भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (IVRI), इज्जतनगर ने 'जय गोपाल वर्मीकल्चर' तकनीक कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर को ट्रांसफर कर दिया है. इस अवसर पर संस्थान के निदेशक और कुलपति तथा कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर के निदेशक (प्रसार शिक्षा) ने समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए. अपने सम्बोधन में संस्थान के निदेशक डॉ त्रिवेणी दत ने कहा कि संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ रणवीर सिंह ने जो स्वदेशी केंचुआ की प्रजाति विकसित की है, वह कम खर्चीली है तथा पर्यावरण के अनुकूल भूमि कि उर्वरा शक्ति बड़ाने में मदद करती है. यह भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित तकनीकों में सबसे ज्यादा बिकने वाली तकनीक है जो अभी तक 14 राज्यों को हस्तांतरित की जा चुकी है.
डॉ दत ने कहा कि 'जय गोपाल वर्मीकल्चर' तकनीक भारतीय कृषि और पशुपालन के लिए एक आदर्श समाधान है, जो पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के साथ-साथ किसानों की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने में भी सहायक है. उन्होंने कहा कि “यह केंचुआ 2 से 46 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर जीवित रहकर कचरा खाता है. एक सप्ताह में प्रत्येक केंचुए से 25 से 30 बच्चे पैदा होते है. इनके काकून जीरे का आकार का होता है. इससे बनी हुई वर्मीकम्पोस्ट विदेशी केंचुओं से ज्यादा अच्छी होती है.”
आईवीआरआई के निदेशक डॉ त्रिवेणी दत ने बताया कि उत्तर प्रदेश में विदेशी केचुओं की दो प्रजाति आईसीनीया फीटिडा और यूड्रीलस यूजीनी से केंचुआ की खाद बनाई जाती है. लेकिन यूड्रीलस यूजीनी 35 डिग्री सेल्सियस तापक्रम से ऊपर और आईसीनीया फीटिडा 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान होने पर मर जाते है. इस वजह से किसानों के सामने जैविक खाद बनाने की समस्या थी. लेकिन जयगोपाल से किसानों को जैविक खाद बनाने में लाभ मिलेगा.
इस अवसर पर कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर के निदेशक (प्रसार शिक्षा) डॉ प्रदीप पगारिया ने संस्थान के निदेशक का इस तकनीक को हस्तांतरित करने के लिए धन्यवाद दिया. उन्होंने कहा कि जय गोपाल तकनीक के प्रयोग से राजस्थान के कृषि क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा, साथ ही पैदावार में भी वृद्धि होगी. डॉ पगारिया ने कहा कि यह तकनीकी हस्तांतरण एक शुरुआत है तथा आईवीआरआई द्वारा किसानों तथा पशुपालकों के लिए विकसित अन्य तकनीकों का भी भविष्य में हस्तांतरण किया जाएगा.
इस प्रजाति से बनी हुई केंचुए की खाद मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में संजीवनी का कार्य करती है. इस केंचुआ में 67 प्रोटीन और एमीनो एसीड होते है जो मुर्गीपालन और मछली पालन के लिए भी अधिकता होने पर आहार का कार्य भी करते है.
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