आज़ादी शब्द अपने आप में एक सम्पूर्ण शब्द है. लिखने और पढ़ने में भले ही ये बहुत आसान लगे, लेकिन इसे समझना और असल में हासिल करना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, हमारा अपना देश भारत और इसका इतिहास इसका जीता जागता सबूत रहा है. आज हम आज़ादी के 79वें साल में पहुंच चुके हैं. इसे शब्दों में बयां करना भले ही मुश्किल हो, लेकिन हर भारतीय इस खुशी को आज और हर साल महसूस करता है और आगे भी करता रहेगा. आज़ादी से पहले और बाद में हमने कई मुश्किलों का सामना किया, उनका सामना किया और उन चुनौतियों को हराया. जब देश आज़ाद हुआ, तो वो अपने साथ न सिर्फ़ खुशियां लेकर आया, बल्कि कई ऐसी चुनौतियां भी लेकर आया, जिनके लिए शायद भारत तैयार नहीं था. लेकिन हर भारतीय में उस समस्या से बाहर निकलने का जुनून था.
आज़ादी के बाद देश के सामने जो सबसे बड़ी समस्या आई, वो थी भुखमरी की. एक पूरा साम्राज्य दो हिस्सों में बंट गया. दोनों देशों के बीच हुए युद्ध में अनाज की सबसे ज़्यादा बर्बादी हुई. जिसका नतीजा ये हुआ कि देश में भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई. लेकिन अब सवाल ये था कि इससे कैसे निकला जाए. उस समय जिस पारंपरिक तरीके से खेती की जा रही थी, उससे देश के लोगों का पेट भरना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा लग रहा था. ऐसे में हरित क्रांति का जन्म हुआ जिसने न सिर्फ़ भारत की दशा-दिशा बदली, बल्कि भारत को उन ऊंचाइयों पर पहूंचाया जहां भारत सोने की चिड़िया कहलाने लगा. हरित क्रांति क्या है, इसका इतिहास क्या है और आज हरित क्रांति की क्या स्थिति है, आज की आज़ादी स्पेशल स्टोरी में हम इसी पर चर्चा करेंगे.
हरित क्रांति 1960 के दशक में नॉर्मन बोरलॉग द्वारा शुरू किया गया एक प्रयास था. उन्हें दुनिया भर में 'हरित क्रांति के जनक' के रूप में जाना जाता है. 1970 में, नॉर्मन बोरलॉग को उच्च उपज देने वाली किस्मों (HYV) के विकास पर उनके काम के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. भारत में हरित क्रांति का नेतृत्व मुख्य रूप से एम.एस. स्वामीनाथन ने किया था. हरित क्रांति के परिणामस्वरूप खाद्यान्न (विशेषकर गेहूँ और चावल) के उत्पादन में भारी वृद्धि हुई, जो 20वीं सदी के मध्य में विकासशील देशों में नए, उच्च उपज देने वाले बीजों के उपयोग के कारण शुरू हुई. इसकी प्रारंभिक सफलता मेक्सिको और भारतीय उपमहाद्वीप में देखी गई. 1967-68 और 1977-78 के बीच हुई हरित क्रांति ने भारत को एक खाद्यान्न की कमी वाले देश से दुनिया के अग्रणी कृषि देशों में से एक बना दिया.
इस क्रांति का मुख्य उद्देश्य दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत की भूख की समस्या का समाधान करना था. इस क्रांति का दीर्घकालिक लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि प्रणाली का आधुनिकीकरण करना था. इससे ग्रामीण विकास, औद्योगिक विकास, बुनियादी ढांचे, कच्चे माल आदि का आधुनिकीकरण होगा. इस क्रांति का एक अन्य मुख्य उद्देश्य कृषि और औद्योगिक श्रमिकों को रोज़गार प्रदान करना था. इसका एक अन्य उद्देश्य ऐसी मज़बूत फसल किस्में विकसित करना है जो अत्यधिक जलवायु और बीमारियों का सामना कर सकें.
फसल उत्पादन में वृद्धि: 1978-79 तक, अनाज उत्पादन 131 मिलियन टन तक पहुंच गया, जिससे भारत दुनिया के सबसे बड़े कृषि उत्पादकों में से एक बन गया.
खाद्यान्न आयात में कमी: भारत केंद्रीय भंडार में पर्याप्त भंडार के साथ, खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर हो गया और यहां तक कि उसने खाद्यान्न निर्यात भी शुरू कर दिया.
किसानों को लाभ: किसानों की आय का स्तर बढ़ा और अधिशेष आय का पुनर्निवेश कृषि उत्पादकता में सुधार के लिए किया गया. 10 हेक्टेयर से अधिक भूमि वाले बड़े किसानों को विशेष रूप से उच्च उपज वाले बीजों, उर्वरकों और मशीनरी जैसे आदानों में महत्वपूर्ण निवेश से लाभ हुआ, जिससे पूंजीवादी खेती को बढ़ावा मिला.
औद्योगिक विकास: हरित क्रांति ने बड़े पैमाने पर कृषि यंत्रीकरण को जन्म दिया, जिससे ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, थ्रेशर, कंबाइन, डीजल इंजन, इलेक्ट्रिक मोटर और पंपिंग सेट की मांग में वृद्धि हुई. रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और शाकनाशियों की मांग में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई.
ग्रामीण रोजगार: बहु-फसलीय खेती और उर्वरकों के उपयोग के कारण श्रमिकों की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई. हरित क्रांति ने कारखानों और जलविद्युत स्टेशनों से संबंधित सुविधाओं के निर्माण के माध्यम से कृषि और औद्योगिक श्रमिकों के लिए विभिन्न रोजगार के अवसर पैदा किए.
गैर-खाद्यान्नों का बहिष्कार: हालांकि हरित क्रांति के दौरान गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा और मक्का के उत्पादन में वृद्धि देखी गई, लेकिन मोटे अनाज, दलहन और तिलहन जैसी अन्य फसलों को इससे बाहर रखा गया.
उच्च उपज वाली किस्मों का सीमित दायरा: उच्च उपज वाली किस्मों का कार्यक्रम (एचवाईवीपी) पाँच फसलों तक सीमित था: गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा और मक्का. गैर-खाद्यान्न फसलें नई रणनीति के दायरे से बाहर थीं, और गैर-खाद्यान्न फसलों के लिए उच्च उपज वाली किस्मों के बीज या तो अविकसित थे या किसान उनके उपयोग का जोखिम उठाने को तैयार नहीं थे.
क्षेत्रीय असमानताएं: हरित क्रांति तकनीक ने अंतर-क्षेत्रीय और अंतर-क्षेत्रीय स्तरों पर आर्थिक असमानताओं को बढ़ाया. इसका प्रभाव मुख्यतः पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे उत्तरी क्षेत्रों और आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी क्षेत्रों में देखा गया. असम, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा सहित पूर्वी क्षेत्रों के साथ-साथ पश्चिमी और दक्षिणी भारत के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में इसका प्रभाव न्यूनतम था. हरित क्रांति ने उन क्षेत्रों को लाभान्वित किया जो पहले से ही कृषि की दृष्टि से बेहतर स्थिति में थे, जिससे क्षेत्रीय असमानताएं और बढ़ गईं.
रसायनों का अत्यधिक उपयोग: हरित क्रांति के कारण कीटनाशकों और कृत्रिम नाइट्रोजन उर्वरकों का बड़े पैमाने पर उपयोग हुआ. किसानों को कीटनाशकों के गहन उपयोग से जुड़े उच्च जोखिमों के बारे में जानकारी नहीं थी. अप्रशिक्षित मजदूर अक्सर निर्देशों या सावधानियों का पालन किए बिना कीटनाशकों का उपयोग करते थे, जिससे फसलों को भारी नुकसान होता था और पर्यावरण और मृदा प्रदूषण में योगदान होता था.
जल उपभोग: हरित क्रांति में शुरू की गई फसलें जल-प्रधान थीं. इनमें से अधिकांश फसलों को लगभग 50% जल आपूर्ति की आवश्यकता होती थी. नहर प्रणालियों की शुरुआत और सिंचाई पंपों के बढ़ते उपयोग ने भूजल स्तर को और कम कर दिया. गन्ना और चावल जैसी जल-प्रधान फसलों की गहन सिंचाई के कारण भूजल स्तर गिर गया, जिससे पंजाब, जो गेहूं और चावल का एक प्रमुख उत्पादक क्षेत्र है, भारत के सबसे अधिक जल-संकटग्रस्त क्षेत्रों में से एक बन गया.
मृदा और फसल उत्पादन पर प्रभाव: अधिक उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए लगातार एक ही फसल चक्र अपनाने से मृदा में पोषक तत्वों की कमी हो गई. किसानों ने नई बीज किस्मों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए अधिक उर्वरकों का उपयोग किया. इन क्षारीय रसायनों के प्रयोग से मिट्टी का pH स्तर बढ़ गया. मिट्टी में विषैले रसायनों के प्रयोग से लाभकारी सूक्ष्मजीव नष्ट हो गए, जिससे उपज कम हो गई.
बेरोज़गारी: हरित क्रांति के तहत कृषि यंत्रीकरण के कारण पंजाब और कुछ हद तक हरियाणा को छोड़कर ग्रामीण क्षेत्रों में खेतिहर मज़दूरों में व्यापक बेरोज़गारी फैल गई. सबसे ज़्यादा प्रभावित सबसे गरीब और भूमिहीन मज़दूर हुए.
स्वास्थ्य पर प्रभाव: फॉस्फ़ेमिडोन, मेथोमाइल, ट्रायज़ोफ़ॉस और मोनोक्रोटोफ़ॉस जैसे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर उपयोग से कैंसर, गुर्दे की विफलता, मृत जन्म और जन्म दोष जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हुईं. (Source: Drishti IAS)
Copyright©2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today