नकदी फसल होने के चलते देश के कई किसानों के बीच यूकेलिप्टस (सफेदा) की खेती का क्रेज बढ़ा है. लेकिन, ये भू जलस्तर के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है. यूकेलिप्टस की खेती वाले कई इलाके डेंजर जोन घोषित हो चुके हैं. यह पेड़ न सिर्फ जलस्तर बल्कि जमीन की सेहत के लिए नुकसानदेह है. यह मिट्टी के पोषक तत्वों को खींचकर मुट्ठी को बंजर बना देता है. वैज्ञानिकों की मानें तो प्रतिदिन यूकेलिप्टस करीब 12 लीटर पानी को खींच लेता है.
यही कारण है की इसका पेड़ मात्र 5 साल के भीतर ही तैयार हो जाता है. इसकी तुलना में सामान्य पौधे प्रतिदिन तीन लीटर के आसपास पानी खींचता है. किसान इससे होने वाले मुनाफे को देख कर इसकी खेती करते हैं. मगर वह इससे होने वाले नुकसान से अनभिज्ञ हैं.
यूकेलिप्टस का पौधा मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया और तस्मानिया में पाया जाता है. इसके अलावा इसकी खेती भारत, उत्तरी और दक्षिण अफ्रीका और दक्षिणी यूरोप में भी होता है. हिंदी में इसे नीलगिरी भी कहते हैं. ये पेड़ काफी लंबा और पतला होता है. इसकी पत्तियां नुकीली होती हैं. दुनिया भर में लगभग 600 प्रजातियां पाई जाती हैं. किसानों को इसकी खेती खेत में न करके नदियों, नहरों और तालाबों के किनारे लगाना चाहिए. जिससे पानी के बचाव से खेत की उर्वरता को बचाया जै सके. और खेत के होने वाले नुकसान से बचा जा सके.
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कभी दलदली जमीन को सूखी जमीन में बदलने के लिए अंग्रेजों के जमाने में भारत लाया गया था यूकेलिप्टस का पेड़ आज पर्यावरण के लिए मुसीबत का सबब बनते जा रहा है. यूकेलिप्टस के पेड़ों की बढ़ती संख्या से भूमि के गर्भ का जलस्तर बहुत तेजी से घटता जा रहा है. आर्थिक रूप से उपयोगी होने के कारण किसान अब आम, अमरूद शीशम के बजाए यूकेलिप्टस की खेती कर रहे हैं क्योंकि इस पौधे के हर मौसम में बढ़ने और खेती में आसानी होने के कारण किसान इसकी बागवानी को अपना रहे हैं.
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बीते कुछ सालों के दौरान ही सैकड़ों हेक्टेयर खेतों में यूकेलिप्टस लगाए जा रहे हैं. पेड़ के सीधा ऊपर जाने की वजह से किसान इस खेत की मेड़ों पर इसे लगा रहे हैं. इसके कारण यूकेलिप्टस के पेड़ों की संख्या में वृद्धि हुई है. इसके चलते किसानों को चंद पैसे का मुनाफा तो जरूर हो रहा है. लेकिन, पर्यावरण पर होने वाले भारी नुकसान की अनदेखी की जा रही है. वर्तमान में किसानों के लिए मुनाफे का यह सौदा भविष्य के लिए काफी नुकसानदायक है.
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