साल 2024 में प्रस्तावित लोकसभा चुनाव की तैयारियां तेज हो गई हैं. आम चुनाव में केंद्र की सत्ता पर आसीन बीजेपी को पद से हटाने के लिए विपक्ष ने अपनी कवायद तेज की हुई है, जिसके तहत बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अपरोक्ष अगुवाई में कांग्रेस, टीएमसी, जदयू समेत सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने के प्रयास तेज हुए हैं, जिसकी पहली बैठक पटना में संपन्न हो चुकी है तो वहीं विपक्षी दलों की दूसरी बैठक 17 और 18 जुलाई को बेंगलुरु में आयोजित होने जा रही है. विपक्षी दली की बैठक के लिए बेंगलुरु का चुनाव संभवत: कर्नाटक में नई कांग्रेस सरकार के गठन की वजह से लिया गया है, लेकिन इस बैठक से पहले ही कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने अपने कृषि संबंधी एक फैसले से देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा है, जिसे संवैधानिक तौर पर कर्नाटक कृषि उपज विपणन (विनियमन और विकास) (संशोधन) अधिनियम, 2023 का नाम दिया गया है.
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की अगुवाई में कर्नाटक सरकार ने 5 जुलाई 2023 को कर्नाटक कृषि उपज विपणन (विनियमन और विकास) (संशोधन) अधिनियम, 2023 को सदन में रखा है. कर्नाटक सरकार के इस कदम को लेकर नेशन फॉर फार्मर की स्टियरिंग कमेटी और किसान मजदूर कमीशन की ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य डॉ गोपाल कृष्ण कहते हैं कि इस एक्ट के जरिए कर्नाटक सरकार तीनों कृषि कानूनों के विरोध में उपजी किसानों की सभी समस्याओं का समाधान करने जा रही है. तो वहीं ये नया एक्ट बिहार कृषि उपज बाजार अधिनियम, 1960 के पुराने एक्ट को वापस लेने और फिर से लागू करने का मार्ग प्रशस्त करता है. इसके साथ ही उन्होंने बिहार कृषि उपज बाजार एक्ट 2006 को रद्द करने की मांग भी की है.
इस पूरे मामले को समझने के लिए थोड़े धैर्य की आवश्यकता जान पड़ती है. मसलन, ये पूरा मामला किसानों के भविष्य के लिए बेहद ही आवश्यक है, जिसकी हालियां नींव 2020 से शुरू होकर एक साल तक चले किसान आंदोलन पर पड़ी हुई दिखाई देती है, जिस पर एक नजर डालते हैं. असल में 2020 में केंद्र सरकार एक अध्यादेश लेकर आई थी, जिसमें केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानून को प्रस्तावित किया था, जिसमें पहला कानून, कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम -2020 था. तो वहीं दूसरा कानून, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020 और तीसरा कानून, आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020 था. इन कानूनों का विरोध करते हुए किसानों ने मोर्चे बंदी शुरू की है. इस मोर्चे बंदी ने आंदोलन का रूप लिया. नतीजतन किसानों ने दो तरफ से दिल्ली बॉर्डर को जाम कर दिया. किसानों का ये आंदोलन एक साल तब तक चला, जब तक पीएम नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग की. इसके बाद से अब तक किसान संगठन MSP गारंटी कानून को लेकर आंदोलित हैं.
कर्नाटक सरकार का नया कानून कर्नाटक कृषि उपज विपणन (विनियमन और विकास) (संशोधन) अधिनियम, 2023 की जड़ें भी तीन कृषि कानून आंदोलन से जुड़ी हुई हैं. असल में केंद्र की मोदी सरकार की तरफ से जब तीन कृषि कानूनों को लागू किया गया था, तो उस दौरान उत्तराखंड और कर्नाटक की सरकारों ने भी इसके अनुरूप कृषि उपज विपणन अधिनियम में संशोधन किए थे. अब, जब कर्नाटक की सत्ता पर कांग्रेस सरकार काबिज हुई तो वह पूर्ववर्ती बीजेपी सरकार की तरफ से कृषि पेश किए गए संशोधन को खत्म करने के लिए ये नया कानून लेकर आई है. कर्नाटक सरकार का दावा है कि नया कानून कर्नाटक कृषि उपज विपणन (विनियमन और विकास) अधिनियम, 1966 की एक नियमावली को फिर से बहाल करता है, जिसे 2020 में हुए संशोधन के तहत हटा दिया गया था.
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इस नियमावली के तहत ये सुनिश्चित किया गया था कि APMC बाजार यार्ड को छोड़कर किसी भी जगह पर अधिसूचित फसल की खरीद-ब्रिक्री नहीं की जा सकेगी. वहीं पुराने कानून में APMC बाजार यार्ड के बाहर अधिसूचित कृषि उपज की खरीद या ब्रिक्री के लिए तीन महीने की कैद और 30 हजार रुपये की सजा का प्रावधान भी था. नए विधेयक में ये भी कहा गया है कि APMC बाजार यार्ड के बाहर किसानों की उपजों की खरीद-ब्रिक्री से किसान व्यापारियों के शोषण के शिकार होंगे. इसके पीछे की वजह ये है कि शोषण को नियंत्रित करने की कोई व्यवस्था नहीं है. वहीं कर्नाटक सरकार ने कहा है कि 2020 में हुए संशोधन से जिस तरीके से खुले बाजार को स्वतंत्रता दी गई थी, उससे APMC बाजार यार्ड में काम करने वाले लोगों की आजीविका पर भी संकट मंडरा गया था.
कर्नाटक की नई कांग्रेस सरकार कर्नाटक कृषि उपज विपणन (विनियमन और विकास) (संशोधन) अधिनियम, 2023 लेकर आई है, जो 2020 में हुए संशोधनों से बने नियमों को खत्म करती है. इसके साथ ही कर्नाटक की इस पूरी कवायद के बाद बिहार कृषि उपज बाजार एक्ट 2006 को वापस लेने की मांग हो रही है. ये मांग तब और अहम हो जाती है, जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद के नेतृत्व में विपक्ष को एक करने की कवायद लोकसभा चुनाव से पहले हो रही है. कर्नाटक सरकार के नए कानून की तर्ज पर नेशन फॉर फार्मर की स्टियरिंग कमेटी और किसान मजदूर कमीशन की ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य डॉ गोपाल कृष्ण ने बिहार कृषि उपज बाजार एक्ट 2006 को रद्द करने की मांग की है. वह कहते हैं कि इस कानून को नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने 10 अगस्त 2006 को विधानसभा में पेश किया गया था. 2006 के कानून ने बिहार कृषि उपज बाजार अधिनियम, 1960 को रद्द कर दिया था. डॉ गोपाल कृष्ण कहते हैं कि 1960 के कानून से ही राज्य में कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) मंडी सिस्टम लागू हुआ था.
डॉ गोपाल कृष्ण कहते हैं कि केंद्र सरकार ने संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए 26 मार्च, 1963 को बिहार कृषि उपज बाजार अधिनियम, 1960 को केंद्र शासित प्रदेश मणिपुर तक बढ़ा दिया था. इससे पता चलता है कि बिहार एपीएमसी कानून दूसरों के लिए अनुकरणीय था.
किसान मजदूर कमीशन की ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य डॉ गोपाल कृष्ण कहते हैं कि 2006 में लाए गए विधेयक के खिलाफ पटना की सड़कों पर लंबा विरोध जुलूस निकाला गया, लेकिन विधेयक विधानमंडल से पारित हो गया. बिहार कृषि उत्पादन बाजार (निरसन) अधिनियम, 2006 को 1 सितंबर, 2006 को बिहार राजपत्र में प्रकाशित किया गया था, जो तत्काल प्रभाव से लागू हुआ. वह कहते हैं कि बिहार एपीएमसी कानून को निरस्त करने से कृषि पर रॉयल कमीशन, विधायिका और न्यायपालिका की सिफारिशों की समझदारी पर सवाल उठ गया, जिन्होंने कृषि बाजारों के विनियमन की सिफारिश की थी, जिससे देश भर में एपीएमसी कानूनों का मार्ग प्रशस्त हुआ.
देश में किसान आंदाेलन की नींंव बेहद ही गहरी रही है, जिसके केंद्र में बिहार भी रहा है. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वामी सहजानंद सरस्वती की अगुवाई में हुए किसान आंदोलन इनमें प्रमुख थे. किसान मजदूर कमीशन की ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य डॉ गोपाल कृष्ण कहते हैं कि स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तरफ से किए गए आंदोलन की वजह से ही बिहार कृषि उपज बाजार अधिनियम, 1960 जैसे कानून बन पाए थे. उन्होंने आगे कहा कि 1960 अधिनियम को मूल रूप से 1939 में पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंंह के कार्यकाल के दौरान बिहार विधानमंडल में पेश किया गया था. इसे अधिनियिम को 6 अगस्त, 1960 को राज्यपाल जाकिर हुसैन की सहमति प्राप्त हुई. राज्यपाल की सहमति के बाद इसे 10 सितंबर, 1960 को बिहार गजट एक्स्ट्रा-ऑर्डिनरी में प्रकाशित किया गया.
2006 से पहले बिहार में मंडी व्यवस्था का हाल बताते हुए किसान मजदूर कमीशन की ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य डॉ गोपाल कृष्ण कहते हैं कि 2006 में पारित किए गए विधेयक से पहले बिहार में किसानों की उपज खरीदने के लिए मंडी सिस्टम का ढांचा मजबूत था. मसलन, 2006 से पहले बिहार में 95 मार्केट यार्ड थे. तो वहीं 129 बाजार समितियां थी. वह कहते हैं कि 95 मार्केट यार्ड में से 54 यार्ड कवर थे, इनमें गोदाम प्रशासनिक भवन, वेटब्रिज, प्रसंस्करण और ग्रेडिंग इकाइयां जैसे बुनियादी ढांचे थे. वहीं आगे जोड़ते हुए कहते हैं कि साल 2004-2005 में, राज्य कृषि बोर्ड ने करोड़ों रुपये खर्च कर बुनियादी ढांचे का और मजबूत किया, लेकिन बिहार एपीएमसी कानून के निरस्त होने के बाद, एपीएमसी निरर्थक हो गए, जिसके परिणामस्वरूप बुनियादी ढांचे की कमी के कारण किसानों की आय कम हो गई और बाज़ार समितियां अस्तित्वहीन हो गईं. इनके ख़त्म होने से किसानों की आय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा.
बिहार में अधिसूचित फसलों की खरीद की मौजूदा व्यवस्था की बात करें तो वहां पर प्राइमरी एग्रीकल्चर क्रेडिट सोसायटी (PACS) और व्यापार मंडल प्रभावी हैं. PACS जहां गांव स्तर पर काम करते हैं, तो वहीं ब्लॉक स्तर पर व्यापार मंडल फसलों की खरीदारी करता है. दावा किया जाता है कि दोनों ही संस्थान किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी MSP पर फसलों की खरीद करते हैं, लेकिन किसानों का आरोप है कि उन्हें MSP का लाभ नहीं मिल पाता है. वहीं MSP पर फसलों की खरीद के लिए बिहार में फिर से मंडी सिस्टम लागू करने की मांग होती रही है.
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