जिधर देखो, उधर मक्का की चर्चा है. खेती-बाड़ी में पहले कपास और सोयाबीन का नाम सबसे अधिक होता था. अब ट्रेंड मक्के की ओर सेट हो गया है. किसी भी कृषि उत्पाद को 4 पैरामीटर पर देखा जाता है-फूड, फीड, फाइबर और फ्यूल. यानी खाद्य, चारा या दाना, फाइबर और ईंधन. कपास, सोयाबीन और मक्का को भी इसी पैरामीटर पर देखें तो पता चल जाएगा कि मक्का इन दोनों से आगे क्यों निकल गया है. हालांकि पहले के समय में कपास और सोयाबीन ने भी कृषि के क्षेत्र में अपना दबदबा बनाए रखा है, मगर अब मक्का इन पर भारी पड़ रहा है. आइए जानते हैं क्यों.
सबसे पहले मक्के को फूड और फीड के तौर पर देख लेते हैं. देश में लगभग 28 मिलियन टन (280 लाख टन) मक्के की मांग होती है. इसमें से 200 लाख टन अकेले पशु चारा उद्योग से मांग आती है. इसमें भी 150 लाख टन पोल्ट्री और 50 लाख टन पशु चारे के रूप में होता है. बाकी 50 लाख टन स्टार्च उद्योग में खपता है. 20 लाख टन लोग खाने में इस्तेमाल करते हैं और 10 लाख टन बीज और अन्य इस्तेमाल में आता है.
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आजकल इथेनॉल की बहुत चर्चा है. सरकार ने इसे पेट्रोल में मिलाने का आदेश दिया है. इस पर अमल भी शुरू हो गया है. पहले इस इथेनॉल को बनाने में गन्ना और सिरका का अधिक इस्तेमाल होता था. अब यह ट्रेंड मक्के की ओर शिफ्ट हो गया है. इसकी वजह है मक्के में अधिक कार्बोहाइड्रेट का होना. इसी कार्बोहाइड्रेट के फरमेंटेशन से इथेनॉल बनता है. इथेनॉल में मक्का कैसे इतना अहम हो गया, इसे एक आंकड़े से भी समझ सकते हैं. 2022-23 में शुगर मिलें या डिस्टीलरी ने 8 लाख टन गन्ने से 31 करोड़ लीटर इथेनॉल सप्लाई किया. 2023-24 में यह मात्रा बढ़कर 75 लाख टन मक्के से 286 करोड़ लीटर इथेनॉल हो गया.
एक्सपर्ट बताते हैं कि जब से मक्के से अधिक इथेनॉल बनने लगा है, तब से इसके रेट बढ़ते जा रहे हैं. इथेनॉल में अधिक इस्तेमाल होने से मक्के की मांग और आपूर्ति में बड़ा गैप आ गया है. इससे मक्के की खपत कम हो गई है जिससे दाम में भारी उछाल है. पिछले चार साल का रिकॉर्ड देखें तो मक्के का दाम 14000-15000 रुपये प्रति टन से उछल कर 24000-25000 टन पर चला गया है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि पेट्रोल में इसकी मिलावट होने से मक्के की मांग बढ़ी है और इसका फायदा किसानों को भी मिल रहा है.
पहले सोया खली और कपास की खली की चर्चा सबसे अधिक होती थी. चूंकि यह पशुओं के लिए प्रोटीन का सबसे तगड़ा सोर्स है, इसलिए हमेशा इसकी मांग बनी रहती है. अब कपास और सोया खली के क्षेत्र में भी मक्के ने सेंधमारी कर दी है. यहां तक कि सरसों और मूंगफली भी इससे पीछे जा रही है. बाकी फसलों की खली के लिहाज से मक्के की खली अधिक प्रोटीन भले न देती हो, लेकिन कम खर्च में इसका अधिक फायदा होता है. यही वजह है कि खली उद्योग में भी मक्के ने अपनी धमक बना ली है.
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मेहनत और लागत के लिहाज से देखें तो मक्का बोने वाले किसान अब अधिक मुनाफा कमा रहे हैं. सरकार भी इसकी खेती को बढ़ावा दे रही है. कई तरह की सब्सिडी दी जा रही है. मक्के के सामने सोयाबीन की गिरती मांग ने इससे होने वाली किसानों की कमाई को घटा दिया है. यही वजह है कि सोयाबीन की एमएसपी 4892 रुपये की जगह किसानों को 4300 रुपये प्रति क्विंटल मुश्किल से मिल रहे हैं. वहीं मक्का किसानों को 2225 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी से अधिक या उसके आसपास भाव मिल रहे हैं. मक्का किसान घाटे में नहीं हैं.
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