक है. फ्यूजेरियम विल्ट जैसी बीमारियां न केवल किसानों की आमदनी पर असर डाल सकती हैं, बल्कि निर्यात और वस्त्र उद्योग पर भी इसका सीधा प्रभाव पड़ सकता है.  

अग यह रोग नियंत्रण से बाहर हो गया, तो कपास की पैदावार और गुणवत्ता दोनों प्रभावित हो सकती हैं. कुल मिलाकर, फ्यूजेरियम विल्ट रेस-4 का अमेरिकन कपास में मिलना भारतीय कृषि जगत के लिए चेतावनी है. हालांकि, हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने इस दिशा में प्रबंधन की कोशिशें तेज कर दी हैं और उम्मीद जताई है कि जल्द ही इसका प्रभावी समाधान किसानों को उपलब्ध कराया जाएगा. 

रोकथाम और भविष्य की तैयारी

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी.आर. काम्बोज ने वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए कहा कि बदलती जलवायु और कृषि चुनौतियों के बीच समय रहते रोगों की पहचान करना बेहद जरूरी है. उन्होंने इस बीमारी की निगरानी और प्रबंधन पर जोर दिया. इस रिसर्च का नेतृत्व डॉ. अनिल कुमार सैनी ने किया, जिनके साथ डॉ. जगदीप सिंह, डॉ. करमल सिंह, डॉ. सतीश कुमार सैन, डॉ. अनिल जाखड़, डॉ. शिवानी मंधानिया, डॉ. शुभम लाम्बा, डॉ. दीपक कंबोज, डॉ. सोमवीर निंबल, डॉ. मीनाक्षी देवी, डॉ. संदीप कुमार और पीएचडी छात्र डॉ. शुभम सैनी का भी अहम योगदान रहा. 

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