भारत दुनिया में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है. दालें हमारे भोजन का एक अभिन्न अंग हैं, जो करोड़ों लोगों के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत हैं. इसके बावजूद, हम अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए आज भी बड़े पैमाने पर दालों का आयात करते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर 2027 तक देश को दलहन में पूरी तरह से आत्मनिर्भर बनाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक बहुआयामी और केंद्रित योजना की जरूरत है, जो बीज से लेकर बाजार तक हर पहलू पर ध्यान दे. यह योजना सिर्फ उत्पादन बढ़ाने के बारे में नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करने के बारे में भी है कि किसानों को उनकी मेहनत का सही मूल्य मिले और उपभोक्ताओं को उचित कीमत पर दालें उपलब्ध हों.
आत्मनिर्भरता की राह पर पहला कदम यह समझना है कि हमें किन दालों के उत्पादन पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. मांग और आपूर्ति के आंकड़ों को देखें तो कुछ दालों में कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जिस पर ज्यादा जोर देना होगा.
अरहर (तूर) दाल भारत में सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली दालों में से एक है. इसकी सालाना खपत लगभग 42 से 45 लाख टन है, जबकि घरेलू उत्पादन 2023-24 में घटकर लगभग 34 लाख टन रह गया. यह सीधा-सीधा 11 लाख टन का भारी अंतर है, जिसे आयात से पूरा करना पड़ता है. अरहर के उपभोक्ता आसानी से किसी दूसरी दाल पर शिफ्ट नहीं होते, इसलिए इसका उत्पादन बढ़ाना सर्वोच्च प्राथमिकता है.
अरहर के बाद, सरकार का विशेष ध्यान मसूर और उड़द दाल पर है. इन दालों का भी बड़ी मात्रा में आयात किया जाता है. साल 2024-25 में मसूर 12.86 लाख टन और उड़द 8.23 लाख टन के बड़े आयात का अनुमान है, जो यह दर्शाता है कि इनके उत्पादन में भी एक बड़ा अंतर है जिसे भरने की जरूरत है. चना उत्पादन में हम काफी हद तक आत्मनिर्भर हैं, लेकिन इसका उपयोग बेसन के रूप में बहुत बड़े पैमाने पर होता है. मांग को पूरा करने और चने की कीमतों को स्थिर रखने के लिए, अक्सर कनाडा और अन्य देशों से सस्ती पीली मटर का आयात किया जाता है, जिसे बेसन उद्योग में विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.
साल 2024-25 में लगभग 20 लाख टन पीली मटर के आयात का अनुमान है. यह दिखाता है कि चने का उत्पादन स्थिर रखना और बढ़ाना कितना अहम है. इस बड़ी चुनौती से निपटने के लिए एक पांच-सूत्रीय योजना, या 'पंच-मंत्र', पर काम करना होगा जो धान और गेहूं की तरह दलहन की खेती को भी लाभदायक और आसान बना दे.
किसानों को उच्च उपज देने वाले, कम समय में पकने वाले 140-150 दिन और रोग-प्रतिरोधी संकर बीज उपलब्ध कराने होंगे. विशेष रूप से अरहर की ऐसी किस्मों पर शोध को बढ़ावा देना होगा जो 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार दे सकें. दालों की लगभग 80% खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों में होती है. इसलिए, सूखा-सहिष्णु किस्मों का विकास और सूक्ष्म-सिंचाई को बढ़ावा देना होग दालों की अंतर-फसल अनाज या तिलहन के साथ उगाना होगा. कीट और खरपतवार प्रबंधन की वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रशिक्षण देना होगा.
देश में धान और गेहूं कटाई के बाद खाली पड़े लाखों हेक्टेयर खेतों चावल की परती भूमि में ग्रीष्मकालीन मूंग और उड़द जैसी कम अवधि वाली दलहनी फसलें उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाएगा. गन्ना और धान जैसी ज्यादा पानी की खपत वाली फसलों के बजाय किसानों को दलहन की खेती की ओर मोड़ने के लिए वित्तीय सहायता देनी होगी. राज्य सरकारों को वोट की राजनिती छोड़कर धान की जगह दाल वाली फसलो पर बोनस देना होगा. नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 111 जिले ऐसे हैं जो दलहन उत्पादन का 75% हिस्सा पैदा करते हैं. इन जिलों में 'एक ब्लॉक-एक बीज ग्राम' जैसे क्लस्टर बनाकर संसाधनों का केंद्रित उपयोग किया जाए.
सिर्फ MSP घोषणा करना ही काफी नहीं है, बल्कि सरकार को MSP पर दालों की खरीद की गारंटी देनी होगी. खरीद केंद्रों को जैसे महाराष्ट्र, मराठवाड़ा-विदर्भ और उत्तरी कर्नाटक जैसे प्रमुख दलहन उत्पादक क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर खोलना होगा ताकि किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए दूर न जाना पड़े. इसके साथ धान की तरह इस दलहनी फसलों पर बोनस देना होगा, घरेलू किसानों को सस्ते आयात से बचाने के लिए मसूर और पीली मटर जैसी दालों पर आयात शुल्क को फिर से लागू करना एक महत्वपूर्ण कदम होगा. ई-नाम जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का उपयोग करके किसानों को अपनी उपज देश भर के बाजारों में पारदर्शी तरीके से बेचने की सुविधा देनी होगी.
फसल के बाद होने वाले नुकसान को कम करने के लिए प्रमुख उत्पादन क्षेत्रों में आधुनिक गोदाम और कोल्ड स्टोरेज का नेटवर्क बनाना होगा. यह इस योजना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. स्थानीय स्तर पर FPOs द्वारा संचालित दाल मिलिंग इकाइयां स्थापित करने से कई फायदे होंगे. इससे किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य मिलेगा, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार पैदा होगा और परिवहन लागत कम होगी. दाल से बेसन, पापड़, नमकीन और अन्य उत्पाद बनाने के लिए स्थानीय प्रसंस्करण को बढ़ावा देने से किसानों की आय में और वृद्धि होगी.
किस जिले में कौन सी दाल की खेती हो रही है, कितनी पैदावार की उम्मीद है, और मौसम का क्या असर पड़ सकता है - इन सब पर नजर रखने के लिए एक मजबूत निगरानी और निर्णय-समर्थन प्रणाली विकसित की जाएगी.दाल उत्पादन में अग्रणी देशों जैसे कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के साथ साझेदारी करके उनकी उन्नत किस्मों, मशीनीकरण और सर्वोत्तम प्रथाओं को भारत में अपनाया जा सकता है.: जिस दाल (जैसे चना या मूंग) का हमारे पास अधिशेष है, उसके निर्यात को बढ़ावा दिया जाएगा और जिन दालों की कमी है, उनके आयात के लिए अनुकूल व्यापार समझौते किए जाएंगे.
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