
बहरी ब्रिटिश हुकूमत को जगाने के लिए 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह (Bhagat Singh) और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंका था. गिरफ्तारी दी, मुकदमा चला. जब 6 जून, 1929 को दिल्ली के तत्कालीन सेशन जज लियोनॉर्ड मिडिल्टन की अदालत में उनसे पूछा गया कि क्रांति से उन लोगों का क्या मतलब है? तब उन्होंने जो बयान दिया उसमें किसानों के प्रति उनके गहरे लगाव की झलक देखने को मिलती है. किसानों के हितों के लिए उनका परिवार पहले ही 'पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन' चला चुका था. जिससे अंग्रेज बौखला गए थे. आज भगत सिंह का शहीदी दिवस है. 23 मार्च 1931 को भारत के वीर सपूत भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गए थे. आज हम जानेंगे कि किसानों के लिए उनके परिवार का कितना अहम योगदान रहा है.
फिलहाल, असेंबली बम कांड को लेकर निचली अदालत में भगत सिंह ने कहा-क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयां जरूरी नहीं हैं और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रति हिंसा के लिए कोई स्थान है. क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन है. समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं.
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भगत सिंह ने कहा, दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज हैं. दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढंकने-भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है. सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं. इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति जरा-जरा-सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं. यह भयानक असमानता और भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है.
मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ 378 दिन तक चले किसान आंदोलन में भी शहीद-ए-आजम भगत सिंह के वंशजों ने शिरकत की. क्योंकि किसानों से उनका परिवार का गहरा है रिश्ता रहा है. भगत सिंह के प्रपौत्र यादवेंद्र सिंह संधू इस आंदोलन में कई दिन तक रहे थे. वो कहते हैं कि भगत सिंह किसान-मजदूर वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे. वो चाहते थे कि आजादी के बाद भी किसान, मजदूर और मेहनतकशों को न्याय मिले.
अपनी फांसी से करीब दो महीने पहले 2 फरवरी, 1931 को नवयुवक राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम उन्होंने एक ख़त लिखा था. अपने ख़त में भगत सिंह ने क्रांति के जिन लक्ष्यों को तय किया था उनमें जमींदारी प्रथा का अंत और किसानों के कर्जों की माफी भी शामिल रहे थे. इस पत्र में उन्होंने किसानों का कई बार जिक्र किया है.
भगत सिंह लिखते हैं…'देश की लड़ाई लड़नी हो तो मज़दूरों, किसानों और सामान्य जनता को आगे लाना होगा. उन्हें लड़ाई के लिये संगठित करना होगा. नेता उन्हें आगे लाने के लिए अभी तक कुछ नहीं करते, न कर ही सकते हैं…. इन किसानों को विदेशी हुकूमत के साथ-साथ भूमिपतियों और पूंजीपतियों से भी उद्धार पाना है…हमारा मुख्य लक्ष्य मजदूरों और किसानों का संगठन होना चाहिए.’
यादवेंद्र संधू कहते हैं कि, 117 साल पहले अंग्रेजों की हुकूमत किसानों को कुचलने के लिए आबादकारी बिल-1906 (Abadkari bill) लेकर आई थी. इसका मकसद किसानों की जमीनों को हड़पकर बड़े साहूकारों के हाथ में देना था. इसके तहत कोई भी किसान अपनी जमीन से पेड़ तक नहीं काट सकता था. ऐसा करने पर अंग्रेजों के पास 24 घंटे में जमीन का पट्टा कैंसिल करने का हक मिल गया था. जिसके विरुद्ध पंजाब के किसानों में भयंकर रोष की भावना पैदा हुई.
दूसरी ओर, नया कॉलोनाइजेशन एक्ट और दोआब बारी एक्ट के तहत अंग्रेजों ने बारी दोआब नहर से सिंचाई होने वाली जमीनों का लगान डबल कर दिया. नहर बनाने के नाम पर किसानों से उनकी जमीन हथिया ली गई थी. साथ ही उल्टे-सीधे टैक्स भी लगाए जा रहे थे. किसान परेशान किए जाने लगे. इस बिल के खिलाफ 1907 में किसानों ने आंदोलन शुरू किया. पूरे पंजाब में अंग्रेजों के खिलाफ सभाओं का सिलसिला शुरू हो चुका था. जिसकी अगुवाई मेरे परदादा अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा) कर रहे थे.
संधू का कहना है कि 22 मार्च 1907 को लायलपुर में एक सभा हुई. जिसमें किसानों के शोषण पर झंग स्याल पत्रिका के संपादक लाला बांके दयाल ने अपनी कविता पढ़ी, जिसके बोल थे- पगड़ी संभाल जट्टा पगड़ी संभाल ओए...वो गाना फेमस हो गया. यह आंदोलन नौ महीने तक चला. किसानों की यूनिटी के आगे अंग्रेजों को झुकना पड़ा. इस तरह वहां से जो किसान आंदोलन शुरू हुआ उसका नाम ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ (Pagdi Sambhal Jatta) पड़ गया.
संधू बताते हैं कि इस आंदोलन की वजह से ही 23 फरवरी 1881 को पंजाब के खटकड़ कलां में जन्मे अजीत सिंह को अंग्रेजों ने 40 साल के लिए देश निकाला दे दिया था. इसके बाद वो इटली, जर्मनी, अफगानिस्तान आदि में गए और किसानों व देश को आजाद करवाने की आवाज बुलंद रखी. अपनी जिंदगी के बेहतरीन पलों में वे अपने वतन से दूर दूसरे मुल्कों में भटकते रहे. क्योंकि स्वतंत्रता की मांग और किसान आंदोलन की वजह से अंग्रेजी शासन ने उन्हें बागी घोषित कर रखा था.
यादवेंद्र कहते हैं कि जब उनके परदादा अजीत सिंह 38 साल बाद देश लौटे लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. देश का बंटवारा हो चुका था. वो इससे काफी दुखी थे. 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ. आजादी के इस मतवाले और किसानों के मसीहा ने इसी दिन इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
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