खेती-किसानी के दौरान किसानों को कई तरह की समस्याओं का सामना करने पड़ता है. उनमें नमीयुक्त मिट्टी लगे रहने की वजह से पैर फटना, पैर में कांटा लगना, फंगल इन्फेक्शन होना और सांप का काटना आम बात है. वहीं बहुत सारे किसान इन समस्याओं का समाधान तो चाहते हैं, लेकिन समुचित समाधान नहीं मिलने की वजह से वो भी इन समस्याओं का सामना करते रहते हैं. हालांकि, अब ऐसा नहीं होगा. दरअसल, दक्खनी भेड़ की ऊन से बने शॉल को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिज़ाइन, अहमदाबाद के तीन पूर्व छात्रों ने किसानों के लिए वॉटरप्रूफ सदाबहार जूते में बदल दिया है. इस जूते को किसी भी मौसम में पहना जा सकता है. यह हल्का होने के साथ टिकाऊ भी है. अब खेती और सिंचाई के दौरान भी किसान जूता पहन सकेंगे और उन्हें पैर फटने, कांटा चुभने, फंगल इन्फेक्शन और सांप के काटने जैसी समस्याओं से भी छुटकारा मिल जाएगा. ऐसे में आइए विस्तार से जानते हैं छात्रों के मन में किसानों के लिए वाटरप्रूफ जूता बनाने का विचार कहां से आया? और यह कैसे साकार हुआ?
एक मीडिया हाउस को दिए इंटरव्यू में संतोष कोचरलाकोटा ने बताया कि उन्होंने एक कार डिजाइनर के रूप में अपना करियर शुरू किया था, वो फेरारी और लेम्बोर्गिनी जैसी गाड़ियों के लिए काम करना चाहते थे, लेकिन इससे पहले ही उनके सामने किसानों की एक ऐसी समस्या आई जिससे वो हर रोज जूझते हैं.
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उन्होंने आगे बताया, “किसानों की समस्याओं को समझने के लिए हमने ग्रामीण महाराष्ट्र में अलग-अलग जगहों पर 1.5 साल बिताए. जब हम किसानों से मिले, तो नंगे पैर रहने की वजह से पैर फटना, फंगल इन्फेक्शन और सांप का काटना आमबात थी. जिसके बाद हमने जूतों की समस्या को शॉर्टलिस्ट किया और उस पर काम करना शुरू कर दिया और इसका परिणाम यह वॉटरप्रूफ जूता है.”
संतोष कोचरलाकोटा की इस पहल में एक यूरोपीय कंपनी के लिए इलेक्ट्रिक कार डिजाइन पर काम करने वाले नकुल लठकर और भारतीय रेलवे के लिए सीटें डिजाइन करने वाले विद्याधर भंडारे ने भी अहम योगदान दिया है. लठकर कहते हैं, “मैंने नौ घंटे में क्रोशी करना सीखा और इस जूते को सिलने में कामयाब रहा.” लठकर कहते हैं, जब वो गोंगडी (दक्खनी भेड़ की ऊन से बने शाल को गोंगडी कहते हैं.) और उसके जलरोधक गुणों के बारे में जानें तो हैरान रह गए, तो विद्याधर भंडारे ने उनके सिर पर शाल डाल दी और इसे साबित करने के लिए उन पर पानी डाला.
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विद्याधर भंडारे के मुताबिक, दक्खनी ऊन की पहचान करने से पहले टीम ने 40 प्रोटोटाइप का परीक्षण किया, जिनमें से कुछ जूट, केला फाइबर, कपास, स्क्रूपाइन फाइबर और यहां तक कि जलकुंभी फाइबर से बने थे.
जूते 'यार' ब्रांड नाम के तहत बेचे जा रहे हैं. शहरी क्षेत्रों में बेचे जाने वाले रंगीन मॉडल के जूतों की कीमत 2,500 रुपये है. वहीं किसान बिना रंग के काला जूता महज 900 रुपये में खरीद सकते हैं.
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