भारत जो एक कृषि प्रधान देश है और जहां पर एक बड़ी आबादी खेती में लगी है, वहां से जुड़ी एक बड़ी सच्चाई सामने आई है. एक रिपोर्ट की मानें तो आज महिला-प्रधान अर्थव्यवस्था को भले ही देश की आर्थिक प्रगति का सबसे बड़ा गेम-चेंजर माना जा रहा हो लेकिन सच्चाई यह है कि कृषि क्षेत्र में आज भी इसका असर न के बराबर है. कृषि जो न सिर्फ भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है बल्कि महिलाओं का सबसे बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र भी है. मगर फिर भी इस क्षेत्र में लगी महिलाओं को वेतन बहुत कम मिलता है.
अखबार द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में भारत के श्रम ढांचे में बड़े बदलाव हुए हैं. ग्रामीण पुरुष बेहतर कमाई वाली गैर-कृषि नौकरियों की ओर बढ़े. ऐसे में उनकी जगह खेतों में महिलाओं ने कमान संभाली है. नतीजतन महिलाओं की कृषि में भागीदारी 135 फीसदी तक बढ़ गई है. आज वो इस क्षेत्र की 42 फीसदी से ज्यादा की वर्कफोर्स हैं और हर तीन कामकाजी महिलाओं में से दो अब खेती में हैं. फिर भी, आंकड़े एक कठोर सच्चाई बयां करते हैं. अखबार ने पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे 2023-24 के आंकड़ों के हवाले से कहा है कि खेती के काम में लगी हर तीन में से एक महिला को कोई वेतन नहीं मिलता.
हालात बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बहुत खराब हैं. इन राज्यों में तो 80 फीसदी से ज्यादा महिलाएं कृषि से जुड़ी हैं. लेकिन उनमें से आधी से भी ज्यादा बिना भुगतान के काम करती हैं. महिला-प्रधान विकास की चर्चा भले जोरों पर हो, पर असल तस्वीर कुछ और कहती है. महिलाओं को अब तक औपचारिक तौर पर किसान की पहचान नहीं मिली है. उनके पास सिर्फ 13-14 प्रतिशत ही जमीन का मालिकाना हक है. समान काम के बदले उन्हें पुरुषों की तुलना में 20-30 फीसदी तक कम वेतन मिलता है.
निर्णय लेने की शक्ति, संपत्ति का अधिकार, ऋण और सरकारी सहायता तक पहुंच, इन सब पर अब भी पुरुषों का दबदबा है. यही कारण है कि महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बावजूद कृषि से होने वाली आमदनी नहीं बढ़ी. राष्ट्रीय सकल मूल्यवर्धन (GVA) में कृषि की हिस्सेदारी 2017-18 में 15.3 प्रतिशत से घटकर 2024-25 में 14.4 फीसदी रह गई. यानी 'कृषि का स्त्रीकरण' महिलाओं को सशक्त करने के बजाय असमानता को और गहरा कर रहा है.
फिर भी उम्मीद अभी बाकी हैं. ग्लोबल ट्रेड अब महिलाओं के लिए नए रास्ते खोल रहा है. भारत–यूके फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (एफटीए) इसका बड़ा उदाहरण है. यह समझौता अगले तीन वर्षों में भारत के कृषि निर्यात को 20 फीसदी तक बढ़ाने की संभावना रखता है, जिससे 95 प्रतिशत कृषि और खाद्य उत्पादों को शुल्क-मुक्त पहुंच मिलेगी.
चावल, मसाले, डेयरी और रेडी-टू-ईट उत्पाद जैसे सेक्टरों में भारतीय उत्पादकों को अब प्रीमियम बाजारों तक सीधी पहुंच मिलेगी. इन सभी मूल्य शृंखलाओं में महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी है. अगर इस समझौते के तहत महिलाओं के लिए प्रशिक्षण, ऋण सुविधा और बाजार से जुड़ाव जैसे प्रावधान लागू किए जाएं, तो महिलाएं खेत मजदूर से निकलकर बेहतर आय वाली उद्यमी बन सकती हैं.
हालांकि, इस बदलाव की राह में कई बाधाएं हैं, कम डिजिटल साक्षरता, भाषाई चुनौतियां, और तकनीकी संसाधनों की कमी. इन चुनौतियों को दूर करने के लिए सरकार, निजी क्षेत्र, स्वयं सहायता समूह (SHGs), किसान उत्पादक संगठन (FPOs) और NGOs को एक साथ मिलकर काम करना होगा. महिलाओं की भूमिका को वास्तव में बदलने के लिए भूमि और श्रम सुधार भी जरूरी हैं. महिलाओं को स्वतंत्र किसान के रूप में पहचान देने की जरूरत है. अगर उन्हें संयुक्त या व्यक्तिगत भूमि स्वामित्व का अधिकार मिलेगा, तो उनकी ऋण, बीमा और संस्थागत सहायता तक पहुंच भी मजबूत होगी.
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