इन दिनों केंद्र सरकार की नई कृषि मार्केटिंग पॉलिसी के ड्राफ्ट को लेकर बवाल मचा हुआ है. पंजाब में किसान से लेकर आढ़तिए और यहां तक कि मिलर्स भी इसका विरोध कर रहे हैं. अब भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के प्रमुख गुरनाम सिंह चढूनी ने कृषि विपणन (बाजार) पर राष्ट्रीय नीति ढांचा प्रारूप समिति के अध्यक्ष फैज अहमद किदवई को एक पत्र लिखकर कृषि मार्केटिंग राष्ट्रीय नीति पर आपत्ति जताई है. अपने पत्र में चढूनी ने इस मसौदा नीति का कड़े शब्दों में विरोध जताया है और इस पर सरकार से विचार करने की अपील की है. आइए जान लेते हैं कि चढ़ूनी ने अपने पत्र में क्या लिखा है.
''सार्वजनिक सुझावों के लिए केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रसारित "कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति ड्राफ्ट" किसानों के हितों की बलि चढ़ाने की साजिश और कॉर्पोरेट्स के मुनाफे के बारे में है. इससे छोटे उत्पादकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और उन्हें कृषि से बाहर कर दिया जाएगा. हम इस नीति ढांचे को तुरंत वापस लेने की मांग करते हैं.
इस तथ्य के अनुसार कि संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत कृषि विपणन एक राज्य का विषय है, मसौदे की भावना राज्य सरकारों की शक्ति को खत्म करना और राज्य समर्थित बाजार बुनियादी ढांचे को खत्म करना और एपीएमसी (मंडियो) की भूमिका को खत्म करना है, जिससे छोटे और मध्यम किसानों को भारी नुकसान होगा. अत्यधिक असुरक्षित निजी व्यापारिक कॉरपोरेट द्वारा शोषण होगा.
मसौदे में प्रस्ताव है कि बड़े निगम एपीएमसी (मंडियों) (बाजार यार्डों) को दरकिनार करते हुए सीधे किसानों से उपज खरीद सकते हैं, जिससे खरीददारों में होने वाला मुक़ाबला ख़त्म हो जाएगा. इसके अतिरिक्त, भंडारण के बुनियादी ढांचे को निजी निगमों को सौंपने से मूल्य अस्थिरता के दौरान किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण सुरक्षा जाल खत्म हो जाता है और किसानों को फसल कीमतों पर सौदेबाजी के लिए कोई जगह नहीं मिलने से कॉर्पोरेट को शोषण की सुविधा मिलेगी.
कॉर्पोरेट बड़ा व्यवसाय पूरी तरह से एमएसपी (MSP) के खिलाफ है, क्योंकि इसकी रणनीति सबसे सस्ती दर पर उपज खरीदना, मूल्य संवर्धन करना, ब्रांड बनाना और अत्यधिक मुनाफा सुनिश्चित करके उसका बाजारीकरण करना है. इस तरह बड़े व्यवसाय किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं का भी शोषण करेंगे, जोकि देश हित व जनहित में नहीं है. यह मसौदा बाजार दक्षता के नाम पर केंद्र कृषि की कॉर्पोरेट लूट के लिए अनुकूल माहौल बना रहा है.
मसौदे में कॉर्पोरेट उद्योगों और व्यापारियों को उनके द्वारा आपूर्ति किए गए कच्चे उत्पादों के लिए लाभकारी मूल्य के रूप में प्राथमिक उत्पादकों के साथ हड़पे गए अधिशेष का एक निश्चित प्रतिशत साझा करने के लिए उत्तरदायी बनाने के लिए एक नियामक खंड शामिल नहीं है. इस प्रकार केन्द्र सरकार कॉर्पोरेट हितों के सामने आत्मसमर्पण कर रही है, इन नीतियों से किसानों की आत्महत्या और ऋणग्रस्तता को बढ़ावा दे रही है और किसानों को कंगाल होने में मदद कर रही है.
मसौदे में राज्यों को राज्य एपीएमसी अधिनियमों में सुधार प्रावधानों को अपनाने के लिए प्रेरित करने, जीएसटी पर राज्यों के वित्त मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति की तर्ज पर राज्य कृषि विपणन मंत्रियों की एक "सशक्त कृषि विपणन सुधार समिति" बनाने का सुझाव दिया गया है. नियम और एकल लाइसेंसिंग/पंजीकरण प्रणाली और एकल शुल्क के माध्यम से कृषि उपज के लिए एकीकृत राष्ट्रीय बाजार की दिशा में आगे बढ़ने के लिए राज्यों के बीच आम सहमति भी बनाएं.
इस मसौदे में केंद्र सरकार की मंशा बहुत स्पष्ट है, जब वह सुझाव देती है कि राज्य मंत्रियों की इस अधिकार प्राप्त समिति को किसानों के लाभ के लिए कृषि विपणन, समान बाजार शुल्क और अन्य मुद्दों के लिए एक कानून लाने और बाधा मुक्त कृषि व्यापार के लिए एक कानून लाने का प्रयास करना चाहिए. यह विडंबना है कि केंद्र ने जीएसटी पर अधिकार प्राप्त समिति का उदाहरण दिया, जहां केंद्र राज्यों को नियम और शर्तें तय कर रहा था और राज्य के वित्त मंत्रियों ने सार्वजनिक रूप से असहायता और विरोध व्यक्त किया था.
गौरतलब है कि स्व-विरोधाभासी तरीके से, मसौदा एपीएमसी अधिनियम के निरस्त होने के बाद बिहार की मंडियों की "खराब" स्थिति का दस्तावेजीकरण करता है. यह अपने आप में विरोधाभासी है क्योंकि दिल्ली के किसानों के संघर्ष के चरम पर, केंद्र सरकार के करीबी कॉर्पोरेट हितधारक यह कहानी फैला रहे थे कि बिहार द्वारा एपीएमसी अधिनियम को समाप्त करना कृषि बाजारों को नियंत्रण मुक्त करने का एक उत्कृष्ट उदाहरण था.
मसौदे के अनुसार, 2006 में एपीएमसी अधिनियम के निरस्त होने के समय बिहार में 95 एपीएमसी थे. 95 एपीएमसी में से 54 मार्केट यार्ड सुविधाओं के साथ स्थापित किए गए थे और 41 किराए के परिसर में चल रहे थे. “एपीएमसी अधिनियम के निरस्त होने के साथ, किराए के परिसर में चल रहे 41 एपीएमसी ने काम करना बंद कर दिया. मसौदे में कहा गया है, 54 एपीएमसी बाजार अभी भी मौजूद हैं, हालांकि उनकी स्थिति दयनीय है.
कृषि के निगमीकरण की आवश्यकता पर मसौदा बिल्कुल स्पष्ट है; इसे कृषि में "सुधार" का एकमात्र तरीका माना जाता है. उदाहरण के लिए, मसौदा बहुप्रचारित एफपीओ योजना, जो केंद्र सरकार की पसंदीदा परियोजना है, को कॉर्पोरेट पैठ को आगे बढ़ाने के एक उपकरण के रूप में देखता है. यह क्लस्टर आधारित एफपीओ के लिए कृषि क्षेत्र में सक्रिय बड़े व्यापारिक घरानों के साथ अनुबंध खेती (Contract Farming) व्यवस्था में प्रवेश करने के लिए अनुकूल माहौल तैयार कर रहा है.
एफपीओ योजना को बढ़ावा देने में सीआईआई और फिक्की जैसे कॉरपोरेट लॉबिंग समूहों द्वारा दिखाई गई असाधारण उत्सुकता के पीछे कॉर्पोरेट वर्ग के हित उजागर हो रहा है. वायदा और विकल्प बाजारों के माध्यम से वित्तीयकरण को गहरा करने के सुझावों में बड़े व्यापारिक घरानों का दबदबा भी स्पष्ट है. इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी को घरेलू खाद्य उद्योग पर हावी होने और नियंत्रित करने की भी अनुमति मिल जाएगी, जिससे भारत के लोगों की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी.
80 वर्ग किलोमीटर के दायरे में मंडी बनाना सरकार का दायित्व हो या मंडी बोर्ड का ना कि प्राइवेट सेक्टर का. इसका सारा कंट्रोल एक्सपोर्ट के तहत होगा, जिससे उनको सरकारी मंडी से खरीदने की बजाय प्राइवेट से खरीदने में ज्यादा मुनाफा होगा, क्योंकि मंडी में आने वाला 6.5% खर्चा, ट्रांसपोर्टेशन, बारदाना, लेबर इत्यादि सभी तरह की बचत होगी और एफपीयू द्वारा इससे कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा मिलेगा, जिससे मंडियां खत्म होंगी और धीरे-धीरे सारा कारोबार बड़े पूंजी पतियों के हाथों में चला जाएगा.
परिणाम स्वरूप बड़े पूंजीपति छोटे व्यापारियों को भी कुछ समय के लिए नुकसान पहुंचा कर सिस्टम पर कब्जा करेंगे और मुंहमांगी रकम पर सामान बेचेंगे, जिससे देश के आमजन को खाद्यान्न वस्तुएं लिमिट से ज्यादा महंगे दामों पर उपलब्ध होंगी. आपदा के वक्त हेतु अन्न भंडारण के लिए सरकार ने इस मसौदे में कोई भी प्रावधान नहीं रखा है, जो चिंतनीय विषय है.
इस मसौदे में जहां गोदाम, साइलो,कोल्ड स्टोरेज को मंडी घोषित करने की बात की गई है. इससे मौजूदा मंडियों का ढांचा हरियाणा पंजाब में पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगा. जिससे लेबर,आढ़ती, मुनीम,पल्लेदार, ट्रांसपोर्टर, बारदाना वाले पूरी तरह से बेरोजगार हो जाएंगे. परिणाम स्वरूप मंडी के साथ लगते छोटे बाजार भी बिल्कुल खत्म हो जाएंगे. इससे बड़ी कंपनियां मार्केट में आएंगी जिस वजह से छोटे व्यापारी, छोटे सेलर वाले सभी समाप्त हो जाएंगे.
धीरे-धीरे प्राइवेट खरीदार सीधे किसान से संपर्क करेंगे, जिससे देश कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की तरफ बढ़ेगा. इसके बाद छोटे व्यापारी खत्म होने के बाद बड़े व्यापारी खाद्य वस्तुओं की कालाबाजारी करेंगे, जिससे देश के हर नागरिक का शोषण होगा और देश में भुखमरी बढ़ेगी. यह नया मसौदा रद्द किए गए उन्हीं तीन कानूनों को वापस लाने की गहरी साजिश है. इससे सरकार को मणियों से आने वाला राजस्व समाप्त हो जाएगा जिससे ग्रामीण क्षेत्र का विकास रुकेगा. इसमें किसान और उपभोक्ता के फायदे का कोई भी जिक्र नहीं है सिर्फ व्यापारी का फायदा बताया गया है.
नए कृषि मसौदे में पहले निरस्त करवाए गए तीन कृषि कानूनों में से एक को फिर से लागू करने की गहरी साजिश की बू आ रही है. यह कानून उन्हें तीन कृषि काले कानूनों का एक हिस्सा है जो पहले निरस्त करवाए गए हैं. नई कृषि मसौदे के अनुसार पेस्टिसाइड, बीज, मार्केटिंग पर पूरी तरह से पूंजीपतियों का कब्जा होगा और खाद्य पदार्थों की ब्लैकमार्केटिंग बढ़ेगी.
फसल ज्यादा होने पर कंपनी या व्यापारी फसल की गुणवत्ता खराब दिखाकर फसल खरीदने से इनकार कर देता है, जिससे किसान फंस जाता है और अपनी फसल को कौड़ियों के भाव बेचने पर मजबूर हो जाता है. इसलिए यह मसौदा किसान हित में नहीं है. जिस तरीके से अंबानी, अडानी ने हरियाणा में सिरसा, कैथल और पंजाब के लुधियाना जैसे क्षेत्रों में व्यापक गोदाम और बुनियादी ढांचे निजी रेल नेटवर्क का निर्माण किया है, उस हिसाब से ऐसा लगता है कि यह नया कृषि मसौदा अंबानी और अडानी को फायदा पहुंचाने के लिए तैयार किया गया है.
अत: हरियाणा और पंजाब के अंदर मंडी व्यवस्था पूरी दुरुस्त है और मंडी पूर्ण रूप से मंडी बोर्ड और निगम यानी सरकार के अधीन है. इसलिए हमें इस मसौदे की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है. हम इस मसौदे का कड़ा विरोध करते हैं अगर इस मसौदे को कानूनी रूप दिया गया तो हम पहले की तरह कड़े विरोध के लिए तैयार हैं, जिसके तमाम जिम्मेदारी सरकार की होगी.''
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