
महाभारत की पौराणिक कथाओं में बलराम की पहचान ‘हलधर’ उपनाम से हुई है. इसी आधार पर माना जाता है कि भारत में खेती किसानी की विरासत महाभारत काल से जुड़ी है. साहित्य, कला, विज्ञान और युद्ध की विरासत को संजोए संग्रहालय तो खूब देखने को मिलते हैं. मगर, पौराणिक काल से हो रही खेती किसानी के अतीत का दीदार कराने वाले संग्रहालय आसानी से देखने सुनने को नहीं मिलते हैं. इस कमी को एक किसान ने ही पूरा किया है.
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उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती सतना जिले में पिथौराबाद गांव के प्रगतिशील किसान बाबूलाल दाहिया ने एक अनूठा संग्रहालय बनाया है. इसमें उन्होंने तीन दशक की मेहनत के बाद खेती किसानी से जुड़े उन भूले बिसरे औजारों को संजोया है, जिनकी मदद से पुरखों ने खेती को आज इस मुकाम तक पहुंचाया है. इतना ही नहीं कृषि उपकरणों का संग्रहालय बनाने से पहले 80 वर्षीय दाहिया बुंदेलखंड और बघेलखंड इलाके में बोए जाने वाले गेहूं, धान, दालों और सब्जियों के देसी बीजों का संग्रह कर चुके हैं. हाइब्रिड बीजों की भरमार में भुला दिए गए पारंपरिक किस्म के खाद्यान्नों को संरक्षित करने के उनके जज्बे का नतीजा है कि आज दाहिया के बीज बैंक में 300 किस्म के अनाजों और सब्जियों के पारंपरिक देसी बीज संरक्षित हैं. खेती की विरासत को संजोने के लिए उनकी लगन को देखते हुए भारत सरकार 2019 में दाहिया को पद्मश्री से नवाज चुकी है.
दाहिया ने बताया कि आसपास के किलों में राजाओं के संग्रहालय देखकर उन्हें ‘कृषि संग्रहालय’ बनाने का ख्याल जेहन में आया। वह बताते हैं, “किसी किले के संग्रहालय में हमें राजाओं के भाला, बरछी, ढाल, तलवार, तोप, उनकी पोशाकें और विलासिता के सामान देखने को मिलते हैं. लेकिन, खेती किसानी का इतिहास बताने वाले संग्रहालय मुझे कभी देखने को नहीं मिले. इसलिये मैंने खेती में काम आने वाले उपकरणों और ग्रामीण जीवन की वस्तुओं का संग्रहालय बनाने का फैसला किया.” उन्होंने कहा कि वह पिछले एक दशक से इन वस्तुओं को जुटा रह हैं. इनमें चूल्हा, चकिया से लेकर हल, बखर, कुदाल, खुरपी और हंसिया जैसे सैकड़ों छोटे बड़े उपकरणों को एकत्र किया गया है. उनका दावा है कि ये वस्तुएं बीते सौ साल के ग्रामीण जीवन की विकास यात्रा का दीदार कराती हैं.
उनकी दलील है, “खेती की नई पद्धति आ जाने से हमारे कृषि आश्रित समाज के लगभग दो ढाई सौ उपकरण, यन्त्र और बर्तन चलन से बाहर हो गए. इसलिए मैने महसूस किया कि इन सब यंत्रो और उनका इतिहास भी होना आवश्यक है. इसके बाद हमने यह संग्रहालय बनाया है.” उन्होंने बताया कि इस संग्रहालय में कोल्हू, पालकी और म्याना जैेसे कुछ जरूरी उपकरण नहीं हैं. क्योंकि इनको बनाने वाले अब बचे ही नहीं हैं. फिर भी इस तरह की वस्तुओं को जुटाने की कोशिश अनवरत जारी है. इस म्यूजियम में मुख्य रूप से 1960 से 1970 के दशक में शुरू हुई हरित क्रन्ति आने के पहले के उपकरण संजोए गए हैं. इसमें खेती के ही उपकरण भर नहीं हैं, बल्कि समूचे कृषि आश्रित समाज के उपकरण और बर्तन हैं, जो अब चलन से बाहर हैं. इनमें विभिन्न कालखंड में बुनी जाने वाली रस्सियां, मछुआरों के जाल, खटिया और गांव में ही बने जूता चप्पल भी शामिल हैं।
अपने पारंपरिक बीज बैंक के बारे में दाहिया का कहना है कि बीज संग्रह का अभियान शुरू करने से पहले वह बघेलखंड के लोक साहित्य मुहावरे, लोकोक्तियों, कहावतों, लोक कथाओं, पहेलियों और आख्यानों का संकलन करते थे. उस समय महसूस किया कि हरित क्रांति आने पर परंपरागत अनाजों के वजूद को खतरा पैदा हो गया. इसलिए 1980 के दशक में उन्होंने देसी बीजों को संरक्षित करना शुरू कर दिया. इसमें गेहूं और धान की देसी किस्मों को हाइब्रिड बीजों से सर्वाधिक खतरा उत्पन्न होने के कारण उन्होंने मोटे अनाज और धान की पारंपरिक किस्मों के सरक्षण पर जोर दिया. उनका दावा है, “हमारे बीज बैंक में लगभग 250 से 300 प्रकार के परंपरागत धान, गेंहू, मोटे अनाजों और सब्जियों के बीज संरक्षित हैं. जिनमें 200 प्रकार की तो धान ही है. यह सभी उन किस्मों के बीज हैं, जो हमारे इलाके में हजारों साल से प्रचलन में है.”
दाहिया का मानना है कि संकर प्रजाति के हाइब्रिड बीजों से उपजे खाद्यान्न से कुदरत, किसान और इंसान, तीनों को नुकसान होता है. उन्होंने कहा, “यह सही है कि हाईब्रीड बीजों की पैदावार अधिक होती है, पर इसकी उपज में बीज, खाद, जुताई, सिंचाई, दवाई आदि में किसान की आय का 80 फीसदी पैसा खर्च हो जाता है, जो व्यापारियों की जेब में जाता है. इसके अलावा हाइब्रिड फसलों से धरती और इंसानों की सेहत भी खराब होती है. जबकि परंपरागत अनाज हजारों साल से यहां की पारिस्थितिकी में रचे बसे हैं. इसलिए इनकी उपज की लागत नगण्य होती है और ये शरीर को संपूर्ण संतुलित पोषण भी प्रदान करते हैं.”
अपने बीज बैंक के देसी बीजों का प्रसार करने के लिए दाहिया किसानों को मुफ्त में देसी बीज देते हैं. इसके बदले वह किसान से फसल आने पर डेढ़ गुना बीज वापस ले लेते हैं. उनका कहना है कि ऐसा करने से उनके किसानों से संपर्क और संबंधों का दायरा बढ़ता है. इसके अलावा बीज के बदले सवाया या डेढ़ गुना बीज वापस लेने से उनका बीज बैंक दिनों दिन समृद्ध हो रहा है.
दाहिया के जीवन की सबसे अमूल्य संचित निधि के रूप में स्थापित हुए इस संग्रहालय का उद्घाटन आगामी 15 जनवरी को होगा. इसमें भूले बिसरे कृषि आश्रित समाज के उपकरण और रोजमर्रा की वस्तुओं को संजोकर रखा गया है. मध्य प्रदेश के विधान सभा अध्यक्ष गिरीश गौतम इसका उद्घाटन करेंगे. इस मौके पर गांव के लुहार, बढ़ई, बरार और चर्मकार सहित उन सात शिल्पियों को भी सम्मानित किया जाएगा, जिन्होंने इन वस्तुओं को दुरुस्त करने में दिन रात मेहनत की है.
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