उत्तर भारत के किसानों की समस्याएं हाल के वर्षों में बढ़ी ही हैं, लेकिन कुछ किसान बढ़ते शहरीकरण के चलते ज़मीन बेच कर अमीर भी हुए हैं. ये नवधनाढ्य किसान अमीर तो ज़रूर हुए लेकिन उत्पादकता के लिहाज से ज़्यादातर किसानों के लिए यह अचानक आया हुआ पैसा व्यर्थ साबित हुआ. कुछ गंभीर समस्याओं के चलते कई किसानों ने आत्महत्या भी की. लेकिन यह एक विडम्बना ही है कि ‘पीपली लाइव’ को छोड़ कर मुख्यधारा के हिन्दी सिनेमा से किसान और ग्रामीण लगभग गायब हो गया है. ऐसे ही माहौल में 2009 में एक फिल्म आई थी ‘किसान’. सोहेल खान और रोनी स्क्रूवाला जैसे बड़े प्रोड्यूसर्स ने निश्चय किया किसानों के मुद्दे पर फिल्म बनाने का.
कहानी, स्क्रीनप्ले और संवाद थे वेकियाना ढिल्लों के और निर्देशन था पुनीत सिरा का. कहानी सशक्त है, जो एक अनपढ़ लेकिन आर्थिक रूप से ठीक-ठाक किसान दयाल सिंह के इर्दगिर्द घूमती है. जब उसे एहसास होता है कि हालात बेहतर बनाने और जागरूक होने के लिए पढ़ाई-लिखाई ज़रूरी है, तो वह अपने बड़े बेटे अमन को शहर भेज देता है पढ़ने के लिए.
अपने दूसरे बेटे जिगर के साथ वह गांव में मेहनत से खेती किसानी करके आजीविका चलाता है.
जब युवा अमन एक वकील बन कर गांव लौटता है, तो पाता है कि एक उद्योगपति सोहन सेठ गांव के चक्कर लगा रहा है. वह चाहता है कि किसान अपनी ज़मीन उसे बेच दें और इस ज़मीन पर वह बड़े बड़े मॉल और इमारतें बनाए. कुछ किसान राज़ी भी हो जाते हैं, लेकिन दयाल सिंह और जिगर को यह गवारा नहीं. क्योंकि ज़मीन ही उनकी आजीविका का साधन है. वे एकमुश्त पैसा लेकर क्या करेंगे?
जब सोहन सेठ को एहसास होता है कि दयाल सिंह और जिगर का गांव में काफी दबदबा है और उनके मजबूत रहते वह किसानों को ज़मीन बेचने के लिए राज़ी नहीं कर पाएगा, तो वह दयाल सिंह के परिवार में फूट डाल देता है. दयाल के वकील बेटे अमन को शहरी ऐशोआराम की ज़िंदगी के सपने दिखलाता है और अमन और उसके पिता के बीच मतभेद पैदा कर देता है, लेकिन आखिरकार दयाल सिंह की जीत होती है लेकिन काफी खूनी हिंसा के बाद.
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फिल्म की पृष्ठभूमि में है पंजाब का एक गांव, लेकिन अफसोस, कि एक भी अभिनेता ठीक से पंजाबी लहजे में बात नहीं कर पाता. विकास और आधुनिकीकरण के नाम पर किसानों की ज़मीन की अंधाधुंध खरीद-फरोख्त में किसान कैसे पिस जाते हैं. कहानी की यह मुख्य थीम अमन और जिगर के रोमांस और कहानी के विलेन्स के षड्यंत्र के बीच कहीं गुम हो जाती है. यही विडम्बना है कि एक कमर्शियल फ्रेम में किसानों को लेकर कोई अच्छी फिल्म नहीं बन पाती क्योंकि व्यावसायिक सिनेमा की शर्तों के सामने कहानी और किरदारों की ज़रूरतें दम तोड़ देती हैं.
जैकी श्रौफ एक अच्छे अभिनेता हैं और बगैर कुछ बोले ही काफी कुछ अभिव्यक्त कर देते हैं. मगर वे भी पंजाबी लहजे में नहीं बोल पाते. कुल मिला कर पूरी फिल्म का माहौल बहुत नकली लगता है, लेकिन फिल्म का कथानक महत्वपूर्ण है. शहरीकरण की प्रक्रिया में बहुत से किसानों ने अपनी जमीनें बेचीं. कुछ बहुत अमीर हो गए और कुछ ने अपना कर्जा चुका दिया. लेकिन ज़मीन बेच कर मिले पैसे का उपयोग किस तरह किया जाए, ताकि किसान की चैन से गुज़र हो सके- इस बारे में ना तो कभी कोई चर्चा होती है, ना ही कोई नीतिगत फैसला लिया जाता है.
नतीजा ये कि बहुत से परिवार जमीन बेचने के कुछ साल बाद ही बर्बाद हो गए. कुछेक साल के लिए पैसा आ गया लेकिन उस पैसे से अपनी आजीविका ज़्यादातर किसान नहीं चला पाए. दरअसल ‘किसान’ फिल्म की कहानी इसी मुद्दे को हाइलाइट करना चाहती है, लेकिन कमतर निर्देशन और औसत अभिनय के कारण फिल्म महज़ एक परिवार की कहानी बन कर रह जाती है. समस्या को तो उठाती है लेकिन उसके निदान पर कोई बात नहीं करती और बेज़रूरी मेलोड्रामा में फंस कर रह जाती है.
कुछ पुरानी पंजाबी धुनों के अलावा ‘किसान’ का संगीत भी अभिनेताओं की तरह फीका ही है. 20 मार्च 2009 को रिलीज़ हुई यह फिल्म, ज़ाहिर है, फ्लॉप हो गई. इसका बजट था 15 करोड़ लेकिन यह केवल 5.76 करोड़ ही कमा पाई. किसानों की समस्याओं और मुद्दों पर बनी यह कोई महत्वपूर्ण फिल्म नहीं. महत्वपूर्ण है वह मुद्दा, जिस पर इस फिल्म में बात करने की कोशिश की गई है. विकास कार्यों या शहरीकरण के उद्देश्य से किसानों से उनकी ज़मीन खरीदने का उन पर क्या असर पड़ता है और क्या सिर्फ मुआवजा दे देने से उनकी समस्याएं हल हो जाती हैं?
दरअसल किसानों को दिए गए मुआवजे की राशि को किस तरह निवेश किया जाए, उससे उनकी उत्पादकता और आजीविका को कैसे प्रोत्साहित किया जाए. इस मुद्दे पर बात होना बहुत ज़रूरी है. हालांकि यह फिल्म इस पर किसी सार्थक विमर्श को शुरू नहीं कर पाई, ना ही इसे दिखा पाई, लेकिन इस संदर्भ में यह फिल्म अहम है और उम्मीद की जा सकती है कि मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा कभी न कभी इस विषय पर सार्थक और सफल सिनेमा बनाने की कोशिश करेगा.
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