Women Farmer's Day: कृषि क्षेत्र में हर जगह 'नारी शक्ति' का योगदान, फिर क्यों नहीं मिलती पहचान?

Women Farmer's Day: कृषि क्षेत्र में हर जगह 'नारी शक्ति' का योगदान, फिर क्यों नहीं मिलती पहचान?

Women Farmer's Day: जिन लोगों को ऐसा लगता है कि कृषि क्षेत्र में महिलाएं हैं ही कहां, जो उन्हें पहचान मिलेगी, उनकी आंख खोलने के लिए एक सरकारी रिपोर्ट आई है. पिरियोडिक लेबर फोर्स सर्वेक्षण (PLFS) 2023-24 के अनुसार, भारत के कृषि कार्यबल में अब महिलाओं की हिस्सेदारी 42% से अधिक हो गई है. इसके बावजूद अब तक क्यों किसान 'भाई' ही हैं. किसान भाई-बहन या किसान बहन-भाई क्यों नहीं?

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Women Farmer's Day: कृषि क्षेत्र में हर जगह 'नारी शक्ति' का योगदान, फिर क्यों नहीं मिलती पहचान?Women Farmers Day: खेती में कितना बड़ा है महिलाओं का योगदान?

चाय के बागानों और धान के खेतों से लेकर पशुपालन और रिसर्च लैब तक में हर जगह आपको महिलाएं काम करते हुए मिल जाएंगी. लेकिन जब नाम की बात आती है तो महिलाएं पीछे हो जाती हैं. आखिर क्यों किसान सिर्फ 'भाई' के तौर पर संबोधित किए जाते हैं और खेती में काम करने वाली 'बहनें' कहीं खो जाती हैं. हमेशा लोगों की जुबान पर क्यों सिर्फ किसान भाई ही क्यों आता है? यहां तक कि महिला कृषि श्रमिकों को आधिकारिक तौर पर पुरुषों के मुकाबले मेहनताना भी कम मिलता है. इसे सरकारी दस्तावेजों में बाकायदा दर्ज भी किया जाता है. खेती में काम करने वाली महिलाओं की संख्या अच्छी खासी है लेकिन, न उनके नाम जमीन है और न सामाजिक पहचान. सवाल ये है कि क्या बदलते जमाने में भी लोगों ने यह मान लिया है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं का कोई योगदान नहीं है?

मह‍िलाओं ने संभाली खेती की जिम्‍मेदारी

आज महिला किसान दिवस है, इसलिए हम खेत से लेकर लैब तक में, समाज से लेकर सरकारी तंत्र तक में कदम-कदम पर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव पर बात करेंगे. सरकारी आंकड़े भी तस्दीक करते हैं कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से कहीं भी कम नहीं है. बल्कि जैसे-जैसे रोजगार के लिए पुरुषों का शहरों की ओर पलायन बढ़ा है वैसे-वैसे खेती में महिलाओं की भूमिका और मजबूत ही होती गई है.

कामकाज  के लिए पुरुष शहरों की ओर चले गए और गांवों में खेती का जिम्मा औरतों ने उठा लिया. इसके बावजूद उन्हें क्यों एग्रीकल्चर सेक्टर में पुरुषों जैसी पहचान नहीं मिल पाई? जानी मानी पब्लिक पॉलिसी एक्सपर्ट विनीता हरिहरन कहती हैं कि पुरुष प्रधान माइंडसेट की वजह से कभी भी कृषि क्षेत्र में महिलाओं के योगदान को रेखांकित नहीं किया गया. इसीलिए किसान सिर्फ 'भाई' के तौर पर संबोधित किए जाते हैं.

कृषि का नारीकरण

जिन लोगों को ऐसा लगता है कि कृषि क्षेत्र में महिलाएं हैं ही कहां, जो उन्हें पहचान मिलेगी, उनके लिए एक सरकारी रिपोर्ट बता देता हूं. आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS-Periodic Labour Force Survey) 2023-24 के अनुसार, कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी में तेजी से वृद्धि हुई है. हालांकि उनमें से लगभग आधी महिलाओं को अभी भी भुगतान नहीं किया जाता है, जो कृषि रोजगार में गहरी लैंगिक असमानता को दर्शाता है. 

सर्वे के मुताबिक, भारत के कृषि कार्यबल में अब महिलाओं की हिस्सेदारी 42% से अधिक है, जो पिछले एक दशक में 135% की वृद्धि को दर्शाता है. हर तीन में से दो ग्रामीण महिलाएं कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं. कृषि क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं में से लगभग आधी महिलाएं अवैतनिक पारिवारिक श्रमिक हैं.

महिला किसानों की चुनौती

किसी भी किसान के लिए खेती आसान नहीं है. क्योंकि जोत यानी खेत का रकबा बहुत कम है. खाद जैसी बुनियादी चीज के लिए  किसानों को लाठी खानी पड़ रही है. बीज और नकली पेस्टीसाइड से किसानों का पीछा नहीं छूट रहा है. तमाम संघर्षों के बाद उपज होती है तो किसानों को बाजार लाचार कर देता है और सरकारी पॉलिसी मार देती है. महिला किसानों के लिए तो हालात और भी खराब हैं. उनके लिए न मंडियों में टॉयलेट की व्यवस्था है और न उनके हिसाब से खेती करने वाली मशीनें बनीं हैं. दूसरी ओर महिला किसान खाद-बीज के लिए पुरुषों की तरह ही संघर्ष कर रही हैं. इसके बावजूद वो खेती-किसानी में पहचान की मोहताज हैं.

महिला कृषि वैज्ञानिकों की उपेक्षा

हालांकि, मोदी सरकार ने कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए 'ड्रोन दीदी' की शुरुआत की है.  लेकिन, खेती के लिए लैब में काम करने वाली महिलाएं यानी महिला वैज्ञानिकों अब भी कृषि तंत्र में उपेक्षा की शिकार हैं. पुरुष प्रधान मानसिकता उन्हें आगे नहीं बढ़ने देती.

भारत में कृषि शोध करने वाली संस्था भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) की स्थापना के 96 साल हो गए हैं, लेकिन अब तक एक बार भी इसके प्रमुख यानी महानिदेशक का पद महिला के हिस्से में नहीं गया है. इस समय इसके अधीन आने वाले 114 संस्थानों में सिर्फ 3 महिला डायरेक्टर हैं. पूसा जैसे संस्थान में भी अब तक एक भी महिला डायरेक्टर नहीं बनाई गई है. जबकि कृषि क्षेत्र में बड़ी संख्या में महिला वैज्ञानिक काम कर रही हैं.

जमीन पर अधिकार

प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना का लाभ उन्हीं किसानों को मिलता है जिनके अपने नाम खेती योग्य जमीन हो. इस योजना में महिला लाभार्थी सिर्फ 25 फीसदी के आसपास ही हैं. क्योंकि बाकी के पास जमीन ही नहीं है. मेघालय, मणिपुर और नागालैंड जैसे पूर्वोत्तर के सूबों में महिलाओं के नाम 50 फीसदी से अधिक खेती है. लेकिन जैसे जैसे हम मैदानी राज्यों में आते हैं उनके नाम जमीन का मालिकाना हक कम होता जाता है. 

यहां तक कि पंजाब जैसे प्रोग्रेसिव कहे जाने वाले राज्य में 1 फीसदी से कम लाभार्थी हैं, जिससे पता चलता है कि हरित क्रांति की सबसे बड़ी प्रयोगशाला रहे पंजाब में महिलाओं के नाम बहुत कम जमीन है. हालांकि, सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक भारत में 3.6 करोड़ महिला किसान हैं, लेकिन इन सब के पास जमीन नहीं है. कुछ महिलाएं बटाई पर जमीन लेकर खेती करती हैं.

मजदूरी में भेदभाव

महिलाओं को किसान के तौर पर स्वीकार न करने वाले समाज की एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि उन्हें खेती में काम करने की मजदूरी भी किसानों से कम ही मिलती है.बकेंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से तैयार की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक 2023-24 में कृषि क्षेत्र में काम करने वाले पुरुष श्रमिकों की रोजाना की औसत मजदूरी 419.90 रुपये थी, जबकि महिलाओं की सिर्फ 360.45 रुपये. कुल मिलाकर कृषि क्षेत्र को आगे बढ़ाने के लिए काम करने वाली महिलाओं उनकी मेहनत का न तो सही दाम मिला और न पहचान मिली.

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