हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने हाल ही में पठान की शानदार सफलता के बाद राहत की सांस ली है. वरना बहुत से लोग तो हिंदी फिल्मों का अंतिम संस्कार ही कर चुके थे. बहरहाल, इन दिनों कई विविध विषयों पर फिल्में बन रही हैं. ओटीटी ने फिल्मों के व्यापार को और भी जटिल और चुनौतीपूर्ण बना दिया है. जहां ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर अपराध, विभिन्न स्तरों पर महिलाओं की स्थिति और छोटे कस्बों की ज़िंदगियां कथानक के केंद्र में हैं. वहीं हिंदी फिल्में लगातार नया विषय तलाश कर रही हैं और लगता है कि निर्देशकों और निर्माताओं के लिए मिथक, देशभक्ति और जासूसी बड़े लुभावने विषय लग रहे हैं.
एक-डेढ़ साल में जो फिल्में लगातार चर्चा का विषय रहीं, वो थीं ब्रह्मास्त्र, रामसेतु, लालसिंह चड्ढा, कश्मीर फाइल्स वगैरह. जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बॉक्स ऑफिस पर लगातार गच्चे खाते हुए खुद को रिडिस्कवर कर रही है और मिथकों, पौराणिक कहानियों से लेकर स्त्री-केंद्रित, अपराध मनोविकार और विज्ञान केंद्रित कथानकों को एक्सप्लोर कर रही है. तो यह सवाल उठाना लाज़मी है कि सारे रिश्तों, किरदारों और किस्सों के बीच हमारा किसान कहां गायब हो गया है हिंदी फिल्मों से?
किसान और ग्रामीण भारत हिंदी फिल्मों से लगभग गायब है. जबकि दिलचस्प बात ये है कि हिंदी की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ थी जो 1938 मे रिलीज़ हुई और इसके लेखकों में से एक थे सआदत हसन मंटो. उसके बाद किसान-केंद्रित महत्वपूर्ण फिल्म थी- ‘दो बीघा ज़मीन’. इसके बाद अगर आप गूगल पर खोजेंगे तो ‘मदर इंडिया’ का ज़िक्र होगा. इसी समय एक और फिल्म बनी मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर – ‘हीरा मोती’.
‘जय जवान जय किसान!’ का नारा लोकप्रिय हुआ तो ‘धरती कहे पुकार के’ और ‘उपकार’ जैसी फिल्में बनीं जो बॉक्स ऑफिस पर सफल भी हुईं. उसके बाद हम सीधे आते हैं हरित क्रांति के जमाने में जब एक अनूठा प्रयोग किया गया. किसानों ने ही चंदा जमा किया और फिल्म बनी ‘मंथन’. यह शायद क्राउड फंडिंग से बनी पहली फिल्म है. फिल्म ने अच्छा खासा बिज़नेस किया. लेकिन उसके बाद जैसे किसान फिल्मों में कहीं गुम ही हो गया.
ये भी पढ़ें: PM Kisan Yojana: जल्द किसानों के खाते में भेजी जा सकती है पीएम किसान की 13वीं किस्त
1978 में आई फिल्म ‘गमन’ संभवतः किसान केंद्रित फिल्मों का एक ‘स्वान सॉन्ग’ है. यह एक ग्रामीण के गांव से बड़े शहर में माइग्रेट करने की कहानी है. वो तो भला हो अनुराग कश्यप का, जिनके चलते छोटे कस्बाई किरदार और दुनिया फिल्मों के फोकस में आई, वरना हिंदी फिल्में तो सुपर स्टार के विभिन्न दौरों से ही अपनी पहचान बनाती आई है- अशोक कुमार, देव आनंद, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और फिर शाहरुख खान. लेकिन ज़रा ठहरिए, इतना सीधा सरल नहीं है हमारा फिल्मी संसार. अशोक कुमार थे तो किशोर भी थे. अमिताभ रहे तो अमोल पालेकर भी रहे और शाहरुख के साथ तो अनिल कपूर, सलमान खान, आमिर खान और अक्षय कुमार का दौर भी चलता रहा. लेकिन सभी छोटे-बड़े रिश्तों और किरदारों को उकेरती, चित्रित करती हमारी फिल्म इंडस्ट्री एक किरदार को कभी ठीक से एक्सप्लोर नहीं कर पाई और वो हैं हमारे किसान.
ये विडंबना ही है- जिस देश की लगभग 70 फीसद जनसंख्या गांवों में रहती है और लगभग 55 फीसद लोग किसी न किसी तरह किसानी से जुड़े हैं –उस देश की सबसे लोकप्रिय फिल्म इंडस्ट्री में किसान कहीं मौजूद ही नहीं! आखिरी बार हमने किसानों के सशक्त किरदार देखे थे ‘लगान’ (2001) में. लेकिन फिल्म अंग्रेजों के समय की कहानी कहती थी. यह फिल्म बहुत सफल हुई. वजह ये कि फिल्म हमारे देश के दो बड़े प्रिय जज़्बों की बात करती थी-देशप्रेम और क्रिकेट.
2009 में सोहेल खान ने ‘किसान’ नाम की फिल्म प्रोड्यूस की जिसकी पृष्ठभूमि पंजाब के गांव थे और मुख्य किरदार किसान लेकिन फिल्म बिल्कुल डूब गई. फिर आई ‘पीपली लाइव’ (2010). ये कहानी एक असल घटना को आधार बना कर लिखी गई थी और किसानों, ग्रामीणों को लेकर सरकारी और शहरी रवैये पर ज़बरदस्त व्यंग्य करती थी.
इस बीच, देश के कुछ हिस्सों में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला शुरू हो चुका था. क़र्ज़े के बोझ तले दम तोड़ते किसानों की अनेक हृदय विदारक घटनाएं सामने आयीं लेकिन हमारा मनोरंजन जगत इससे अछूता ही रहा. कहीं कोई फिल्म- इस तरह के कथानक की बात नहीं करती. बस 2017 में आई थी ‘कड़वी हवा’. कड़वी हवा –अकालग्रस्त गांव के कर्जे में दबे किसान और उससे कर्जा उगाहने वाले एजेंट की कहानी थी-असलियत के बहुत करीब. लेकिन जैसा अपेक्षित था- व्यावसायिक स्तर पर ये फिल्म नहीं चल सकी. इन गिनी चुनी फिल्मों के अलावा किसान का किरदार हमारी फिल्मों में कहीं कोई अहम जगह या इमेज नहीं बना पाया.
ये घोर उत्सुकता का विषय है कि किसान और गांव हमारी फिल्मों से गायब क्यों हो रहे हैं? क्या इसलिए कि वे ज़मीन और जमीनी हकीकत से इतना जुड़े हैं कि मनोरंजन जगत की कल्पना के पंख उनके भार को वहां नहीं कर पाते? कोरोना और लगातार फ्लॉप फिल्मों के शॉक के बाद ‘पठान’ की ज़बरदस्त सफलता से हिंदी फिल्मों ने एक नया ‘कमबेक’ किया है.
ये भी पढ़ें: तेज गर्मी से किसानों के उड़े होश, गेहूं की चमक और क्वालिटी हो सकती है खराब
‘पठान’ एक नए तेवर और थीम के साथ आई. एक तरह से इस फिल्म ने सुपर हीरो और स्पाइ यूनिवर्स को जोड़ कर नई जगह बनाने की कोशिश की है. नई थीम और नया यूनिवर्स तो ठीक लेकिन हमारी अपनी दुनिया में तमाम बदलते हुए दौरों को झेलता, जटिल और बोझिल ज़िंदगी जीता किसान है- उससे जुड़ी अनंत कहानियां हैं, मुद्दे हैं- समय में मानो ठिठके हुए हमारे गांव हैं- जो अफसोस अब तक ना तो हमारे कहानीकारों को अपनी तरफ खींच पाए हैं, ना ही निर्देशकों को.
सेना, जवान, देशप्रेम, जासूसी, छोटे कस्बे का आम मध्यवर्गीय भारतीय, लोक कथाएं, और अब कुछ हद तक महिलाएं भी - ये सब हमारी कहानियों का हिस्सा हैं – लेकिन किसान कब हमारी कहानियों और कल्पनाओं में जगह पाएगा- इसका वैसे ही इंतज़ार है जैसे हर साल किसान को बारिश का इंतज़ार होता है और उम्मीद भी.
Copyright©2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today