सोयाबीन जिसे पीला सोना भी कहा जाता हैअगर इसकी पैदावार अच्छी हो जाए तो बंपर मुनाफा और कहीं रोग लग जाएं तो नुकसान ही नुकसान होता है. इसकी खेती खरीफ सीजन में की जाती है. सोयाबीन की खेती सबसे ज्यादा महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में की जाती है. कई बार किसान रोगों की पहचान समय पर नहीं कर पाते है ऐसे में तब तक फसलों पर रोग लग जाते हैं और फसल खराब हो जाती हैं. अगर किसान सही समय पर रोगों की पहचान कर लेंगे तो फसलों को रोगों से बचा सकते हैं. खरीफ सीजन शुरू हो चुका है ऐसे में किसान अगर सोयाबीन की खेती करते है तो अपनी फसलों को रोगों से बचाने के लिए कुछ उपायों के बारे में जाना चाहिए. इस खबर में हम सोयाबीन की फसल में लगने वाले कुछ प्रमुख रोगों और उनके निवारण की बात करेंगे.
लक्षण- सोयाबीन की फसल में ये बीमारी फेजियोलिना नामक फफूंद से लगती है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में इसका प्रकोप ज्यादा देखने को मिलता है. नवजात पौधे ही मरने लगते हैं. रंग लाल-भूरा हो जाता है. कुछ समय बात पत्तियां पीली पड़कर टूटने लगती है.
रोकथाम - समय-समय पर खाद डालते रहें. बुवाई से तीन-चार सप्ताह पहले खेत को पानी से भर दें. या फिर मिट्टी में नमी बनी रहे. या फिर केप्टान या थायरस 3 से 4 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से बीज उपचार करें. इसके लिए ट्राडकोडर्मा हरजियानम और ट्राडकोडर्मा विरिडी के कल्चर का 4 से 5 ग्राम प्रति किलो बीज का भी प्रयोग किया जा सकता है.
लक्षण- यह रोग मूंग के पीला मोजेक वायरस द्वारा उत्पन्न होता है तथा बै मौसिया टेबेकाई नाम सफेद मक्खी द्वारा स्वस्थ पौधे तक फैलता है. इस रोग मे सर्वप्रथम पतियों पर गहरे पीले रंग के धब्बो के रूप में प्रकट होता है. ये धब्बे धीर धीरे फैलकर आपस में मिल जाते है जिससे पुरी पत्ती ही पीली पड़ जाती हैं. पत्तियों के पीले पड़ने के कारण अनेक जैविक क्रियांए प्रतिकुल रूप से प्रभावित होती है तथा पौधो में आवश्यक भोज्य पदार्थ का संश्लेषण नही हो पाता है.
रोकथाम- सफेद मक्खी इस रोग को फैलाती हैं.इसकी रोकथाम के लिए खेत में बिजाई के 20-25 दिनों के बाद 10-15 दिनो के अन्तर 250 मि0लि0 डाईमैथोएट 30 ई.सी. या रोगोर या 250 मि0लि0 आक्सीडैमेटान मिथाईल 25 ई.सी (मैटासिस्टाॅक्स) या 250 मि0लि0 फार्मेथियान 25 ई.सी. (एथियो) या 400 मि.लि. मैलाथियान 50 ई.सी. को 250 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ छिड़काव करें.
लक्षण- ये रोग फलियों और बीज को प्रभावित करती है. इसका प्रकोप लगभग सभी राज्यों में देखने को मिलता है. खरीफ सीजन की बुवाई पर इसका असर अधिक देखने को मिलता है. पत्तों पर भूरे-पीले धब्बे पड़ जाते हैं. पत्तियां सूखकर गिरने लगती हैं.
रोकथाम- रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे हिमसा या पीके 327 की बोवनी करें. जाइनेब या डायथेन एम-45 के 0.2 प्रतिशत घोल का रोग ग्रसित फसल पर छिड़काव करें.
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लक्षण- इस रोग के लक्षण मुख्यतः पत्तियों व फलियों मे ही देखने को मिलते हैं. पत्तिया सकुंचित होकर नीचे की और मुड़ जाती है जिससे कलियों में बीज कम लगते है.
रोकथाम- इस रोग के नियन्त्रण के लिए ग्रसित पौधो को तुरन्त उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए. इसके रोकथाम के लिए प्रति हैक्टर 100-125 मि. ली. इमिडाक्लोपरीड- 17.8 ैस्ध्0ण्625.1कि. ग्रा. ऐसीफेट-75 ैच्ध्100 ग्रा थायामेथोक्साम 25ॅळ आदि मे से किसी एक का छिडकाव करना चाहिए. फसल पर विसंक्रमण के लिए समय समय पर नीम के सूखे पतों पा पाउडर नीम के बीजो के पाउडर का 5 प्रतिशत (100 लीटर पानी मे 5 किलो गा्रम) से छिड़काव करते रहना चाहिए.
लक्षण- इस बैक्टीरिया का प्रकोप ठंड में ज्यादा देखने को मिलता है. पत्तियों, तनों, डंठलों और फलियों पर धब्बे पड़ जाते हैं. पत्तियों पर कोणीय गीले धब्बे बनने लगते हैं.
रोकथाम- रोग प्रतिरोधक पीके 472, जेएस 335 आदि का चुनाव करें. कार्बेन्डाजिम नामक दवा का 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव कर सकते हैं. फसल चक्र अपनाएं जिनमें दाल वाली फसलें ना हों.
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