बसंत पंचमी (basant panchami 2023) या श्रीपंचमी यूं तो हिंदुओं का त्योहार है, लेकिन इसे मुस्लिम भी मनाते हैं. इसका एक पूरा इतिहास है जिसके बारे में हम आगे विस्तार से बात करेंगे. बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. एक आम धारणा ये है कि यह दिन विद्या अर्जन करने वाले छात्रों के लिए ही होता है. लेकिन ऐसा नहीं है. सरस्वती का उपासक कोई भी हो सकता है और इसी हिसाब से वह उनकी पूजा-अर्चना करता है. यहां तक कि बसंत पंचमी की पूजा और उपासना केवल भारत तक ही सीमित नहीं है. यह पूजा भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और कई बड़े देशों में धूमधाम से संपन्न की जाती है. जैसा कि हम सभी जानते हैं, इस दिन पीले वस्त्र धारण करते हैं, देवी सरस्वती की पूजा करते हैं और गुलाल लगाकर एक दूसरे का स्वागत करते हैं. मिठाइयां बंटती हैं.
अब आइए बसंत पंचमी (basant panchami 2023) के इतिहास के बारे में जानते हैं. भारत के मौसम को छह अलग-अलग मौसमों में बांटा जाता है. इनमें बसंत सबसे प्यारा है. बसंत से लोगों का सबसे अधिक आत्मिक जुड़ाव है जिसकी कई वजहें हैं. बसंत में खेत पीली सरसों से अट जाते हैं. चारों ओर सरसों के पीले फूल खिले दिखते हैं. गेहूं और जौ की हरियाली चारों ओर नजर आती है. आम के पेड़ अलसाए से दिखते हैं क्योंकि उनपर मंजर भर जाता है. आम के पेड़ बौर या फूलों से भरे होते हैं. सरसों के फूल और आम के इन फूलों के आसपास तितलियां मंडराने लगती हैं.
जब इस तरह का मौसम हो तो भला उसका स्वागत धार्मिक अंदाज में क्यों नहीं किया जाना चाहिए? तभी बसंत के विधिवत स्वागत के लिए माघ महीने के पंचमी के दिन (शुक्ल पक्ष) बसंत पंचमी या श्रीपंचमी मनाने का चलन शुरू हुआ. इसी दिन विष्णु और कामदेव की पूजा की जाती है. हालांकि इन दोनों की पूजा से अधिक देवी सरस्वती की पूजा ज्यादा प्रचलित है. लोग घर में या बाहर पंडालों में सार्वजनिक तौर पर देवी सरस्वती की मूर्ति रखते हैं. खास बात ये कि बसंत पंचमी के दिन को ही देवी सरस्वती के प्रकटोत्सव के रूप में मनाया जाता है.
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आखिर बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा क्यों होती है? इसकी वजह जानने के लिए हमें पुराण पर गौर करना होगा. पुराणों में कहा गया है कि श्रीकृष्ण ने सरस्वती से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि बसंत पंचमी के दिन उनकी भी आराधना की जाएगी. इसके बाद बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा शुरू हुई जो आज तक जारी है. अब स्थिति ये है कि विष्णु और कामदेव की पूजा से अधिक सरस्वती की पूजा-अर्चना ज्यादा चलन में है.
बसंत पंचमी (basant panchami 2023) का एक पक्ष ये भी है कि कुछ मुस्लिम भी इस त्योहार को मनाते हैं. वह भी देश की राजधानी दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में. इतिहास बताता है कि दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में पिछले 800 साल से बसंत पंचमी धूमधाम से मनाई जाती है. कहानी कुछ यूं है कि हजरत निजामुद्दीन (जिनके नाम पर दरगाह है) की कोई संतान नहीं थी. लेकिन उन्हें अपनी बहन के बेटे ख्वाजा तकीउद्दीन नूंह से गहरा लगाव था. दुर्भाग्यवश किसी बीमारी के कारण तकीउद्दीन नूंह की मृत्यु हो गई. इस घटना से हजरत निजामुद्दीन दुखी रहने लगे.
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हजरत निजामुद्दीन के अनुयायियों में एक अमीर खुसरो भी थे. खुसरो हमेशा हजरत निजामुद्दीन के साथ रहते थे, उनके सुख-दुख के साथी थे. खुसरो को हजरत निजामुद्दीन के दुख सहन नहीं हो रहे थे. लिहाजा वे इसका कुछ समाधान ढूंढने में लग गए. खुसरो की सोच यही थी कि वे अपने संत गुरु को खुश देखें और खुश रखें. एक दिन खुसरो ने देखा कि गांव की महिलाएं पीली साड़ी पहने, सरसों के फूल लिए, गाते हुए सड़कों पर गुजर रही हैं. खुसरो ने इन महिलाओं से इसका सबब पूछा. महिलाओं ने उत्तर दिया कि वे अपने भगवान को फूल चढ़ाने के लिए मंदिर जा रही हैं.
इस पर खुसरो ने पूछा कि क्या पीले फूल चढ़ाने से उनके भगवान खुश होंगे? इसका उत्तर हां में मिला. खुसरो ने भी ऐसा ही किया. उन्होंने पीली साड़ी धारण किए, हाथ में सरसों के फूल लिए और हजरत निजामुद्दीन के सामने गीत गाते हुए पहुंचे. खुसरो का पहनावा और गीत ऐसा था कि हजरत के चेहरे पर मुस्कान आ गई और वे खूब प्रसन्न हुए. तब से यह परिपाटी शुरू हुई और हजरत निजामुद्दीन को खुश करने के लिए औलिया की दरगाह में बसंत पंचमी मनाई जाती है. इस दिन सभी अनुयायी पीले कपड़े पहनते हैं, सरसों के फूल लेकर कव्वाली का गायन करते हैं. यह परंपरा पिछले 800 साल से चल रही है.
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